'शहीदों की चिताओं पर लगेंगे हर बरस मेले,
वतन पर मरने वालों का यही बाकी निशां होगा।
कभी वह दिन भी आएगा जब अपना राज देखेंगे,
जब अपनी ही जमीं होगी जब अपना ही आसमां होगा।।'
पं. जगदंबा प्रसाद मिश्र की इस कालजयी कविता के ये शब्द हमें उन दिनों में आजादी की महत्ता एवं उसे प्राप्त करने के लिए चुकाई जाने वाली कीमत का एहसास कराने के लिए काफी हैं। यह वह दौर था, जब देश का हर बच्चा, बूढ़ा और जवान देशप्रेम की अगन में जल रहे थे।
गोपालदास व्यास द्वारा सुभाष चन्द्र बोस के लिए लिखी गई कविता के कुछ अंश आगे प्रस्तुत हैं, जो उस समय देश के नौजवानों को उनके जीवन का लक्ष्य दिखाती थीं-
'वह खून कहो किस मतलब का
जिसमें उबाल का नाम नहीं
वह खून कहो किस मतलब का
आ सके जो देश के काम नहीं'
इस समय जब देश का हर वर्ग देश के प्रति अपना योगदान दे रहा था, तब हिन्दी सिनेमा भी पीछे नहीं था। 1940 में निर्देशक ज्ञान मुखर्जी की फिल्म 'बंधन' के गीत 'चल-चल रे नौजवान' ने आजादी के दीवानों में एक नया जोश भर दिया था।
याद कीजिए फिल्म 'जागृति' का गीत 'हम लाए हैं तूफान से कश्ती निकाल के, इस देश को रखना मेरे बच्चों संभाल के' हमारे बच्चों को उनकी जिम्मेदारी का एहसास कराता था।
ऐसे अनेक गीत हैं, जो देशप्रेम की भावना से ओत-प्रोत हैं। देश के बच्चों एवं युवाओं में इस भावना की अलख को जगाए रखने में देशभक्ति से भरे गीत महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। इस तथ्य को नकारा नहीं जा सकता।
कवि प्रदीप (रामचंद्र द्विवेदी) द्वारा लिखित गीत 'ऐ मेरे वतन के लोगों, जरा आंख में भर लो पानी, जो शहीद हुए हैं उनकी, जरा याद करो कुर्बानी' सुनने से आज भी आंखें नम हो जाती हैं।
आजादी के आंदोलन में उस समय की युवा पीढ़ी की भूमिका को भुलाया नहीं जा सकता। शहीद भगत सिंह, चन्द्रशेखर आजाद, अशफाक उल्लाह खान जैसे युवाओं ने अपनी जान तक न्योछावर कर दी थी देश के लिए। ये जांबाज सिपाही भी अपनी भावनाओं को गीतों में व्यक्त करते हुए कहते थे -
'सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है/ देखना है जोर कितना बाजू-ए-क़ातिल में है।'
अथवा
'मेरा रंग दे बसंती चोला'
लेकिन आज उसी युवा पीढ़ी को न जाने किसकी नजर लग गई। बेहद अफसोस होता है, जब दिल्ली हाई कोर्ट की जस्टिस प्रतिभा रानी एक मुकदमे के दौरान कहती हैं- 'छात्रों में इंफेक्शन फैल रहा है और इसे रोकने के लिए ऑपरेशन जरूरी है।' यह टिप्पणी आज के युवा की दिशा और दशा दोनों बताने के लिए काफी है।
शायद इसीलिए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने पूरे देश में 9 से 23 अगस्त तक 'आजादी-70 : याद करो कुर्बानी' नाम से स्वतंत्रता दिवस के उपलक्ष्य में 15 दिनों का उत्सव मनाने का फैसला लिया है ताकि देश के युवाओं में देशभक्ति की भावना जागृत हो सके व आने वाली पीढ़ी में मातृभूमि के प्रति लगाव पैदा कर सकें।
उन्होंने ऐलान किया है कि 'अब देश में नहीं होगा कोई आतंकी बुरहान पैदा, हम बनाएंगे देशभक्तों की नई फौज। बहुत सही सोच है और आज की आवश्यकता भी है, क्योंकि इतिहास गवाह है कि जिस देश के नागरिकों की अपने देश के प्रति प्रेम व सम्मान की भावना खत्म हो जाती है, उस दिन देश एक बार फिर गुलाम बन जाता है।
दरअसल, बात केवल युवाओं की ही नहीं है, हम सभी की भी है। आज हम सब देश की बात करते हैं लेकिन यह कभी नहीं सोचते कि देश है क्या? केवल कागज पर बना हुआ एक मानचित्र अथवा धरती का एक अंश?
