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Written By Author राम यादव

फ्रांस में पेंशन-सुधार के विरोध में विद्रोह, मैक्रों का बढ़ा टेंशन

फ्रांस में पेंशन-सुधार के विरोध में विद्रोह, मैक्रों का बढ़ा टेंशन - France-Pension Protests
फ्रांस के राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों की नींद इस समय हराम है। वे अपने देश में पेंशन पर होने वाले भारी ख़र्च को कम करने के लिए सेवानिवृत्ति (रिटायरमेंट) आयु दो वर्ष बढ़ाना चाहते हैं। लेकिन, फ्रांस के श्रमिक संगठनों (ट्रेड यूनियनों) द्वारा देशव्यापी हड़तालों और प्रदर्शनों की झड़ी ने जनविद्रोह का रूप धारण कर लिया है। 
 
राष्ट्रपति मैक्रों की पेंशन सुधार योजना के विरोध में प्रदर्शन इस वर्ष 19 जनवरी को शुरू हुए थे। फ्रांसीसी गृह मंत्रालय की गणना के अनुसार, उस दिन राजधानी पेरिस में 80 हज़ार और पूरे देश में कुल मिलाकर 12 लाख लोग सड़कों पर उतर आए थे। तब से 25 मार्च तक कम से कम 20 देशव्यापी भारी प्रदर्शन हो चुके हैं। 457 प्रदर्शनकारी गिरफ्तार हुए और 441 पुलिसकर्मी घायल हुए थे। हर प्रदर्शन के दौरान तोड़फोड़ और आगज़नी के तांडव से ऐसा लगता था, मानो फ्रांस की जनता अपनी सरकार से नहीं, किसी अत्यंत घृणित विदेशी सरकार से जीवन-मरण की अंतिम लड़ाई लड़ रही है। 
 
अनगिनत कारें और दुकानें जला दी गई हैं। सफ़ाई कर्मचारियों की बार-बार हड़तालों से अकेले पेरिस की सड़कों पर हज़ारों टन कूड़ा-कचरा जामा हो जाता है। कई-कई दिन पड़े रहने से कूड़े की दुर्गंध असह्य हो जाती है। हड़तालों से रेल और परिवहन सहित सारी सेवाएं ठप पड़ जाती हैं। करोड़ों, शायद अरबों यूरो के बराबर तो अकेले इसी तरह नुकसान हो चुका है। विश्वास नहीं होता कि फ्रांस जैसे एक सभ्य और संपन्न देश के लोग इतने असभ्य भी हो सकते हैं। हड़तालें और प्रदर्शन यूरोप के अन्य देशों में भी होते हैं। पर, जितनी उग्रता, हिंसा और बर्बरता फ्रांस में देखने में आती रही है, उतनी और कहीं देखने में नहीं आती।
 
सबसे अधिक शर्म की बात : पूरे देश के लिए सबसे अधिक शर्म की बात तो यह हुई कि दंगाइयों के कोपभाजन राष्ट्रपति मैक्रों को, शुक्रवार 24 मार्च को ब्रिटेन के राजा चार्ल्स तृतीय को फ़ोन कर उनसे निवेदन करना पड़ा कि वे फ्रांस की अपनी यात्रा का कार्यक्रम स्थगित कर दें। ब्रिटेन के नए राजा अपनी रानी कमिला के साथ, रविवार 26 मार्च से बुधवार 29 मार्च तक फ्रांस की राजकीय यात्रा करने वाले थे। राष्ट्रपति मैक्रों उनकी अगवानी करते और उन्हें पेरिस की सबसे आलीशान सड़क सौंस-एलिज़े की भव्यता दिखाते हुए वर्साई के राजमहल में ले जाते। वहां महल के सबसे सुंदर हॉल में मेहमान और मेज़बान प्रीतिभोज का आनंद लेते। 
 
