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शहीद भगत सिंह नास्तिक नहीं थे...

शहीद भगत सिंह नास्तिक नहीं थे... - Shaheed Bhagat singh
शहीद भगत सिंह का परिवार उन्हें नास्तिक नहीं मानता। परिवार के सदस्यों का कहना है कि शहीद-ए-आजम अंधविश्वास और भगवान तथा किस्मत के नाम पर लोगों के अकर्मण्य बन जाने के विरोधी थे, लेकिन नास्तिक नहीं थे।
 
भगतसिंह द्वारा लाहौर सेंट्रल जेल में लिखी गई डायरी में उर्दू में लिखी कुछ पंक्तियों से भी इस बात का अहसास होता है कि भगतसिंह कई मौकों पर भगवान के अस्तित्व को बेशक नकारते रहे हों, लेकिन वे नास्तिक नहीं थे।
 
शहीद-ए-आजम के पौत्र (भतीजे बाबरसिंह संधू के पुत्र) यादविंदरसिंह संधू ने बातचीत में कहा कि उनका परिवार हमेशा से आर्य समाजी रहा है। उनके दादा भगतसिंह भगवान, किस्मत तथा कर्मों के फल के नाम पर लोगों के अकर्मण्य बन जाने के खिलाफ थे, लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि वह नास्तिक थे।
 
उन्होंने बताया कि भगतसिंह को जब फाँसी के लिए ले जाया जा रहा था तो लाहौर सेंट्रल जेल के वार्डन सरदार चतरसिंह ने उनसे अंतिम समय भगवान को याद करने को कहा। इस पर भगतसिंह ने जवाब दिया कि सारी जिंदगी दुखियों और गरीबों के कष्ट देखकर मैं भगवान को कोसता रहा, लेकिन अब यदि उन्हें याद करूँगा तो वह मुझे बुजदिल समझेंगे और कहेंगे कि यह मौत से डर गया।
 
यादविंदर ने कहा कि उनके इस कथन से भी यह पता चलता है कि वह नास्तिक नहीं थे इसलिए इतिहासकारों द्वारा उन्हें नास्तिक बताया जाना गलत है। भगतसिंह द्वारा लाहौर सेंट्रल जेल में लिखी गई 404 पृष्ठ की डायरी के कुछ पन्नों पर लिखी उर्दू पंक्तियों से भी यह अहसास होता है कि वे नास्तिक नहीं थे।
 
डायरी के पेज नंबर 124 पर भगतसिंह ने लिखा है- दिल दे तो इस मिजाज का परवरदिगार दे, जो गम की घड़ी को भी खुशी से गुलजार कर दे। इसी पेज पर उन्होंने यह भी लिखा है- छेड़ ना फरिश्ते तू जिक्र-ए-गम, क्यों याद दिलाते हो भूला हुआ अफसाना।
 
परिवार के पास रखी इस डायरी का अब प्रकाशन हो चुका है, ‍जिसे दिवंगत बाबरसिंह और इतिहासकार केसी यादव ने संपादित किया है। डायरी के एक तरफ भगतसिंह की मूल लिखावट है और दूसरी तरफ अँगरेजी में उसकी सरल व्याख्या।
इस व्याख्या में परवरदिगार और फरिश्ते जैसे शब्दों को क्रमश: भगवान और देवदूत के रूप में अनुवादित किया गया है।
इस मूल डायरी की प्रति और माइक्रो फिल्म दिल्ली स्थित राष्ट्रीय संग्रहालय में रखी है। डायरी के पेज नंबर 124 पर भगतसिंह ने 'स्प्रिच्युअल डेमोक्रेसी' शब्द का भी इस्तेमाल किया है।
 
भगतसिंह को गोली नहीं मारी गई थी : हाल ही में कुछ लेखकों द्वारा भगतसिंह की फाँसी से जुड़े घटनाक्रम के बारे में यह कहा गया कि लाहौर सेंट्रल जेल के अधिकारियों ने शहीद-ए-आजम के अंतिम साँस लेने से पहले ही उन्हें फंदे से उतार लिया था और फिर उन्हें गोली मार दी गई थी, लेकिन तत्कालीन जेल अधीक्षक द्वारा दर्ज टिप्पणी इस बात का खंडन करती है।
 
