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Last Modified: गुरुवार, 1 नवंबर 2018 (11:58 IST)

आसिया बीबी: क्या पाकिस्तान तैयार है?

आसिया बीबी: क्या पाकिस्तान तैयार है? | aasia bibi case
पाकिस्तान की सुप्रीम कोर्ट ने ईशनिंदा के आरोपों में मौत की सजा पाने वाली आसिया बीबी को बरी कर ऐतिहासिक फैसला सुनाया है। लेकिन सवाल यह है कि क्या पाकिस्तान ऐसे फैसलों के लिए तैयार है?
 
 
अदालत का फैसला आते ही एक तरफ दुनिया भर में इसे 'इंसाफ की मिसाल' करार दिया गया तो वहीं पाकिस्तान के बड़े शहरों में हंगामा शुरू हो गया। कट्टरपंथियों को यह बात हजम नहीं हो रही है कि ईशनिंदा के इल्जाम में मौत की सजा पाने वाली एक ईसाई महिला को कैसे बरी किया जा सकता है। वह भी तब, जब 2010 से चल रहे इस मामले में लाहौर हाई कोर्ट तक मौत की सजा पर मुहर लगा चुका था।
 
 
लेकिन देश की सबसे बड़ी अदालत ने मामले को पलट दिया और इस बारे में पेश सबूतों को नाकाफी बता कर मामला खारिज कर दिया।
 
 
इस फैसले पर मानवाधिकार कार्यकर्ता और सिविल सोसाइटी के लोग खुशी मना रहे हैं। लेकिन दूसरी तरफ कट्टरपंथी इसके विरोध में सड़कों पर उतर आए हैं और मरने और मारने की बात कर रहे हैं। लाहौर से लेकर कराची तक कई बड़े शहर कट्टरपंथियों की गिरफ्त में हैं। बस ठप, रेल ठप, इंटरनेट ठप और पूरा आम जनजीवन ठप। कट्टरपंथी धमकी दे रहे हैं कि जब तक आसिया बीबी को फांसी पर नहीं चढ़ाया जाएगा, वे सड़कों से नहीं हटेंगे। 
 
 
हिमाकत देखिए कि देश के चीफ जस्टिस समेत जिन तीन जजों की बेंच ने यह फैसला दिया, कट्टरपंथी उनकी हत्या के लिए लोगों को उकसा रहे हैं। तहरीक ए लब्बैक नाम की एक धार्मिक पार्टी कह रही है कि जिस किसी ने भी आसिया बीबी के मामले में दखल दिया है, वह मौत का हकदार है। कट्टरपंथी तो प्रधानमंत्री इमरान खान की सरकार को बर्खास्त करने की भी मांग रहे हैं।
 
 
हालात की नजाकत को देखते हुए सरकार ने शहरों में सुरक्षा बढ़ा दी है। लेकिन यह मामला सिर्फ सुरक्षा व्यवस्था का नहीं है। मामला पाकिस्तानी समाज में गहराई तक जड़ें जमा चुके कट्टरपंथ का है, जो ततैया का वह छत्ता बन गया है जिसमें कोई भी हाथ डालने से घबराता है। जिसने भी इसे छेड़ने की कोशिश की, उसे भारी कीमत चुकानी पड़ी है। 2011 में पंजाब प्रांत के गवर्नर सलमान तासीर और केंद्र सरकार में अल्पसंख्यक मामलों के मंत्री शहबाज भट्टी इसकी बलि चढ़ चुके हैं। उनका कसूर बस इतना था कि वे ईशनिंदा कानून में बदलाव के समर्थक थे।
 
 
यह बात सही है कि इस्लाम को पाकिस्तान के अस्तित्व से अलग करके नहीं देखा जा सकता। धर्म को ही तो भारत के बंटवारे का आधार बनाया गया था। लेकिन क्या एक आधुनिक समाज में ईशनिंदा जैसे कानूनों की जगह हो सकती है, जिनमें अफवाहों और कही सुनी बातों के आधार पर किसी निर्दोष को फांसी के तख्ते पर चढ़ाने का फैसला हो जाता है। आसिया बीबी के मामले को ही लीजिए। उसके ऊपर ईशनिंदा के आरोप उसके पड़ोसियों की शिकायत पर दर्ज किए गए। ये पड़ोसी खासकर इस बात से खफा थे कि उसने गैर मुसलमान होते हुए उनके गिलास से पानी क्यों पिया।
 
