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बेहूदगी का आरोप लगाकर जिस सआदत हसन मंटो पर कई मुकदमे दर्ज किए, आज उसे इफ़रात में क्‍यों पढ़ा जा रहा है?

लेकिन और दरअसल, मंटो मरा नहीं, वो जिंदा हैं आपके और हमारे जेहन में

Saadat Hasan Manto
यह इतिहास रहा है कि अब तक किसी भी कलाकार की पहचान उसके जीते जी नहीं हो सकी। हिंदी के लेखक मुंशी प्रेमचंद के साथ यही हुआ, लोकप्रिय शायर जान एलिया के साथ यही हुआ और उर्दू के मशहूर अफसानानिगार सआदत हसन मंटो के साथ भी यही हुआ।

अब जबकि सोशल मीडिया का दौर है तो इसमें लगातार अपने जमाने के इन गुजर चुके लेखक, शायर और साहित्‍यकारों के विचार और उनकी पंक्‍तियों को इफरात में शेयर किया जाता है। कोई मुद्दा हो, कोई बात या विषय हो, आम यूजर्स को इन लेखकों की पंक्‍तियां ही अपनी बात कहने का सबसे मुफीद माध्‍यम लगती है। कहना गलत नहीं होगा कि इन दिनों शायर जान एलिया ट्विटर, फेसबुक से लेकर इंस्‍टाग्राम तक जमकर नजर आते हैं। मीर तकी मीर हो या फिर अहमद फराज या चचा मिर्जा गालिब। इन दिनों किसी के दिल की बात या किसी गम और दुश्‍वारियों की बात इन शायरों की पंक्‍तियों के बगैर पूरी नहीं होती। इसका मतलब, दो चीजें हो सकती है। एक तो इस समय में ऐसा कुछ लिखा नहीं जा रहा है जो इस दौर में लोगों या पाठकों के लिए प्रासंगिक हो या फिर अपने समय से आगे जाकर लिखने वाले इन लेखकों को अब जाकर पहचाना जा रहा है।

आज 18 जनवरी को उर्दू के कहानीकार एक सआदत हसन मंटो की पुण्‍यतिथि है। आज जिस तरफ देखो मंटो की विचार सोशल मीडिया में नजर आ रहे हैं। क्‍या इसका मतलब यह माना जाए कि यह वो समय है, जिसमें संदर्भपरक लेखक का एक खालीपन है। या सआदत हसन मंटो को अब जाकर समझा जा रहा है, जिसकी उनके दिनों में जमकर आलोचना होती रही।

अपने वक्‍त की नग्‍न सचाईयों को अपनी कहानियों में लिखने वाले इस कथाकार के ऊपर बेहूदगी फैलाने का आरोप लगाकर कई मुकदमों का सामना करना पड़ा। आज भारत और पाकिस्‍तान में मंटो के ऊपर पीएचडी की जा रही है।

क्‍या इसीलिए तो सआदत हसन मंटो ने नहीं लिखा था – 
जमाने के जिस दौर से हम गुजर रहे हैं
अगर आप उससे वाकिफ नहीं है तो मेरे अफसाने पढिए

जबकि मंटो वो अफसानानिगार रहा है, जिसे लिखने के लिए ज्‍यादा वक्‍त मिला ही नहीं, 1955 में महज 43 बरस में उसने दुनिया को अलविदा कह दिया था।

दरअसल, सआदत हसन मंटो उन कहानीकारों में से था, जो हमारे जख्‍मों पर मरहम नहीं लगाता, बल्‍कि जख्‍मों को कुरेदता है। उनके शब्‍द शूल की तरह आत्‍मा में धंसते हैं, बशर्ते आपके पास आत्‍मा हो। मुझे लगता है कि यह एक ऐसा दौर है, जिसमें हथेली में नमक लेकर जख्‍मों की बातें सबसे ज्‍यादा होती हैं। उन्‍हें कुरेदने की बातें ज्‍यादा होती है, क्‍योंकि जख्‍मों को कुरेदना सबसे ज्‍यादा बिकता है। सआदत हसन मंटो ने अपनी कहानियों में वही जख्‍म लिखे जिससे हम अक्‍सर बचते रहते हैं।

