केवल प्रेम भरे सपने देखती हूँ मैं
एक लंबी कविता
मंजरी श्रीवास्तव याद है वाजश्रवा तुमने कहा था मैं यवनों से नफरत करने चला तो गालिब सामने आ गए।मैं अँगरेजों से नफरत करना चाहता था मगर हर बार शेक्सपीयर सामने आ जाते थे। सोचती हूँ तुम नफरत चाहते ही क्यों थे क्यों जन्मा यह शब्द? कुदरत की हसीन चाँदनी के शिकारे में नीले आसमान के नीचे थिरकते पानी पर बहते शिकारे में जैसे हर बार तलाश कर लेती हूँ प्रेम की हजारों सीपियाँ। मेरे जीवन का एक-एक शब्द है प्रेम ठीक वैसे ही जैसे मेरी कविता का एक-एक शब्द है प्रेम जैसे एक के बाद दूसरा शब्द जलालुद्दीन रूमी के शब्दों में कहूँ तो प्रेम की बाँसुरी बन जाती है मेरी कविता की हर पंक्ति अपनी दूसरी पंक्ति में प्रेम से चुम्बन देती है और शायद कविता का अंतिम शब्द लिखे जाने तकप्रेम शरीर और आत्मा के सारे चमत्कारों को तोड़कर नए प्रतीकों की चादर बिछाता हैनए अलंकारों के फूल उस चादर पर सजाता है और नई उपमाओं में किसी नवदम्पत्ति की तरह एक-दूसरे से लिपटकर सो जाता है। वाजश्रवा! मैं प्रेम के बिना जी ही नहीं सकती जैसे यह कहूँ कि मैं प्रेम के बिना कुछ भी नहीं कर सकती सुबह, सूर्य की पहली रूमानी किरणों के आँखों में पड़ने तक और मेरे चादर फेंकने से उठने तक केवल प्रेम की ही जलकुंभियाँ होती हैं मेरी मुट्ठी में। दफ्तर छोड़ने, घर को लौटने और शातिर सड़क की चहल-पहल में केवल प्रेम भरे सपने देखती हूँ मैं। मेरे लिए प्रेम का कोई आरंभ नहीं है। और ना ही कोई अंत और प्रेम से कम या प्रेम से ज्यादा भी कुछ नहीं मेरे लिए मेरे लिए जीवन भी प्रेम है और मृत्यु भी एक अनदेखी मौत जिसे मैं स्वंय भी नहीं देख सकूँगी वाजश्रवा! एक अनदेखी सिहरन की गुफाओं में उतर रही हूँ शून्य में तब भी केवल प्रेम है बेहद अँधकार में या शून्य में डूबते सन्नाटे में।