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Written By रवींद्र व्यास

गाँव का नाम थिएटर, हमार नाम हबीब !

हबीब तनवीर : एक किंवदंती

Article | गाँव का नाम थिएटर, हमार नाम हबीब !
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हबीब तनवीर जीते जी एक किंवदंती बन चुके थे। समकालीन भारतीय रंगमंच परिदृश्य में उनकी उपस्थिति एक ऐसे रंगकर्मी की रही है जिन्होंने नाटक को एक नया मुहावरा दिया। एक ऐसी रंगभाषा दी जो अपनी ताकत के लिए अपनी जड़ों से रस लेती है लेकिन आधुनिक संवेदना के साथ थरथराती है। इसीलिए उनके नाटक अपनी आत्मा का उजाला लोक से ग्रहण करते थे लेकिन उनका कथ्य-रूप इतना आधुनिक था कि वे अधिक से अधिक लोगों से तादात्म्य स्थापित कर लेता था।

यही कारण है कि छत्तीसगढ़ से लेकर पूरे हिंदुस्तान में और विदेशों में उन्हें जो सराहना मिली, वह अतुलनीय है। नया थिएटर के साथ उन्होंने जो गंभीर काम किए उसमें जबर्दस्त लोकप्रियता मिली और वे अपने उन प्रयोगों में कामयाब भी हुए। यही कारण है कि जब जर्मनी में इंटरनेशनल ड्रामा फेस्टिवल 1992 में उन्होंने अपना नाटक चरणदास चोर खेला तो उन्हें पहला पुरस्कार मिला था।

श्री तनवीर ने नया थिएटर और छत्तीसगढ़ के लोक कलाकारों के साथ प्रयोग करते हुए जो नई और रोचक रंगभाषा ईजाद की उसके पीछे सिर्फ प्रयोगधर्मिता ही नहीं थी बल्कि अपनी जड़ों को खोजते हुए नाटक का वह रूप हासिल करना था जो लोक से गहरा जुड़ा होकर भी अपने कथ्य और रूप में उतना ही आधुनिक भी हो।

यही कारण है कि उनके प्रयोग करने के पीछे सिर्फ नया और प्रयोग करने की मंशा ही नहीं थी बल्कि यह प्रयोगधर्मिता एक गहरी रचनात्मक बेचैनी का नतीजा थी। यह कितने आश्चर्य की बात है कि एक युवा रंगकर्मी इंग्लैंड में रायल अकादमी आफ आर्ट्स से ट्रेनिंग लेता है, यूरोप घूमकर नाटक देखता है लेकिन भारत वापस आकर वह अपने नाटकों के लिए किसी यूरोपीय नाट्य युक्तियों या रूप की नकल नहीं करता बल्कि वह नाच से लेकर पंडवानी जैसे फोक फार्म का बहुत ही कल्पनाशील इस्तेमाल करता हैं।
उन्होंने छत्तीसगढ़ के ही कलाकारों के साथ काम किया जो प्रोफेशनल अभिनेता नहीं थे और यही कारण है कि उनके नाटकों में इम्प्रोवाइजेश गजब का मिलता है। यह एक ऐसा लचीला रूप था जिसमें कलाकार को अपने को व्यक्त करने के लिए एक अनौपचारिक मौका मिलता था।

उनके कलाकार अभिनय करते थे, गाते थे और मौके पर नाचने भी लगते थे। कहने की जरूरत नहीं कि उनके नाटक लोकरंजक थे।

एक सितंबर 1923 को रायपुर में जन्में हबीब तनवीर ने नागपुर और अलीगढ़ में शिक्षा हासिल की। 1945 में वे मुंबई चले गए । आल इंडिया रेडियो से जुड़े। यहीं उन्होंने हिंदुस्तानी थिएटर में रंगकर्म किया और बच्चों के लिए नाटक किए लेकिन हबीब तनवीर जब इंडियन पीपुल्स थिएटर एसोसिएशन (इप्टा) और प्रगतिशील लेखक संघ (पीडब्ल्यूए ) से जुड़े तो जाहिर है, वे अपने समय, समाज और शोषित-वंचितों के प्रति प्रतिबद्ध हुए। इन दोनों संस्थाओं से जुड़ने से उन्हें विचारधारात्मक प्रखरता मिली।


यही कारण है कि सही सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक समझ विकसित हुई जिसका उन्होंने अपने नाटकों के चयन से लेकर उनके निर्माण तक में मदद ली। उन्होंने अपने लिए जो नाटक चुने वे सामाजिक स्तर पर बहुत ही मानीखेज थे लेकिन अपनी अचूक और संवेदनशील रंग दृष्टि की बदौलत उन्होंने इसे कलात्मक ऊंचाईयाँ भी दी। यानी कंटेंट के साथ ही उन्होंने लगातार प्रयोग किए और अपनी असंदिग्ध प्रतिबद्धता से लगातार और ठोस कोशिशें कीं और नाटकों को नया रूप दिया।

इप्टा औऱ प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़ने के साथ ही उनमें संगीत और कविता में गहरी दिलचस्पी थी। जोश से लेकर मीर, गालिब और फैज की शायरी हो या नजीर अकबराबादी की कविता या फिर समकालीन आधुनिक कवि। वे कविता से गहरे जुड़े रहे।