कहते हैं कि शाहकार यानी कोई कला, कहानी या कविता वक्त के मोहताज नहीं होते। मंटो की कहानियां इसी बात को साबित कर रही है। जिन्‍हें लिखा किसी दूसरी सदी में गया था, लेकिन वे इस दौर में भी मोजूं होकर हमें न सिर्फ आइना दिखा रही हैं, बल्‍कि साहित्‍यिक तौर पर हमें समृद्ध भी कर रही हैं। बहरहाल, इस दूर तक देखने वाले साहित्यकार की गहराई का अंदाजा लगा पाना आज भी उतना आसान नहीं है।

इसमें कोई दो राय नहीं कि मंटो की कहानियां अपने अंत के साथ खत्‍म नहीं होती, वे देर तक, दूर तक और एक दौर के बाद दूसरे दौर तक हमारा पीछा करती रहती हैं। क्‍योंकि वो झकझोर कर हमे बार-बार सचाई से रूबरू कराती हैं।

सआदत हसन मंटों की कहानियों में कोई चमत्‍कारिक या किसी दूसरे ग्रह के बिंब नहीं हैं, वो अपने आसपास की जिंदगी से ही किरदारों और बिंबों को उठाते हैं। वे रिश्‍तों का कीचड़ लिखते हैं, तो कभी शर्मसार कर देने वाली इंसानियत दर्ज करते हैं। गलीज किरदारों से लेकर चरित्रहीन स्‍त्रियों तक के बीच उनका लेखन चलता रहता है। वे ठीक वैसा ही लिखते हैं, जैसा है, जैसा नजर आता है। किसी घटना में किसी चीज की मात्रा कम या ज्‍यादा नहीं होती है। जो बिल्‍कुल साफ नजर आता है, उसे उकेरना और जो बिल्‍कुल छुपा हुआ है, उसे उजागर करना ही मंटो का लेखन है।

समाज को सचाई कभी रास नहीं आई। यही वजह थी कि मंटों की कहानियों को अश्‍लील करार देकर उन्‍हें खूब बदनाम भी किया गया। लेकिन इसी बदनामी ने उन्‍हें मशहूर भी कर दिया। एक दिन वो आया जब वो शीर्ष लेखकों में आकर खड़े हो गए। हालांकि साहित्‍य समाज का एक हिस्‍सा उन्‍हें बड़ा लेखक नहीं मानता है। लेकिन इस असहमति से मंटो की हैसियत को फर्क नहीं पड़ता। उनकी कहानियों के 22 संग्रह प्रकाशित हुए हैं, इसके अलावा, उनके नाम पर एक उपन्यास, पांच नाटक और निबंधों के तीन संग्रह भी प्रकाशित हैं।

इस प्रसिद्धि के बावजूद अंग्रेजी शासन में मंटों पर 6 बार अश्लील कहानियां लिखने के आरोप के बाद मुकदमा चला। इसमें से तीन बार पाकिस्‍तान में उन पर मुकदमा किया गया। क्‍योंकि उनकी कहानियों ने रिश्तों से लेकर मजहबी कट्टरता को पूरी तरह से नंगा किया था। लेकिन सबसे बडा सवाल तो यह है कि 1955 में ही जा चुके सआदत हसन मंटो को साल 2023 में भी आखिर इतनी इफ़रात में क्‍यों पढ़ा जा रहा है।

11 मई 1912 में लुधियाना के समराला में जन्‍में सआदत हसन मंटो का 18 जनवरी 1955 में पाकिस्‍तान के लाहौर में निधन हो गया। लेकिन और दरअसल, मंटो मरा नहीं, जिंदा हैं आपके और हमारे जेहन में, बस हम उसे महसूस करने से इग्‍नौर कर रहे हैं।
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