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Last Updated : बुधवार, 26 जून 2019 (11:25 IST)

डीएनए प्रोफाइलिंग का मकसद क्या है

डीएनए प्रोफाइलिंग का मकसद क्या है | DNA profiling
नागरिक संगठनों का मानना है कि गहन अध्ययन और व्यापक बहस के बिना डीएनए टेक्नॉलजी बिल को कानूनी शक्ल देना सही नहीं होगा।
 
 
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अध्यक्षता वाली केंद्रीय मंत्रिपरिषद ने डीएनए टेक्नॉलजी रेगुलेशन बिल 2018 को मंजूरी दे दी है। अपने पहले कार्यकाल में मोदी सरकार ने इस बिल को लोकसभा में पास करा लिया था लेकिन राज्यसभा में ये पास नहीं हो पाया था। सरकार की ये नई तत्परता बिल के आलोचकों और विशेषज्ञों को हैरान कर रही है। नागरिक संगठनों का मानना है कि गहन अध्ययन और व्यापक बहस के बिना इस बिल को कानूनी शक्ल देना सही नहीं होगा।
 
 
बिल से कैसी आशंकाएं
हालांकि पिछले साल जुलाई में जब इसे कैबिनेट की मंजूरी के बाद लोकसभा में रखा जा रहा था, और उससे पहले इसके ड्राफ्ट को लेकर चर्चाएं शुरू हुई थीं, तभी से मानवाधिकार कार्यकर्ता और निजता की हिफाजत के समर्थक इसकी आलोचना करते रहे हैं। उनकी आशंका है कि ये बिल डीएनए प्रोफाइलिंग के जरिए व्यक्ति की निजता के अधिकार को बाधित कर सकता है और सरकार और सुरक्षा एजेंसियां इसकी आड़ में मानवाधिकारों का उल्लंघन कर सकती हैं। दूसरी ओर सरकार पहले ही ये दावा कर चुकी है कि बिल, बड़े अपराधों के खिलाफ एक सशक्त कार्ययोजना की तरह काम करेगा और अपराध के खिलाफ सूचना का एक सुगठित और व्यापक नेटवर्क तैयार करने में मदद भी मिलेगी। बिल से जुड़ी आशंकाओं को सरकार ने निराधार बताया है।

 
फायदों की लंबी फेहरिस्त
पहली बार इस बिल की संकल्पना केंद्र में वाजपेयी की अगुवाई वाली पूर्व एनडीए सरकार के दौर में सामने आई थी। सरकार के मुताबिक डीएनए आधारित फोरेंसिक प्रौद्योगिकियों के जरिए देश की न्यायिक प्रणाली को सुदृढ़ बनाने के मकसद से ये बिल लाया जा रहा है। आपराधिक घटनाओं की जांच और अपराधियों की छानबीन के अलावा गुमशुदा लोगों की तलाश और मृतकों की पहचान में भी डीएनए-प्रौद्योगिकी दुनिया भर में ख्यात है। दावा किया जा रहा है कि बिल के जरिए न्याय जल्द से जल्द किया जा सकेगा और अपराध साबित किए जा सकेंगे। क्रॉस डीएनए परीक्षण से मृत या लापता व्यक्ति का पता चल पाएगा, इसके अलावा बड़ी प्राकृतिक विपदाओं या दुर्घटनाओं के मृतकों की सही पहचान हो पाएगी।
 
 
क्रियान्वन के इंतजाम
बिल के तहत एक राष्ट्रीय डीएनए डाटा बैंक, क्षेत्रीय बैंक और एक डीएनए रेगुलेटरी बोर्ड गठित किया जाएगा। व्यक्ति की पहचान के लिए डीएनए नमूनों की जांच करने वाली देश की प्रत्येक लेबोरेटरी को बोर्ड से मान्यता लेनी होगी। बिल के मुताबिक हर डाटा बैंक को घटनास्थल, संदिग्ध और विचाराधीन कैदियों, अपराधियों, गुमशुदा लोगों और अज्ञात मृतकों के सूचकांक अनिवार्य रूप से रखने होंगे। बिल में ये प्रावधान किया गया है कि बगैर लिखित सहमति के किसी व्यक्ति का डीएनए सैंपल नहीं लिया जा सकता है लेकिन सात साल से अधिक की जेल की सजा भुगत रहे कैदियों या मृतकों के डीएनए सैंपल लेने पर कोई रोक नहीं होगी। प्रावधान तो ये भी है कि एक बार पुलिक रिपोर्ट दर्ज हो गई या कोर्ट का आदेश हो गया तो संदिग्धों या विचाराधीन कैदियों के डीएनए प्रोफाइल हटा देने होंगे। लापता लोगों के इंडेक्स में दर्ज प्रोफाइल लिखित अनुरोध के बाद ही हटाए जा सकेंगे।