 
पाकिस्तान के मानवाधिकार कार्यकर्ता कहते हैं कि कई बार रंजिश निकालने के लिए लोग किसी को भी ईशनिंदा के मामले में फंसा देते हैं। एक बार आप फंसे तो निकलने की राह बहुत मुश्किल है। आपके इर्द गिर्द सियासत और धर्म का घेरा कसने लगता है। कई मामलों में तो बात अदालत तक भी नहीं पहुंचती। गुस्साई भीड़ आरोपी को मौके पर ही पीट पीट कर मार डालती है।
 
 
ऐसे में रिहाई के बाद भी आसिया बीबी के लिए पाकिस्तान में रहना आसान नहीं होगा। बहुत संभव है कि उसे देश छोड़ना पड़े। इससे पहले 2013 में ईशनिंदा के आरोपों का सामना करने वाली ईसाई लड़की रिम्शा मसीह को भी पाकिस्तान छोड़कर कनाडा में बसना पड़ा। सवाल यह है कि क्या एक देश को अपनी धार्मिक पहचान बनाए रखने के लिए ईशनिंदा जैसे कानूनों के सहारे की जरूरत है?
 
 
विरोध प्रदर्शन करने वालों में जिस तहरीक ए लब्बैक पार्टी का नाम सबसे आगे चल रहा है, उसे पाकिस्तान के हालिया आम चुनावों में एक भी सीट नसीब नहीं हुई। लेकिन उसके इतने समर्थक जरूर हैं कि सड़क पर उतर कर तोड़फोड़ कर सकें। अपने फायदे के लिए धर्म का इस्तेमाल करना ऐसी पार्टियां खूब जानती हैं। पाकिस्तान जैसे समाज में तो यह और भी आसान है।
 
 
शायद आपको याद हो कि सलमान तासीर के हत्यारे मुमताज कादरी को जब 2011 में अदालत में पेश किया गया था तो कैसे उस पर गुलाबों की पंखुड़ियां बरसाई गई थीं। यह काम किसी कट्टरपंथी गुट के उत्साही कार्यकर्ताओं ने नहीं, बल्कि अदालत में मौजूद वकीलों ने किया था। इससे पता चलता है कि जब आपकी आंखों पर धर्म का पर्दा पड़ा होता है तो आपके लिए 'सही और गलत' अपने मायने खो देते हैं।
 
 
आर्थिक संकट के मोर्चे पर जूझ रहे प्रधानमंत्री इमरान खान के लिए आसिया बीबी की रिहाई एक और बड़ी चुनौती है। एक तरफ उन्हें ईसाइयों और दूसरे अल्पसंख्यक समुदायों की सुरक्षा सुनिश्चित करनी होगी, तो दूसरी तरफ कट्टरपंथियों के हमले भी झेलने होंगे। इमरान खान के लिए चुनौती इसलिए भी बड़ी है कि क्योंकि उनके ऊपर कट्टरपंथियों के प्रति नरम रवैया रखने के इल्जाम लगते हैं। तब्दील का नारा देकर सत्ता में आए इमरान खान को शायद समझ आ रहा है कि बदलाव इतना आसान नहीं है। खासकर पाकिस्तान का समाज जिस तरह कट्टरपंथी रंग में रंगा है, उसे देखते हुए तो बदलाव की राह और मुश्किल लगती है।
 
 
आसिया बीबी के मामले में फैसला सुनाते हुए चीफ जस्टिस साकिब निसार ने भी कुरान का हवाला दिया और कहा कि सहिष्णुता इस्लाम का बुनियादी सिद्धांत हैं। लेकिन कट्टरपंथियों के लिए धर्म की अपनी व्याख्या है। यही वजह है कि आसिया बीबी को बरी किए जाने के फैसले को वे अपने अस्तित्व के लिए खतरा समझ रहे हैं जबकि दुनिया के लिए यह 'इंसाफ की नजीर' है।
 
 
रिपोर्ट अशोक कुमार
 
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