संत सेनजी महाराज की वैशाख कृष्ण-12 (द्वादशी) को आती है। इस बार अंग्रेजी माह के अनुसार यह जयंती 8 मई 2021 को है। आओ जानते हैं संत सेनजी महाराज के बारे में संक्षिप्त परिचय।
1. भक्तमाल के सुप्रसिद्ध टीकाकार प्रियदास के अनुसार संत शिरोमणि सेनजी महाराज का जन्म विक्रम संवत 1557 में वैशाख कृष्ण-12 (द्वादशी), दिन रविवार को वृत योग तुला लग्न पूर्व भाद्रपक्ष को हुआ था।
2. इनके पिता का नाम श्रीचंद्र एवं माता का नाम सुशीला व कांता था। कहीं कहीं पिता का नाम चन्दन्यायी भी बताया जाता है। बचपन में इनका नाम नंदा रखा गया। इनका विवाह विजयनगर मध्यप्रदेश के राज वैद्य शिवैया की सुपुत्री गजरा देवी के साथ हुआ था। इनके पुत्र का नाम भद्रसेन था।
3. वह क्षेत्र जहां सेनजी महाराज रहते थे अब सेनपुरा के नाम से जाना जाता है। यह स्थान बघेलखंड के बांधवगढ़ के अंतर्गत आता है। बिलासपुर-कटनी रेल लाइन पर जिला उमरिया से 32 किलोमीटर की दूरी पर बांधवगढ़ स्थित है। तत्कालीन रीवा नरेश वीरसिंह जूदेव के राज्य काल में बांधवगढ़ का नाम पड़ा था। आजकल इसे रीवा के नाम से जाना जाता है।
4. सेनजी महाराज की योग्यता, शक्ति और भक्ति को देखकर बांधवगढ़ के शासक ने उन्हें अपनी सेवा में रखा।
5. सेनजी महाराज ने स्वामी रामानंदजी से दीक्षा प्राप्त की। दीक्षित होकर साधु-संतों की सेवा व सत्संग में प्रवचन के माध्यम से वे भक्ति ज्ञान, वैराग्य संत सेवा की शिक्षा का प्रचार प्रसार करते थे। सेन महाराज विष्णु के अनन्य उपासक थे।
6. संत सेनजी महाराज बचपन से ही विनम्र, दयालु और ईश्वर में दृढ़ विश्वास रखते थे। सेन महाराज ने गृहस्थ जीवन के साथ-साथ भक्ति के मार्ग पर चलकर भारतीय संस्कृति के अनुरूप जनमानस को शिक्षा और उपदेश के माध्यम से एकरूपता में पिरोया।
7. सेनजी महाराज प्रत्येक जीव में ईश्वर का दर्शन करते और सत्य, अहिंसा तथा प्रेम का संदेश जीवन पर्यंत देते रहे। सेन महाराज का व्यक्तित्व इतना प्रभावशाली हो गया था कि जनसमुदाय स्वतः ही उनकी ओर खिंचा चला आता था। वृद्धावस्था में सेन महाराज काशी चले गए और वहीं कुटिया बनाकर रहने लगे और लोगों को उपदेश देते रहे।
सेन कथा : सेनजी महाराज नाई थे और कहते हैं कि वे एक राजा के पास काम करते थे। उनका काम राजा वीरसिंह की मालिश करना, बाल और नाखून काटना था। उस दौरान भक्तों की एक मंडली थी। सेन महाराज उस मंडली में शामिल हो गए और भक्ति में इतने लीन हो गए कि एक बार राजा के पास जाना ही भूल गए। कहते हैं कि उनकी जगह स्वयं भगवान ही राजा के पास पहुंच गए। भगवान ने राजा की इस तरह से सेवा की कि राजा बहुत ही प्रसन्न हो गए और राजा की इस प्रसन्नता और इसके कारण की चर्चा नगर में फैल गई।
बाद में जब सेन महाराज को होश आया तो उन्हें पता चला कि अरे! मैं तो आज राजा के पास गया ही नहीं। आज तो बहुत देर हो गई। वे डरते हुए राजा के पास पहुंचे। सोचने लगे कि देर से आने पर राजा उन्हें डांटेंगे।
वे डरते हुए राजपथ पर बढ़ ही रहे थे कि एक साधारण सैनिक ने उन्हें रोक दिया और पूछा- क्या राजमहल में कुछ भूल आये हो?
सेना महाराज ने कहा, नहीं तो, अभी तो मैं राजमहल गया ही नहीं।
सैनिक ने कहा, आपको कुछ हो तो नहीं गया है, दिमाग तो सही है?
सेन महाराज ने कहा, भैया अब और मुझे बनाने का यत्न न करो। मैं तो अभी ही राजमहल जा रहा हूं।
सैनिक ने कहा, आप सचमुच भगवान के भक्त हो। भक्त ही इतने सीधे सादे होते हैं। इसका पता तो आज ही चला। क्या आपको नहीं पता कि आज राजा आपकी सेवा से इतने अधिक प्रसन्न हैं कि इसकी चर्चा सारे नगर में फैल रही है।
सेन महाराज यह सुनकर आश्चर्यचकीत रह गए और कुछ समझ नहीं पाए, लेकिन एक बात उनके समझ में आ गई की प्रभु को मेरी अनुपस्थिति में नाई का रूप धारण करना पड़ा। उन्होंने भगवान के चरण-कमल का ध्यान किया, मन-ही-मन प्रभु से क्षमा मांगी।
फिर भी वे राजमहल गए। उनके राजमहल में पहुंचते ही राजा वीरसिंह बड़े प्रेम और विनय तथा स्वागत-सत्कार से मिले। भक्त सेन ने बड़े संकोच से विलम्ब के लिए क्षमा मांगी और संतों के अचानक मिल जाने की बात कही। साथ ही यह भी उजागर किया कि मैं नहीं आया था। यह सुनकर राजा ने सेन के चरण पकड़ लिए। वीरसिंह ने कहा, 'राज परिवार जन्म-जन्म तक आपका और आपके वंशजों का आभार मानता रहेगा। भगवान ने आपकी ही प्रसन्नता के लिए मंगलमय दर्शन देकर हमारे असंख्य पाप-तापों का अन्त किया है।' यह सुनकर दोनों ने एक-दूसरे का जी भर आलिंगन किया।
उल्लेखनीय है कि भक्त सेन महाराज नित्य प्रात: काल स्नान, ध्यान और भगवान के स्मरण-पूजन और भजन के बाद ही राजसेवा के लिए घर से निकल पड़ते थे और दोपहर को लौट आते थे।