ब्रिटेन के शाही दंपति को पेरिस के बाद फ्रांस के शहर बोर्दो, और वहां से जर्मनी जाना था। जर्मनी की अपनी पहली राजकीय यात्रा में ब्रिटिश शाही दंपति बर्लिन और हैम्बर्ग जाते। फ्रांस की यात्रा तो वहां चल रहे दंगों और प्रदर्शनों की बलि चढ़ गई, पर कहा यही जा रहा है कि जर्मनी की यात्रा रद्द नहीं होगी। ब्रिटिश शाही दंपति की फ्रांस की यात्रा टल जाने पर वहां की रिपब्लिकन पार्टी के प्रमुख एरिक स्योती ने कहा, ''हमारा देश अपनी ये कैसी तस्वीर पेश कर रहा है कि एक देश के राजप्रमुख की सुरक्षा तक सुनिश्चित नहीं की जा सकती।''  दूसरी ओर वामपंथी नेता फ़्रोंस्वा रुफ़ां ने कटाक्ष किया, ''हमारे राष्ट्रपति महोदय राजा चार्ल्स तृतीय को तो टेलीफ़ोन कर सकते हैं, लेकिन श्रमिक संगठनों से बात नहीं करते।'' 
 
एक भी इंच पीछे हटने के मूड में नहीं : राष्ट्रपति मैक्रों और फ्रांसीसी श्रमिक संगठनों के बीच इस समय एक ऐसी टक्कर चल रही है, जिस में कोई भी पक्ष एक भी इंच पीछे हटने के मूड में नहीं है। फ्रांसीसी अर्थव्यवस्था के भविष्य को लेकर राष्ट्रपति मैक्रों इस नतीजे पर पहुंचे हैं कि वहां इस समय 62 साल का हो जाने पर रिटायर हो जाने और पेंशन पाने का जो नियम है, वह बहुत समय तक नहीं चल सकता।
 
यूरोप के अन्य देशों की तरह फ्रांस में भी लोगों की औसत आयु बढ़ रही है और समाज तेज़ी से बूढ़ा हो रहा है। इस कारण देश की जनसंख्या में पेंशनभोगियों का अनुपात बढ़ रहा है। उन्हें अपेक्षाकृत लंबे समय तक पेंशन देनी पड़ रही है। पेंशन प्रणाली भी इतनी उदार है कि पेंशनभोगियों की बढ़ती हुई संख्या के लिए आज की तरह आगे भी पेंशन देते रहना सरकार के लिए संभव नहीं रहेगा। सरकारी आंकड़ों के अनुसार, 2020 में फ्रांस में कुल 332 अरब यूरो (1यूरो=88.73 रूपए) पेंशन के तौर पर वितरित किए गए। यह भार देश के सकल घरेलू उत्पाद (GDP) के 14 प्रतिशत और समाज कल्याण पर समग्र व्यय के 41 प्रतिशत के बराबर है।
 
फ्रांस की पेंशन प्रणाली : फ्रांस की पेंशन प्रणाली कई विशेषाधिकारी लाभों के कारण काफ़ी जटिल भी है। कामों, यानी पेशों का वर्गीकरण किया गया है। कोई व्यक्ति अपने काम की किस्म के कारण जिस वर्ग में गिना जाता है, उसी के अनुसार वह एक ख़ास पेंशन बीमा कोष का सदस्य बनता है। इस तरह के कुल 42 पेंशन बीमा कोष हैं। कुछ विशेष बीमा कोषों के सदस्य 62 साल से पहले भी रिटायर हो सकते हैं। पेंशन बीमे के लिए बीमा-धारकों को अपने वेतन से जो अंशदान देना पड़ता है, सरकार ने फिलहाल उसे नहीं बढ़ाया है। निजी कंपनियों आदि में काम करने वाले सामान्य कर्मचारियों को पेंशन बीमे के लिए अपने सकल वेतन का क़रीब 10.5 प्रतिशत और उसकी नियोजक कंपनी को 13 प्रतिशत अंशदान देना पड़ता है।
 
