जैन धर्मावलंबी भाद्रपद मास में पर्युषण पर्व मनाते हैं। पर्युषण पर्व मनाने का मूल उद्देश्य आत्मा को शुद्ध बनाने के लिए आवश्यक उपक्रमों पर ध्यान केंद्रित करना होता है।
श्वेताम्बर संप्रदाय के पर्युषण 8 दिन चलते हैं। संवत्सरी पर्व यानी क्षमावाणी पर्व पर 'मिच्छामी दुक्कड़म' कहकर सभी से क्षमा मांगी जाती है। उसके बाद दिगंबर संप्रदाय वाले 10 दिन तक पर्युषण मनाते हैं। उन्हें वे 'दसलक्षण' के नाम से भी संबोधित करते हैं।
पर्यावरण का शोधन इसके लिए वांछनीय माना जाता है। आत्मा को पर्यावरण के प्रति तटस्थ या वीतराग बनाए बिना शुद्ध स्वरूप प्रदान करना संभव नहीं है। इस दृष्टि से 'कल्पसूत्र' या तत्वार्थ सूत्र का वाचन और विवेचन किया जाता है और संत-मुनियों और विद्वानों के सान्निध्य में स्वाध्याय किया जाता है। पूजा-आरती, समागम, उपवास, त्याग-तपस्या में अधिक से अधिक समय व्यतीत किया जाता है और दैनिक व्यावसायिक तथा सावद्य क्रियाओं से दूर रहने का प्रयास किया जाता है। संयम और विवेक का प्रयोग करने का अभ्यास चलता रहता है।
मंदिर, उपाश्रय, स्थानक तथा समवशरण परिसर में अधिकतम समय तक रहना जरूरी माना जाता है। वैसे तो पर्युषण पर्व दीपावली व क्रिसमस की तरह उल्लास-आनंद के त्योहार नहीं हैं। फिर भी उनका प्रभाव पूरे समाज में दिखाई देता है।
उपवास, बेला, तेला, अठ्ठाई, मासखमण जैसी लंबी बिनाकुछ खाए, बिना कुछ पिए, निर्जला तपस्या करने वाले हजारों लोग सराहना प्राप्त करते हैं। भारत के अलावा ब्रिटेन, अमेरिका, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया, जापान, जर्मनी व अन्य अनेक देशों में भी पर्युषण पर्व धूमधाम से मनाए जाते हैं।
क्षमा पर्व :-
पर्युषण पर्व पर क्षमावाणी का कार्यक्रम ऐसा है जिससे जैनेतर जनता को काफी प्रेरणा मिलती है। इसे सामूहिक रूप से विश्व-मैत्री दिवस के रूप में मनाया जा सकता है। पर्युषण पर्व के समापन पर इसे मनाया जाता है। गणेश चतुर्थी या ऋषि पंचमी को संवत्सरी पर्व मनाया जाता है।
उस दिन लोग उपवास रखते हैं और स्वयं के पापों की आलोचना करते हुए भविष्य में उनसे बचने की प्रतिज्ञा करते हैं। इसके साथ ही वे 84 लाख योनियों में विचरण कर रहे, समस्त जीवों से क्षमा मांगते हुए यह सूचित करते हैं कि उनका किसी से कोई बैर नहीं है। परोक्ष रूप से वे यह संकल्प करते हैं कि वे पर्यावरण में कोई हस्तक्षेप नहीं करेंगे।
मन, वचन और काया से जानते या अजानते वे किसी भी हिंसा की गतिविधि में भाग न तो स्वयं लेंगे, न दूसरों को लेने को कहेंगे और न लेने वालों का अनुमोदन करेंगे। यह आश्वासन देने के लिए कि उनका किसी से कोई बैर नहीं है, वे यह भी घोषित करते हैं कि उन्होंने विश्व के समस्त जीवों को क्षमा कर दिया है और उन जीवों को क्षमा मांगने वाले से डरने की जरूरत नहीं है।
खामेमि सव्वे जीवा, सव्वे जीवा खमंतु मे। मित्तिमे सव्व भुएस् वैरं ममझं न केणई। यह वाक्य परंपरागत जरूर है, मगर विशेष आशय रखता है। इसके अनुसार क्षमा मांगने से ज्यादा जरूरी क्षमा करना है।
क्षमा देने से आप अन्य समस्त जीवों को अभयदान देते हैं और उनकी रक्षा करने का संकल्प लेते हैं। तब आप संयम और विवेक का अनुसरण करेंगे, आत्मिक शांति अनुभव करेंगे और सभी जीवों और पदार्थों के प्रति मैत्री भाव रखेंगे। आत्मा तभी शुद्ध रह सकती है जब वह अपने से बाहर हस्तक्षेप न करे और बाहरी तत्व से विचलित न हो। क्षमा-भाव इसका मूलमंत्र है।