शुक्रवार, 22 नवंबर 2024
  • Webdunia Deals
  1. लाइफ स्‍टाइल
  2. साहित्य
  3. पुस्तक-समीक्षा
  4. thela book, satire book of mahendra sanghi, book review
Written By
Last Updated : मंगलवार, 4 जनवरी 2022 (16:49 IST)

‘ठेला’: महेन्द्र कुमार सांघी (दद्दू) का काव्यात्मक मेला

‘ठेला’: महेन्द्र कुमार सांघी (दद्दू) का काव्यात्मक मेला - thela book, satire book of mahendra sanghi, book review
- डॉ.पुरुषोत्तम दुबे
प्रतिकूल समय, अपना- अपना सलीब ढोते लोग, हर तरफ भौतिक संकट से लदा स्याह वातावरण, चारों ओर से उदास परिदृश्यों के अवांछित आक्रमण, आखिर मनुष्य जाए कहां?

शरीर में इस क़दर जड़ता बढ़ चुकी है कि गुदगुदी भी असरदार सिद्ध नहीं हो पा रही है। ऐसे विपरीत कंटकाकीर्ण हालातों में तसल्लियां, रंगीनियां औऱ फुलझड़ियों का आस्वाद चटाने हास्य- व्यंग्य के कवि महेन्द्र कुमार सांघी उर्फ़ दद्दू हम सबके बीच लेकर आएं हैं अपना ताजातरीन हास्य व्यंग्य काव्य संग्रह 'ठेला।' जिसे पढ़ने के लिए ज़रूरी नहीं आपका लाइसेन्सधारी होना?

'ठेला' संग्रह अपनों के बीच ही में बांटे जाने वाली अंधे की रेवड़ी नहीं बल्कि संवेदना के एवज में जो हारे-थके जीवन में थोड़ा आनन्द, थोड़ी राहत औऱ थोडा विश्वास जुटाना चाहता है, ‘ठेला' उन सब कारकों को भरकर आया है, जिस पर से आप अपनी वांछित खेप उतार सकते हैं।

'ठेला' काव्य संग्रह में लदी- बसी सामग्री का ज़ायका कुछ इस प्रकार मिलता है—  कवि दद्दू ने ठेले का मानवीकरण राजनीतिज्ञों के चरित्र से किया है-

'ठेला हमारे राजनीतिज्ञों के चरित्र से भी मेल खाता है। आज की राजनीति में हर व्यक्ति एक दूसरे को ठेलता नज़र आता है'

कवि को काव्य रचने का संवेदना भाव उनकी मां से मिले आशीष का परिणाम है। 'मेरी मां बहुत निराली थी' शीर्षक कविता में कवि ने मां से मिली सृजनात्मक शक्ति का वरदान दुहराया है--
'जब तक मां थी,
तब तक निरन्तर मिलते रहे आशीर्वाद
अब ऊपर से होते हैं डाऊनलोड'

प्रेम प्यार के बंधन में जब भंवर सारी रात कमल की पंखुड़ियों में  स्वेच्छा से क़ैदी बना रहता है तो प्रेमी पुरुष भला ऐसी असीरी को कैसे नहीं स्वीकार करेगा? इस स्वैच्छिक बंधन को रेखांकित करते हुए कवि लिखता है—

'फिर भी उनके नयनों में
न जाने, क्या है बात?
प्रेम के आयसीयू में
रहना गंवारा हो गया।'

संकलन में 'अंदाज़े बयां' शीर्षक से दो कविता लिखी मिलती हैं। पहली में व्यक्ति पर चढ़े मुखौटे पर उवाच है–
'भगवान जाने वो कौन से
डिटरजेंट से नहाते हैं।
रोज़ कालिख पूतने पर भी
उजले ही नज़र आते हैं'

कवि प्रजातंत्र की नई इबारत गढ़ता है। वादों और आश्वासनों के बूते प्रजातंत्र चल रहा है--
'प्रजातंत्र में रह रहा हूं
वादे खाकर ज़िन्दा हूं'

कवि मन प्रेयसी से मुलाक़ात में प्रतीक्षा का रास्ता बुहारे हुए बैठा है -
'मेरे प्यार की सड़क तैयार है
बस तेरे लौटने का इंतज़ार है'

महेन्द्र कुमार सांघी की कविताओं में वैयक्तिक, पारिवारिक, सामाजिक सभी तरह की भावधाराएं हिचकोले भरती नज़र आती हैं। उनके शब्दबाण अचूक हैं। वो आंखें बंद कर बाणों को नहीं चलाकर दृष्टिसम्पन्नता के साथ व्यवस्थाओं पर निशाना साधते हैं।

कवि की भाषा सरल और अर्थगम्य है। कवि की प्रत्युत्पन्नमति की पूर्ण संगति उनकी कविताओं में सर्वथा दृश्यमान हैं। कवि का काव्य संग्रह 'ठेला' अदब की दुनिया में करतलध्वनि से स्वीकार किया जायेगा।

ये भी पढ़ें
विंटर स्पेशल: लाजवाब मेथी-टमाटर सलाद विथ Peanuts