लोकप्रिय रचनाएं समाज और इतिहास के भीतर से निकलती हैं तथा कविता और श्रोता समाज का एक परंपरागत संबंध सूत्र है, जो अब टूट गया है। आज जब हम नई सदी के द्वितीय दशक के अवसान का साक्षी बनने जा रहे हैं तो लाख कोशिशों के बावजूद हिन्दी मंचीय कविता का कोई साफ स्वरूप समझ में नहीं आता।
समकालीन मंचीय कविताएं चुटकुलों से निकली बेहूदी आवाजों में तब्दील होने लगी हैं। मंचीय कविताओं में अब उस पीढ़ी की उपस्थिति नगण्य-सी हो चुकी है, जो अन्य माध्यमों से आजीविका कमाते हुए साहित्य सेवा करते रहना चाहती थी।
मंचीय कविता पुरातन काल से सम्प्रेषण की एक महत्वपूर्ण विधा है। कालिदास, विक्रमादित्य की सभा में नवरत्न थे। उस काल में अन्य कवि भी राज्याश्रय में थे। यह परंपरा मध्ययुगीन राजदरबारों में भी बराबर चली आई। विद्यापति मिथिला के राजदरबार में थे। रीतिकाल में अनेक कवि राज्याश्रय पर जीवित थे। भक्तिकाल में काव्यपाठ का क्षेत्र मंदिर बने। अप्टछाप के कवियों से सभी परिचित हैं। इसी काल में कविता संतों की वाणी ने आम आदमी तक जीवन मूल्यों को सम्प्रेषित किया।
19वीं सदी का समस्या पूर्ति का दौर इस दौर में हिन्दीभाषियों ने सृजन के प्रति उत्साह दिखाया, राष्ट्रभाषा के लिए आंदोलन किया गया। इसी दौरान स्थान-स्थान पर काव्य गोष्ठियां होने लगीं। भारतीयों ने इन काव्य गोष्ठियों में न केवल अंग्रेजी सरकार का विरोध शुरू किया, वरन वे राष्ट्रीय चेतना का संवाहक बन गईं।
छायावाद काल में छायावादी कवियों तथा सुमित्रानंदन पंत, सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला', महादेवी वर्मा, मैथिलीशरण गुप्त, रामकुमार वर्मा, भगवतीचरण वर्मा, सुभद्राकुमारी चौहान, बालकृष्ण चौहान, बालकृष्ण शर्मा 'नवीन' जैसे कवि मंच पर आए और छा गए। बच्चन, नेपाली, अंचल, सुमन, नीरज आदि कवियों ने छायावाद का माधुर्य, प्रणय गीतों की मादकता, गले की मिठास आदि का ऐसा सम्मिश्रण किया कि श्रोता मंत्रमुग्ध हो जाते थे।
राष्ट्रीय कविताओं के इस दौर में वीर रस को भी बहुत सुना गया। श्याम नारायण पांडे की हल्दी घाटी, राजस्थानी कवि मेघराज मुकुल की सेनानी, दिनकर की ओजस्वी कविताएं आदि ने घोर गर्जना का दौर चलाया। एक समय था, जब मंच से श्याम नारायण पांडे- रण बीच चौकड़ी भर-भरकर, चेतक बन गया निराला था, राणा प्रताप के घोड़े से पड़ गया हवा को पाला था या फिर दिनकर अपनी पंक्तियां- रे रोक युधिष्ठिर को न यहां जाने दे उसको स्वर्ग धीर, पर फिरा हमें गांडीव गदा लौटा दे अर्जुन भीम वीर या फिर बच्चनजी- बैर बढ़ाते मंदिर-मस्जिद, मेल कराती मधुशाला का वाचन करते थे तो श्रोताओं के रोंगटे खड़े हो जाते थे। सवाल है कि आज इन जैसी कविता क्यों नहीं लिखी जा रही है?
