bhagwan shri adinath moksha kalyanak day: प्रतिवर्ष माघ मास की कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी तिथि पर जैन धर्म के प्रथम तीर्थंकर भगवान आदिनाथ का मोक्ष कल्याणक दिवस मनाया जाता है। जैन धर्मानुसार भगवान आदिनाथ भगवान को ऋषभदेव भी कहते हैं। आदिनाथ का अर्थ आदि का मतलब प्रथम से होता है और ऋषभदेव ही प्रथम व्यक्ति थे, जिन्होंने धर्म जैन धर्म में तीर्थंकरों की रचना की थी। आइए जानते हैं यहां उनके बारे में...
भगवान आदिनाथ का जन्म कब हुआ था : जैन धर्म के पहले तीर्थंकर भगवान आदिनाथ का जन्म चैत्र कृष्ण नौवीं के दिन सूर्योदय के समय हुआ। उन्हें आदिनाथ के अलावा ऋषभदेव या ऋषभनाथ भी कहा जाता है। ऋषभदेव आदिनाथ भगवान का जन्म युग के आदि में राजा नाभिराय जी के यहां पर माता मरूदेवी की कोख में हुआ था। उन्हें जन्म से ही सम्पूर्ण शास्त्रों का ज्ञान था। वे समस्त कलाओं के ज्ञाता और सरस्वती के स्वामी थे।
भगवान आदिनाथ का जीवन और राज : युवा होने पर कच्छ और महाकच्छ की दो बहनों यशस्वती (या नंदा) और सुनंदा से ऋषभनाथ का विवाह हुआ। नंदा ने भरत को जन्म दिया, जो आगे चलकर चक्रवर्ती सम्राट बने। उसी के नाम पर हमारे देश का नाम भारत पड़ा (जैन धर्मावलंबियों की ऐसी मान्यता है)। आदिनाथ ऋषभनाथ सौ पुत्रों और ब्राह्मी तथा सुंदरी नामक दो पुत्रियों के पिता बने।
भगवान ऋषभनाथ ने ही विवाह-संस्था की शुरुआत की और प्रजा को पहले-पहले असि/ सैनिक कार्य, मसि/लेखन कार्य, कृषि/खेती, विद्या, शिल्प/ विविध वस्तुओं का निर्माण और वाणिज्य-व्यापार के लिए प्रेरित किया। कहा जाता है कि इसके पूर्व तक प्रजा की सभी जरूरतों को कल्पवृक्ष पूरा करते थे। उनका सूत्र वाक्य था- 'कृषि करो या ऋषि बनो।'
ऋषभनाथ ने हजारों वर्षों तक सुखपूर्वक राज्य किया फिर राज्य को अपने पुत्रों में विभाजित करके दिगंबर तपस्वी बन गए। उनके साथ सैकड़ों लोगों ने भी उनका अनुसरण किया। जब कभी वे भिक्षा मांगने जाते, लोग उन्हें सोना, चांदी, हीरे, रत्न, आभूषण आदि देते थे, लेकिन भोजन कोई नहीं देता था। इस प्रकार, उनके बहुत से अनुयायी भूख बर्दाश्त न कर सके और उन्होंने अपने अलग समूह बनाने प्रारंभ कर दिए। यह जैन धर्म में अनेक सम्प्रदायों की शुरुआत थी।
जैन मान्यता है कि पूर्णता प्राप्त करने से पूर्व तक तीर्थंकर मौन रहते हैं। अत: आदिनाथ को एक वर्ष तक भूखे रहना पड़ा। इसके बाद वे अपने पौत्र श्रेयांश के राज्य हस्तिनापुर पहुंचे। श्रेयांस ने उन्हें गन्ने का रस भेंट किया जिसे उन्होंने स्वीकार कर लिया। वह दिन आज भी 'अक्षय तृतीया' के नाम से प्रसिद्ध है। हस्तिनापुर में आज भी जैन धर्मावलंबी इस दिन गन्ने का रस पीकर अपना उपवास तोड़ते हैं।
अत: इस प्रकार, एक हजार वर्ष तक कठोर तप करके ऋषभनाथ को कैवल्य ज्ञान यानि भूत, भविष्य और वर्तमान का संपूर्ण ज्ञान प्राप्त हुआ और वे जिनेन्द्र देव बन गए। पूर्णता प्राप्त करके उन्होंने अपना मौन व्रत तोड़ा और संपूर्ण आर्यखंड में लगभग 99 हजार वर्ष तक धर्म-विहार किया और लोगों को उनके कर्तव्य और जन्म-मृत्यु के बंधन से मुक्ति पाने के उपाय बताए।
भगवान ऋषभनाथ का निर्वाण कब हुआ था: भगवान ऋषभनाथ अपनी आयु के 14 दिन शेष रहने पर हिमालय पर्वत के कैलाश शिखर पर समाधिलीन हो गए। वहीं माघ कृष्ण चतुर्दशी के दिन उन्होंने मोक्ष/ निर्वाण प्राप्त किया। अत: जैन धर्मानुसार माघ कृष्ण चतुर्दशी पर उनका निर्वाणोत्सव मनाया जाता है तथा उन्हें निर्वाण लाडू चढ़ाया जाता है।
बता दें कि भगवान ऋषभदेव के निर्वाण दिवस पर जैन धर्म में मेरु त्रयोदशी व्रत किया जाता है, मान्यतानुसार यह व्रत करने से मोक्ष की प्राप्ति होती है।
भगवान आदिनाथ का अर्घ्य :
जल फलादि समस्त मिलायके, जजत हूं पद मंगल गायके।
भगत वत्सल दीनदयाल जी, करहु मोहि सुखी लखि।
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