पेरिस में बसें, ट्रामें, मेट्रो आदि चलने वाली सार्वजनिक परिवहन सेवा तथा सरकारी बिजली और गैस कंपनी के कर्मचारी 62 साल की आयु से पहले भी रिटायर हो सकते हैं। किंतु, सरकार अब इस सुविधा को समाप्त करना चाहती है। पेंशन बीमे के लिए वेतन से जो कुछ कटता है, सरकार उसके अलावा अपनी तरफ़ से भी कुछ पैसा देती है, जो कि स्वाभाविक है कि देश के करदाता का ही दिया पैसा होता है।
 
जनता दो साल अधिक काम करे : राष्ट्रपति माक्रों की सरकार ने सोचा है कि वह न तो पेंशन बीमे के लिए कर्मचारियों के वेतन से मिलने वाला अंशदान बढ़ाएगी और न ही करों में बढ़ोतरी करेगी; समय आ गया है कि फ्रांस की जनता अपनी पेंशन के लिए दो साल अधिक काम करे— यानी रिटायर होने की आयु 62 के बदले 64 साल हुआ करेगी। जो कोई अब 62 साल का हो जाएगा और चाहता है कि उसे पेंशन में बिना किसी कमी के रिटायर होने दिया जाए, उसे दिखाना होगा कि वह अपने पेंशन बीमे के लिए 42  साल तक अंशदान दे चुका है या नहीं। पेंशन पाने की नई आयु न केवल 64 साल होगी, किसी कटौती के बिना पूरी पेंशन पाने के लिए पेंशन बीमे का अंशदान भी भविष्य में 43 साल तक किया गया होना चाहिए। साथ ही न्यूनतम मासिक पेंशन को बढ़ाकर 1200 यूरो कर दिया जाएगा। 
 
इन नए नियमों के विरोध में केवल बड़ी आयु के लोग ही सड़कों पर नहीं उतर आए हैं, युवा वर्ग उनसे भी अधिक तमतमाया हुआ है। युवा वर्ग का तर्क है कि हम जब तक पेंशन पाने की आयु के होंगे, तब तक रिटायर होने की आयु-सीमा 68 या 70 साल हो चुकी होगी। हम इसे स्वीकार नहीं कर सकते।
 
यूरोप में रिटायर होने की आयु फ्रांस से अधिक है : सबसे अजीब बात यह है कि सेवानिवृत्ति की आयु 62 से 64 वर्ष कर देने का विरोध करने वाले फ्रांसीसी यह जानना-सुनना नहीं चाहते कि उनके पड़ोस के सभी देशों में ही नहीं, पूरे यूरोप के लगभग सभी देशों में पेंशन पाने की आयु फ्रांस की अपेक्षा कहीं अधिक है। सभी देश अपने समाज के तेज़ी से बूढ़े होने की समस्या झेल रहे हैं। 38 देशों के 'आर्थिक सहयोग एवं विकास संगठन' (OECD) का 2021 का एक अध्ययन दिखाता है कि यूरोपीय संघ के देशों में फ्रांस के सीमांत पड़ोसी जर्मनी के कर्मचारियों को सबसे लंबे समय तक काम करना पड़ता है। 
 
2007 से जर्मनी में रिटायर होने की आयु 67 वर्ष हो गई है। लेकिन 2015 से 2020 के बीच रिटायर होने वालों की आयु का औसत 65.7 वर्ष पाया गया। जर्मनी में जो लोग किसी भी कारण से 67 वर्ष की आयु से पहले रिटायर होते हैं, उन्हें इस आयु से पहले के हर महीने के लिए अपनी पेंशन में 0.3 प्रतिशत की कटौती स्वीकार करनी पड़ती है। यही नहीं, पूरे वर्ष की पेंशन कुल मिलाकर 11 हज़ार यूरो से अधिक होने पर कम से कम 14 प्रतिशत की दर से आयकर भी देना पड़ता है। इसीलिए जर्मनी में रिटायर होने वालों को अपने अंतिम वेतन की तुलना में औसतन केवल 53 प्रतिशत पेंशन मिलती है। पेंशन जितनी अधिक होगी, कर की दर उतनी ही बढ़ती जाएगी। 
 