आज की मंचीय कविताएं गैरबराबरी, अन्याय, शोषण, क्रूरता आदि के विरुद्ध उनके निरंतर संघर्ष की शाब्दिक अभिव्यक्ति क्यों नहीं बन पा रही हैं। आज की कविताएं अपने बुनियादी सरोकारों और संवेदनाओं पर अब भी कायम हैं। आज कविता पहले की तुलना में अधिक गंभीर और विवेकवान हो गई हैं।
ये कविताएं जीवन के मूल और सहज रूपों के विरूपीकरण की असलियत को कई तरह से हमारे मन-मस्तिष्क में खोलती चलती हैं लेकिन मंच पर ये प्रस्तुत नहीं हो पाती हैं। इसका मुख्य कारण यह कि हिन्दी समाज अपने आत्मान्वेषण और आत्मसाक्षात्कार से बचने की प्रवृत्ति वाला समाज हो गया है और अपनी कलाओं, साहित्य तथा रचनाकारों के साथ उसका कोई गहरा, अंतरंग और सृजनात्मक रिश्ता नहीं बचा है।
ऐसे में यह अस्वाभाविक नहीं कि अपनी प्रक्रिया में ही सामाजिक चरित्र का होने के कारण मंचीय कविता उस समाज में अपनी कोई विशिष्ट पहचान न बना पाए जिसकी सांस्कृतिक एवं संवेदनात्मक प्रक्रियाएं ही कुंठित हो गई हों। आज की स्थिति भिन्न है। हास्य-व्यंग्य की सतही रचनाओं के कारण कवि सम्मेलनों की गिरावट हुई है।
प्रसंग के अनुसार कविताओं की रचना न कर पाना और प्रस्तुति के सफल सोपानों तक अपनी कविता को न पहुंचा पाना आज के मंचीय कवि की सबसे बड़ी कमजोरी है। उन्हें प्रसंगानुकूल और उचित शब्दों का प्रयोग करना नहीं आता, जो कि एक कवि के लिए बेहद जरूरी चीज है। एक अच्छे कवि में जो काव्य-विवेक होना चाहिए वह आज के मंचीय कवियों में नहीं है। उनके लोकप्रिय होने की इच्छा ने उनके काव्य-विवेक को मार दिया है।
मुझे शिकायत सिर्फ इस बात से है कि आज का कवि, सम्मेलनों में भीड़ तो जुटा रहा है लेकिन कवि सम्मेलनों को कविता से दूर ले जा रहे हैं। वह नाटकीय प्रस्तुति करके कविता के भांडपन की ओर ले जा रहा है। मंच पर मौलिकता का अभाव दिख रहा है। श्रोताओं को हंसाने के लिए मंचीय कवि उसी परिहास को हर कवि सम्मेलन में बार-बार जन्म दे देते हैं। कुछ परिहास तो पहले से ही अन्य कवियों द्वारा रचे हुए होते हैं, उन्हें सिर्फ दोहराना भर होता है। कविता को तो कवि से जोड़ा जा सकता है लेकिन इन परिहासों को किससे जोड़ा जाए? एक ही परिहास पर बार-बार हंसना मुश्किल होता है।
मंचीय कविता के गिरते स्तर से आहत हिन्दी गेय कविता के प्रमुख स्तंभ गोपालदास नीरज का कहना है कि मंचीय गेय कविता का स्थान चुटकुलों ने ले लिया है और गीत के नाम पर व्यंग्य प्रस्तुत किए जा रहे हैं। हरिवंशराय बच्चन की परंपरा के कवि गोपालदास नीरज के अनुसार मंच पर गीतों को पढ़ने वालों का स्तर बद से बदतर होता जा रहा है। मंच पर गीतों के अच्छे प्रस्तोता पहले भी कम ही हुआ करते थे, लेकिन आजकल तो कविता का मंच निम्न स्तर के स्थानीय कवियों और मसखरों का जमावड़ा हो गया है। नतीजतन, अच्छे कवियों को सुनने के लिए श्रोताओं को लंबा इंतजार करना पड़ता है। इसके लिए हम सिर्फ कवियों को ही दोषी नहीं मान सकते बल्कि श्रोताओं को भी इसके लिए दोषी मानना चाहिए, जो व्यंग्य के नाम पर मंच पर अपनी जगह बना चुके फूहड़ हास्य और चुटकुलेनुमा हास्य को प्रोत्साहित करते हैं।
आज की जटिल परिस्थितियां और आज की विसंगतियों पर नजर रखती हुईं कविताएं मंच पर स्थान क्यों नहीं पा रही हैं? नागरिक के मन की चिंताओं, अभिव्यक्तियों को सहजता से अंकित करती कविताएं मंच प्रस्तुति में कम ही देखने को मिलती हैं। भाषायी गुंजन में सधी शाब्दिक आकृतियां, आवृत्तियां मंच पर क्यों नहीं झलकती-तैरती हैं, जो लंबे समय से भारतीय मानस के सचेत संवेदन में उमगती-उभरती रही हैं।
क्या आज का मंचीय कवि नए प्रतीकों को तरलता से बुन सकने में भी सक्षम नहीं हैं? क्या उसका आत्मिक संस्कार अपनी संपन्नता में, उसकी काव्य-अभिव्यक्ति में लगातार नहीं धड़कता है? कविता की गूंज और गूंथ में मांसलता और शुचिता एकसाथ झिलमिलाती क्यों नहीं दिखती? ये यक्षप्रश्न आज के मंचीय रचनाकारों के सामने हैं जिनके उत्तर उन्हें ढूंढने ही होंगे।
मंचीय कविता जीवन से जुड़े, साथ ही श्रोताओं को रस आनंदित करते हुए वैचारिक धरातल पर ही संदेश का सम्प्रेषण कर सके, इस हेतु सार्थक प्रयास करने होंगे, मंच को व्यावसायिकता के क्षेत्र से बाहर निकालना होगा तभी मंचीय कविता के उद्देश्य सार्थक होंगे।