हाल ही में एक लेखक ने यह भी कहा था कि भगतसिंह, राजगुरु और सुखदेव को मृत्यु से पहले ही फाँसी के फंदे से उतार लिया गया था और फिर जेल अधिकारियों के आदेश पर उन्हें गोली मार दी गई थी।
 
एक लेखक ने यह भी कहा था कि भगतसिंह को जेल में फाँसी के फंदे के बाद सांडर्स की प्रेमिका ने गोली मार दी थी।
दूसरी ओर भगतसिंह के घनिष्ठ मित्र और लाहौर षड्यंत्र मामले (सांडर्स की हत्या) में उम्रकैद की सजा पाने वाले क्रांतिकारी शिव वर्मा द्वारा संपादित किताब विवाद खड़ा करने वाले लेखकों के दावों का खंडन करती है।
 
शिव वर्मा द्वारा संपादित किताब में लाहौर षड्यंत्र मामले में सात अक्टूबर 1930 को विशेष न्यायाधिकरण और 26 मार्च 1931 को लाहौर सेंट्रल जेल के अधीक्षक द्वारा जारी किए गए फाँसी से संबंधित वारंटों का जिक्र किया गया है, जिससे यह स्पष्ट होता है कि कांतिकारियों को फाँसी के फंदे से उतारकर गोली नहीं मारी गई थी।
 
जेल अधीक्षक द्वारा जारी वारंट में लिखा है- मैं यह प्रमाणित करता हूँ कि 23 मार्च 1931 को शाम सात बजे लाहौर सेंट्रल जेल में राजगुरु, सुखदेव और भगतसिंह को फाँसी दे दी गई। उनके शरीर फंदे से लगभग एक घंटे तक लटके रहे। उन्हें तब तक नीचे नहीं उतारा गया, जब तक कि डॉक्टर ने उन्हें मृत घोषित नहीं कर दिया।
 
कभी नहीं पहनी पीले रंग की पगड़ी : शहीद-ए-आजम से संबंधित घटनाओं पर शोध करने वाले जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के प्रोफेसर चमनलाल का कहना है कि जिस तरह से तस्वीरों में भगतसिंह को पीली पगड़ी पहने और हाथ में पिस्तौल लिए दिखाया जाता है, वह उनके व्यक्तित्व से कहीं मेल नहीं खाता।
 
चमन लाल ने कहा कि उन्होंने अब तक जितना भी शोध कार्य किया है, उसमें ऐसा कोई साक्ष्य नहीं मिला है, जिससे यह साबित हो सके कि भगतसिंह ने युवावस्था में कभी पीले रंग की पगड़ी पहनी। प्रोफेसर लाल ने कहा कि भगतसिंह की अब तक चार विभिन्न प्रकार की तस्वीरें सामने आई हैं। जिस तस्वीर में वे सिर पर टोपी पहने दिखाई देते हैं, वह उनकी अंतिम तस्वीर है।
 
उनके अनुसार भगतसिंह ने यह तस्वीर गोरी हुकूमत के पब्लिक सेफ्टी और ट्रेड डिस्प्यूट बिल के विरोध में केंद्रीय असेंबली (वर्तमान संसद भवन) में बम फेंकने से पहले खिंचवाई थी। यह फोटो दिल्ली के कश्मीरी गेट स्थित एक स्टूडियो में खींची गई थी।
 
इससे पहले भगतसिंह की एक तस्वीर नेशनल कॉलेज लाहौर की है, जिसमें वे 17 साल की उम्र में नाटक समूह के साथ कुर्ता-पायजामा और सफेद पगड़ी में दिखाई देते हैं। भगतसिंह की सबसे पहली तस्वीर उस समय की है, जब वे 11 साल के थे। यह तस्वीर संभवत: उनके लायलपुर स्थित घर में खींची गई।

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