रिटायर होने की औसत आयु : OECD ने पाया कि यूरोपीय देशों के संदर्भ में आइसलैंड (67 वर्ष), नॉर्वे (67 वर्ष), नीदरलैंड (66.3 वर्ष) और आयरलैंड (66 वर्ष) में लोग जर्मनों की अपेक्षा देर से रिटायर होते हैं। फ्रांस में 2020 में पुरुष औसतन 60.4 और महिलाएं 60.9 वर्ष की आयु में रिटायर होती पाई गईं। रिटायर होने के बाद मिलने वाली पेंशन, अंतिम वेतन की तुलना में सबसे अधिक नीदरलैंड, लक्सेमबुर्ग, ऑस्ट्रिया और डेनमार्क में मिलती है और क़रीब 80 प्रतिशत के बराबर होती है। फ्रांस में भी वेतन की तुलना में 74.4 प्रतिशत के बराबर पेंशन मिलना जर्मनी की अपेक्ष 20 प्रतिशत अधिक है, जबकि जर्मनी की अर्थव्यवस्था फ्रांस की अपेक्षा कहीं बड़ी और तगड़ी है। फ्रांस अपने GDP का 14 प्रतिशत और जर्मनी केवल 11 प्रतिशत पेंशेनें देने पर ख़र्च करता है।
 
पिछले कुछ समय से यूरोप के सभी देश रिटायर होने की आयु बढ़ा रहे हैं। जर्मनी की तरह इटली ने भी इसे बढ़ाकर 67 वर्ष कर दिया है। डेनमार्क ने भी 65 से बढ़ा कर 67 वर्ष कर दिया है। जर्मनी का दक्षिणी जर्मन-भाषी पड़ोसी देश ऑस्ट्रिया 65 से बढ़ा कर 67  वर्ष करने जा रहा है। जर्मनी का पूर्वी पड़ोसी पोलैंड 65 से बढ़ा कर 70 वर्ष कर देने की तैयारी कर रहा है। स्वयं जर्मनी में भी पिछले कुछ वर्षों से रिटायर होने की आयु एक बार फिर, 67 से बढ़ा कर 69 या 70 वर्ष कर देने के सुझाव दिए जा रहे हैं, क्योंकि जर्मनी में भी जनता की औसत आयु बढ़ने के साथ पेंशनभोगियों की संख्या बढ़ती जा रही है।
 
संसद में अविश्वास प्रस्ताव गिरा : फ्रांस में और फ्रांस के बाहर भी, जो लोग फ्रांस में रिटायर होने की आयु बढ़ाने के बाध्यकारी कारणों की जटिलता या तो जानते- समझते नहीं या बहुत युवा आयु के राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों को पसंद नहीं करते, उन पर लांछन लगाते हैं कि वे ज़ोर-ज़बर्दस्ती के साथ अपनी बात मनवाने पर उतारू थे। इसकी पुष्टि में 13 मार्च को संसद में अविश्वास प्रस्ताव पर हुए मतदान का उदाहरण दिया जाता है। यह प्रस्ताव मात्र 9 मतों की कमी के कारण पारित होने से बच गया। संसद के दूसरे सदन में मतदान नहीं कराया गया।
 
अविश्वास प्रस्ताव इतने कम मतों से पारित नहीं हो पाना निसंदेह राष्ट्रपति माक्रों के प्रति अविश्वास और उनकी अलोकप्रियता का ही सूचक है। तब भी, वह यदि पारित भी हो जाता, तो पेंशनों से जुड़े कठोर तथ्य और आंकड़े क्या बदल जाते? फ्रांस के भावी पेंशनभोगियों की पेशनें सुनिश्चित हो जातीं? ज़िम्मेदार क़िस्म के एक दूरदर्शी राजनेता में अलोकप्रिय, किंतु सही निर्णय लेने का भी साहस होना चाहिए। मैक्रों ने यही दुर्लभ साहस दिखाया है। इसकी परवाह नहीं की, कि वे अगली बार भी राष्ट्रपति-पद का चुनाव जीत पाएंगे या नहीं।
 
