कविता दिवस पर एक कविता : लिख दूँ अधर की स्याही से
आओ
लिख दूँ अधर की स्याही से
तुम्हारी देह रूपी काग़ज़ पर
मूक कविताएँ
जिनके महकते लफ़्ज़
तुम्हारी सुंदरता को
द्विगुणित कर देंगे
माथे की स्याही अमिट होगी
अधरों पर फैली स्मित होगी
ग्रीवा पर कविता लिखते ही
बल खाने लगोगी
देखो ,देखो ना हर्फ़ का आकार बदलने लगा !!
सम्भालो मुझको ,
आँचल पर लिखते क़लम बहकने लगी
और यह क्या ?
नाभि तक जा कर अधर स्याही
स्याही न रही बन गई फिर से
मूक कविता ...
मूक भी कभी बोले हैं भला !!!