इसीलिए उन्होंने 1954 में आगरा बाजार नाटक किया। यह नजीर अकबराबादी के जीवन और समय पर आधारित था। इसमें एक बाजार के जरिये उन्होंने बहुत ही खूबी के साथ तत्कालीन सामाजिक , आर्थिक और राजनीतिक विद्रूपताओं को मुखर लेकिन तीखी अभिव्यक्ति दी। इसे बहुत सराहा गया।

1959 उन्होंने नया थिएटर की स्थापना की और लोक कलाकारों के साथ काम करने की प्रतिबद्धता जाहिर की। इसके बाद उन्होंने शूद्रक के नाटक मृच्छकटिकम को छतीसगढ़ में खेला। फिर गाँव नाम ससुराल, मोर नाम दामाद नाटक किया। चरणदास चोर नाटक तो उनका इतना हिट रहा कि इसके कई शोज हुए और इसे अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ख्याति मिली।

हबीब तनवीर इतने विलक्षण रंगकर्मी थे कि उन्होंने संस्कृत से लेकर यूरोप के कई नाटकों को छतीसगढ़ में खेला और और अपनी रंगदृष्टि तथा अद्बुत रंगकौशल से यह साबित किया कि किस तरह से क्लासिक और विदेशी नाटकों को ठेठ लोक कला से जोड़कर मनोरंजक, मोहक और मारक बनाया जा सकता है।

उन्होंने शेक्सपीयर से लेकर स्टीफन ज्विग की कृतियों पर नाटक खेले। शेक्सपीयर के मिडसमर्सनाइट ड्रीम को उन्होंने कामदेव का अपना, बसंत ऋतु का सपना नाम से खेला। इसके बाद शाजापुर की शांताबाई नाटक किया। हिरमा की अमर कहानी के साथ ही उन्होंने समाज के संवेदनशील मुद्दों पर नाटक खेले। बहादुर कलारिन और पोंगा पंडित नाटक को लेकर तो विवाद हुआ और कई बार इनके प्रदर्शन रोके गए क्योंकि यह पोंगापंथी और पाखंडियों पर तीखा प्रहार करता है।

भोपाल गैस त्रासदी पर भी उन्होंने नाटक किया-जहरीली हवा। उनका एक नाटक और मशहूर हुआ। जिस लाहौर नई देख्या वो जन्माई नाही। वस्तुतः कहानीकार असगर वजाहत ने पहले कहानी लिखी थी। जब हबीब तनवीर ने यह पढ़ी तो उनकी अचूक रंगदृष्टि ने उसमें छिपे नाटकीय तत्वों और रूप की तुरंत पहचान की और उन्हें सुझाव दिया कि इसे नाटक के रूप में लिखा जाना चाहिए।

असगर वजाहत ने इसे नाटक में बदला और वह हिट रहा। यह नाटक वस्तुतः सांप्रदायिकता पर चोट करता है और एक साझा संस्कृति की वकालत करता हुआ उदात्त मानवीय मूल्यों को खूबसूरती से अभिव्यक्त करता है। वे जर्मनी के महान नाटककार बर्तोल्त ब्रेख्त से खासे प्रभावित थे और उनकी नाट्य युक्तियों को अपने नाटकों में अधिक इनोवेटिव ढंग से इस्तेमाल कर अपने नाटकों को समृद्ध किया।

वे अभिनेता भी बेजोड़ थे। और उनकी आवाज भी गजब की थी। रांगेय राघव के उपन्यास कब तक पुकारूँ से लेकर फिल्म ये वो मंजिल तो नहीं में उन्होने सशक्त अभिनय भी किया। रिचर्ड एटनबरो की फिल्म गांधी में भी काम किया। मंगल पांडे में उन्होंने बहादुर शाह जफर की भूमिका निभाई और ब्लैक एन व्हाईट फिल्म में जोरदार भूमिका अदा की।

उन्होंने रायल एकेडमी से अभिनय का प्रशिक्षण लिया था और ब्रिस्टल ओल्ड स्कूल थिएटर से निर्देशन का। उनके नाटक पर फिल्म भी बनी। चरणदास चोर पर श्याम बेनेगल ने एक फिल्म भी बनाई थी। 2005 में उन पर एक वृत्तचित्र भी बनाया गया था जिसका शीर्षक है- गाँव का नाम थिएटर, हमार नाम हबीब।। उनकी पत्नी मोनिका मिश्रा उनकी रचनात्मक यात्रा में हमेशा साथ रहीं।

रंगकर्म के इलाके में उनके अमूल्य योगदान के लिए उन्हें संगीतनाटक अकादमी, संगीत नाटक अकादमी की फैलोशिप, पद्मश्री, पद्मभूषण से सम्मानित किया गया। वे राज्यसभा के सदस्य भी रहे। कहने की जरूरत नहीं कि भारतीय समकालीन रंगकर्म की बात उनके बिना हमेशा अधूरी रहेगी।

हबीब तनवीर के नाटक
आगरा बाजार (1954)
शतरंज के मोहरे (1954)
लाला शोहरत राय (1954)
मिट्टी की गाड़ी (1958)
गांव का नाम ससुराल हमार नाम दामाद (1973)
चरण दास चोर (1975)
हिरमा की अमर कहानी उत्तर रामचरित्र (1977)
बहादुर कलारिन (1978)
पोंगा पंडित, जिस लौहार नहीं देख्या (1990)
कामदेव का अपना बसंत ऋतु का सपना (1993)
जहरीली हवा (2002)
राज रक्त (2006)