 
डीएनए प्रोफाइलिंग पुलिस और सुरक्षा एजेंसियों के लिए मुफीद और कारगर बताई गई है लेकिन दुनिया भर में ये भी माना गया है कि डीएनए प्रोफाइलिंग पर्याप्त अभ्यास, परिश्रम, पारदर्शिता और प्रशिक्षण की मांग करती है। विशेषज्ञों के मुताबिक घटनास्थल यानी क्राइम सीन का उचित परीक्षण किया जाए, पुलिस टीम और डाटा जुटाने वाले उपकरण प्रामाणिक और विश्वसनीय हों। आकलन का काम भी उतना ही भरोसेमंद और असंदिग्ध होना चाहिए अन्यथा डीएनए डाटा मामला सुलझाने के बजाय उसे खराब कर देगा, न्याय प्रक्रिया सवालों के घेरे में आएगी, जुटाए गए साक्ष्यों के गलत इस्तेमाल का खतरा भी रहेगा- ये कहना कि छेड़छाड़ असंभव है- सही नहीं होगा। इस तरह के बहुत से सवाल हैं जिन्हें खारिज करने के बजाय स्वाभाविक मानते हुए संतोषजनक उत्तर मिलना चाहिए।

 
देश को इसकी जरूरत क्यों
संस्थाओं की कार्यप्रणाली पर उठ रहे सवालों के बीच प्रस्तावित डीएनए रेगुलेटरी बोर्ड की संरचना और रूपरेखा भी विश्वसनीय, मजबूत और निष्पक्ष होनी चाहिए। डीएनए प्रोफाइलिंग से जुड़ी और भी विसंगतियां और पेंचीदगियां सामने आई हैं। विशेषज्ञों के मुताबिक निजी विशेषताओं को रेखांकित करने वाले डीएनए सैंपल को इस काम में प्रयुक्त नहीं किया जा सकता है। निर्दोष लोगों के सैंपल मिटा देने का प्रावधान है लेकिन ये कब साबित होगा कि वे निर्दोष हैं, और ये कैसे सुनिश्चित किया जाएगा कि उनका डीएनए सैंपल किसी अन्य देसी या विदेशी एजेंसी के साथ साझा नहीं हुआ है। डाटा लीकेज की चिंता भी अपनी जगह है। सरकार को बताना चाहिए कि आखिर इस बिल की देश को क्या और कितनी जरूरत है।
 
और जब तक इस तरह की बहुत सारी आशंकाओं, संदेहों और सवालों के जवाब नहीं मिल जाते या उनके निस्तारण के उपाय नहीं कर लिए जाते तब तक इस तरह के बिल को कानूनी जामा पहनाने की हड़बड़ी से सरकार को बचना चाहिए। विपक्ष जिस भी आकार और संख्या में इस समय संसद में उपस्थित है वो भी उन सभी प्रावधानों पर खुलकर सरकार से जवाब मांगने की कोशिश करे जिनके जरिए नागरिक हितों और मानवाधिकारों पर कथित रूप से चोट पहुंचने की आशंका प्रबल है। हो सकता है जब ये बिल सदन में आए तो विपक्ष के पास भी कोई रणनीति हो।
 
नागरिक संगठनों को भी निर्भयतापूर्वक अपनी बात रखने का अवसर मिलना चाहिए। सरकार भी शायद यही चाहेगी कि इस महत्वाकांक्षी बिल पर व्यापक बहस हो ताकि ये सौ फीसदी पारदर्शी, सुरक्षित और त्रुटिहीन बन सके। सबसे महत्त्वपूर्ण बात ये है कि सरकार का कोई भी कदम डर या शंका की तरह नागरिकों के बीच न जाए क्योंकि लोकतंत्र तभी समृद्ध और कारगर होगा जब नागरिक खुद को भयभीत, लाचार और असुरक्षित नहीं महसूस करेंगे।