कविता का दूसरा पाठ
कुमार अंबुज
पेंसिल के निशानों से आता है याद इसे पढ़ा जा चुका है पहले भीपहला पाठ लगभग विस्मृति में चला गयाऔर यह दूसरा पाठ विस्मित कर रहा हैइस अचरज में, इस हर्ष में पहले पाठ कीकुछ गंध, कुछ स्मृति, कुछ हलचल होगी हीभले ही वह अभी न आ रही हो यादयह बारिश की स्मृति की तरह हैजो हर बारिश में घुलकर नई हो जाती हैयह बादलों की स्मृति की तरह हैयह प्रेम की और दुख की स्मृति की तरह हैजो खुल नहीं पाते हैं अपने पहले पाठ मेंइस दूसरे पाठ में हमें दिखते हैं हमारे ही कुछ निशानतब यकीन करना होता है कि यहाँ से गुजरे हैं पहले भीइस राह की धूल में कुछ पहचानी सी गंध हैऔर आज किसी सुरंग में से किसी बीहड़ में सेकिसी यात्रा में से यकायक उतरकर यहाँ इस तरह व्यग्रता और थकान में बैठ गए हैंदेर रात गए यह कविता का दूसरा पाठ हैपहले पाठ की स्मृति विस्मृतिइसमें से हूक की तरह उठती है।साभार : पहल