हिन्दी कविता : हे सूरज
सुबह के सूरज से
आंख मिला कर की बातें
दोपहर के सूरज से
नहीं कर सकते बातें
सबने उसे सर चढ़ा रखा
अभिमानी इंसान
दिया भी दिखा नहीं सकते
क्योंकि सूरज ने
उनकी परछाई का कद
कर रखा है छोटा
हर रोज की तरह
होती विदाई सूरज की
सूर्यास्त होता, ये भ्रम
पाले हुए है वर्षो से
पृथ्वी के झूले में
ऋतु चक्र का आनंद लिए
घूमते जा रहे
सूर्योदय-सूर्यास्त की राह
मृगतृष्णा में
सूरज तो आज भी सूरज है
जो चला रहा ब्रह्माण्ड
सूरज से ही जग जीवित
पंचतत्व अधूरा
अर्थ-महत्व ग्रहण का
सब जानते तो हैं
तभी तो करते हैं
पावन नदियों में स्नान
हे सूरज
धरा के लिए अपनी तपिश को
जरा कम कर लेना
डर लगता है
कहीं तपिश से सूख ना जाए
पावन नदियां और धरा से जल