मंगलवार, 30 अप्रैल 2024
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Written By Author राकेशधर द्विवेदी

हिन्दी कविता : इन्कलाब

हिन्दी कविता : इन्कलाब - Poem
भगवान-भास्कर की प्रखर धूप के सामने
मुस्कराती हुई एक अट्टालिका खड़ी है
 
प्रणाम कर सभी भगवान सूर्यदेव को
छिप गए हैं सभी एयरकंडीशन की छांव में
 
उसके सामने खड़ी है एक महिला श्रमिक
अपने कार्य में आज हुई व्यस्त है
वस्त्र उसके हो चले अस्त-व्यस्त हैं
कर दिया भगवान भास्कर को निरस्त है
 
मुस्कुराती हुई, खिलखिलाती हुई
कहानी भूमि पर स्वेद-बिंदु टपकाती हुई
 
देर ही है चैलेंज वह भगवान के प्रताप को
आमंत्रण दे रही एक इन्कलाब को
 
इन्कलाब एक श्रमिक और आम आदमी के पक्ष में
इन्कलाब उस भगवान के खिलाफ
 
जो हो गया है आज मूक और बधिर
जो बंद हो गया है सोने-चांदी की दीवारों में
 
नहीं सुनाई पड़ती जिसे असहायों की आवाजें
भूखे और नंगों के लिए जिसके बंद हैं दरवाजे
 
टपकते हुए उसके स्वेद-कणों से निकल रही चिंगारी
अराजकता और असमानता की जो खत्म कर देगी बीमारी
 
बार-बार गाती रहती है वह यह गीत
हे ईश्वर! तुम्हें करना पड़ेगा अपने कानों को सक्रिय
 
सुनना पड़ेगा तुम्हें आम आदमी की आवाज
यह है प्रभु! तुमसे हम जनता की आवाज
 
तोड़कर निष्क्रियता तुम फिर से हो सक्रिय
भ्रष्टाचार और अराजकता को कर दो निष्क्रिय
 
इन्कलाब हो जन-मानस में, हर व्यक्ति में
चहुंओर गूंजे बस इन्कलाब-इन्कलाब
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