कविता : संजा के मीठे बोल
गांवों में घरों की दीवारों पर
ममता भरा आंचल का अहसास होता
जब मंडती संजा
दीवारें सज जाती पूरे गांव की
और संजा बन जाती जैसे दुल्हन
प्रकृति के प्रति स्नेह को
दीवारों पर जब बांटती बेटियां
संजा के मीठे बोल भर जाते कानों में मिठास
गांव भी गर्व से बोल उठता
ये है हमारी बेटियां
शहर की दीवारों पर
टकटकी लगाएं देखती
संजा के रंग और लोक गीत ऊंची अट्टालिकाओं
में मेरी संजा मानों घूम सी गई है
लोक संस्कृति की खुशियां क्यूं
रूठ सी गई
लगता भ्रूण हत्याओं से मानों
सुनी दीवारें भी रोने लगी है
मेरी संजा मुझे न रुला बार-बार
संजा मांडने का दृढ़ निश्चय
लोक संस्कृति को अवश्य बचाएगा
बेटियों को लोक गीत अवश्य सिखाएगा
जब आएगी संजा घर मेरे