टेलीविज़न इंटरव्यू : एक टेलीविज़न इंटरव्यू में मैक्रों ने कहा कि यह सुधार लाना कोई मौज़-मस्ती या ऐयाशी नहीं,
देश की एक बहुत बड़ी ज़रूरत है। उन्होंने याद दिलाया कि 2017 में जब वे पहली बार चुनाव जीतकर राष्ट्रपति बने थे, तब फ्रांस में 1 करोड़ पेंशनभोगी थे। इस बीच 1 करोड़ 70 लाख पेंशनभोगी हैं। जल्द ही उनकी संख्या 2 करोड़ हो जाएगी- 'तो क्या हम सदा इन्हीं (पुराने) नियमों की लकीर पीटते रहेंगे? 
 
मैक्रों ने खेद व्यक्त किया कि वे देश की जनता को समझा नहीं पाए कि वे जो करना चाहते हैं, वह देश के लिए कितना अनिवार्य है। दूसरा विकल्प केवल यही हो सकता था कि या तो पेंशनों में कटौती की जाए, या फिर पहले से ही बहुत महगी श्रमशक्ति को और मंहगा कर बेरोज़गारी बढ़ने का ख़तरा मोल लिया जाए। विपक्ष के बारे में मैक्रों ने कहा कि उसके पास बजट-घाटा बढ़ाने और ऋण लेने के सिवाय दूसरा कोई उपाय नहीं है। दूसरी ओर, श्रमिक संगठनों ने इतना अड़ियल रुख अपना लिया कि सुलह-समझौते का कोई रास्ता ही नहीं बचा।
 
फ्रांसीसी होते हैं हड़तालों के रसिया : फ्रांस के बारे में प्रसिद्ध है कि यूरोप में वहां सबसे अधिक हड़तालें होती हैं। कब किस बात को लेकर सारी ट्रेनें थम जाएं, सड़कें प्रदर्शनकारियों से भर जाएं और जनजीवन अस्त-व्यस्त हो जाए, कोई नहीं जान सकता। वहां के सभी बड़े श्रमिक संगठनों से देश की सभी सरकारें हमेशा कांपती रही हैं। श्रमिक संगठनों को इसकी कोई परवाह नहीं होती कि उनकी हड़तालों और प्रदर्शनों से लोगों को कितनी असुविधा होती है। देश को कितना नुकसान पहुंचता है या देश के बाहर कितनी जगहंसाई होती है। मुख्य चीज़ है, ट्रेड यूनियन नेताओं का रोबदाब बना रहे। उनकी बुलाई हड़तालों और प्रदर्शनों ने तो इस बार मैक्रों के विरोधी घोर दक्षिण पंथियों और घोर वाम पंथियों को भी एकजुट कर दिया है।  
 
फ्रांस की जनता, श्रमिक संगठनों और राष्ट्रपति मैक्रों के राजनीतिक विरोधियों को भी, यूरोप के अन्य देशों के समान, अपने देश की जनसांख्यिकी की मांग और अंतरराष्ट्रीय आर्थिक प्रतिस्पर्धा जैसी वास्तविकताओं को समझना व स्वीकार करना होगा। मैक्रों का आंख मूंदकर विरोध करने और उपद्रवियों को तोड़फोड़ अथवा आगज़नी के लिए उकसाने से वे गंभीर समस्याएं हल नहीं होंगी, जो आज नहीं तो कल, कल नहीं तो परसों और अधिक विकराल रूप धारण कर सबके सामने खड़ी हो जाएंगी। 
 
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