Makar Sankranti Poem : कटती डोर, दुखता मन
मैं पतंग हूं Main Patang Hun
आकाश में उड़तीं
रंग-बिरंगी पतंगें
करती न कभी
किसी से भेदभाव।
जब उड़ नहीं पाती
किसी की पतंगें तो
देते मौन हवाओं को
अकारणभरा दोष।
मायूस होकर
बदल देते दूसरी पतंग
भरोसा कहां रह गया?
पतंग क्या चीज
बस हवा के भरोसे।
जिंदगी हो इंसान की
आकाश और जमीन के
अंतराल को पतंग से
अभिमानभरी निगाहों से
नापता इंसान।
और खेलता होड़ के
दांव-पेज धागों से
कटती डोर दुखता मन।
पतंग किससे कहे
उलझे हुए
जिंदगी के धागे सुलझने में
उम्र बीत जाती
निगाहें कमजोर हो जाती।
कटी पतंग
लेती फिर से इम्तिहान
जो कट के
आ जाती पास हौसला देने।
हवा और तुमसे ही
मैं रहती जीवित
उड़ाओ मुझे?
मैं पतंग हूं उड़ना जानती
तुम्हारे कांपते हाथों से
नई उमंग के साथ
तुमने मुझे
आशाओं की डोर से बांध रखा।
दुनिया को ऊंचाइयों का
अंतर बताने उड़ रही हूं
खुले आकाश में
क्योंकि एक पतंग जो हूं
जो कभी भी कट सकती
तुम्हारे हौसला खोने पर।