जी नहीं, देश केवल भूगोल नहीं है। वह केवल सीमा रेखा के भीतर सिमटा जमीन का टुकड़ा नहीं है। वह तो भूमि के उस टुकड़े पर रहने वालों की कर्मभूमि है, जन्मभूमि है, उनकी पालनहार है, मां है, उनकी आत्मा है। देश बनता है वहां रहने वाले लोगों से, आप से, हम से, बल्कि हम सभी से। देश की आजादी के 70वें समारोह पर ये बातें और भी प्रासंगिक हो उठती हैं।
आज यह जानना आवश्यक है कि अमेरिका के राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन ने राष्ट्रपति बनने के बाद अपने प्रथम भाषण में कहा था- 'अमेरिकावासियों तुम यह मत सोचो कि अमेरिका तुम्हारे लिए क्या कर रहा है, अपितु तुम यह सोचो कि तुम अमेरिका के लिए क्या कर रहे हो?'
आज हम सबको भी अपने देश के प्रति इसी भावना के साथ आगे बढ़ना होगा।
चार्ल्स एफ. ब्राउन ने कहा था- 'हम सभी महात्मा गांधी नहीं बन सकते, लेकिन हम सभी देशभक्त तो बन ही सकते हैं।'
आज देश को जितना खतरा दूसरे देशों से है उससे अधिक खतरा देश के भीतर के असामाजिक तत्वों से है, जो देश को खोखला करने में लगे हैं।
आज स्वतंत्रता दिवस का मतलब ध्वजारोहण, 1 दिन की छुट्टी और टीवी तथा एफएम पर दिनभर चलने वाले देशभक्ति के गीत! थोड़ी और देशभक्ति दिखानी हो तो फेसबुक और दूसरे सोशल मीडिया में देशभक्ति वाली 2-4 पोस्ट डाल लो या अपनी प्रोफाइल पिक में भारत का झंडा-भर लगा लो!
सबसे ज्यादा देशभक्ति दिखाई देती है भारत-पाक क्रिकेट मैच के दौरान। अगर भारत जीत जाए तो पूरी रात पटाखे चलते हैं लेकिन यदि हार जाए तो क्रिकेटरों की शामत आ जाती है। सोशल मीडिया पर हर कोई देशभक्ति में डूबा हुआ दिखाई देता है। लेकिन जब देश के लिए कुछ करने की बात आती है तो हम ट्रैफिक सिग्नल्स जैसे एक छोटे से कानून का पालन भी नहीं करना चाहते, क्योंकि हमारा 1-1 मिनट बहुत कीमती है।
गाड़ी को पार्क करना है तो हम अपनी सुविधा से करेंगे कहीं भी, क्योंकि हमारे लिए कानून से ज्यादा जरूरी वही है। कचरा फेंकना होगा तो कहीं भी फेंक देंगे चलती कार, बस या ट्रेन कहीं से भी और कहां गिरा? हमें उससे मतलब नहीं है। बस, हमारे आसपास सफाई होनी चाहिए, देश भले ही गंदा हो जाए!
देश चाहे किसी भी विषय पर कोई भी कानून बना ले, हम कानून का ही सहारा लेकर और कुछ 'ले-देकर' बचते आए हैं और बचते रहेंगे, क्योंकि देशप्रेम अपनी जगह है, लेकिन हमारी सुविधाएं देश से ऊपर हैं। इस सोच को बदलना होगा। इकबाल का तराना-ए-हिन्द को जीवंत करना होगा...
'सारे जहां से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा,
हम बुलबुले हैं इसकी ये गुलसितां हमारा'
अपने हिन्दुस्तान को सारे जहां से अच्छा हमें मिलकर बनाना ही होगा, इसके गुलसितां को फूलों से सजाना ही होगा। देश हमें स्वयं से पहले रखना ही होगा।