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Written By WD

ग़ालिब का ख़त-16

ग़ालिब का ख़त-16 -
भाई,

मुझमें-तुममें नामानिगारी काहे को है, मकालमा है। आज सुबह को एक ख़त भेज चुका हूँ, अब इस वक्त तुम्हारा ख़त और आया। सुनो, साहिब, लफ्ज मुबालक 'मीम, हा, मीम, दाल' इसके हर हरफ़ पर मेरी जान निसार है। मगर चूँकि यहाँ से विलायत तक हुक्काम के हाँ से यह लफ्ज, यानी 'मुहम्मद असदुल्ला खाँ' नहीं लिखा जाता, मैंने भी मौकूफ कर दिया है।

Aziz AnsariWD
रहा 'मिर्जा' व 'मौलाना' व 'नवाब', इसमें तुमको और भाई को इख्तियार है, जो चाहो सो लिखो। भाई को कहना, उनके खत का जवाब सुबह को रवाना कर चुका हूँ। मिर्जा तफ्ता, अब तुम तज़ईन-ए-जिल्दहा-ए-किताब के बाब में बरादरज़ादा सआ़दतमंद क तकलीफ़ न दो। मौलाना मेहर को इख्तियार है, जो चाहें सो करें।

ख़त तमाम करके ख्याल में आया कि वह जो मिर्जा साहिब से मुझको मतलूब है, तुम पर भी जाहिर करूँ। साहिब, वहाँ एक अख़बार मोसूम ब 'आफ़ताब-ए-आलमताब' ‍निकलता है। उसके महतमिम ने इल्तजा़म किया है कि एक सफ्हा या डेढ़ सफ्‍हा बादशाह-ए-दिल्ली के हालात का लिखता है, नहीं मालूम, आगा़ज़ किस महीने से है।

  सो हकीम अहसन उल्ला खाँ यह चाहते हैं कि साबिक़ के जो औराक हैं, जब से वह, वे जो छापेख़ाने में मसौदे रखते हैं, उसकी नक्ल किसी कातिब से लिखवाकर यहाँ भेजी जाए।      
सो हकीम अहसन उल्ला खाँ यह चाहते हैं कि साबिक़ के जो औराक हैं, जब से वह, वे जो छापेख़ाने में मसौदे रखते हैं, उसकी नक्ल किसी कातिब से लिखवाकर यहाँ भेजी जाए। उजरत जो लिखी आएगी, वह भेजी जाएगी, और इबतदाए (सितंबर) 1885 से उनका नाम ख़रीदारों में लिखा जाए।

दो हफ्ते के दो लंबर उनको एक लिफ़ाफ़े में भेज दिए जाएँ और फिर हर महीने, हफ्ता दर हफ्ता उनको लिफ़ाफ़ा अख़बार का पहुँचा करे। यह मरातब जनाब मिर्जा हातिम अली साहिब को लिख चुका हूँ और अब तक आसार-ए-क़बूल ज़ाहिर नहीं हुए। न लिफ़ाफ़े हक़ीम साहब के पास पहुँचे, न उन सफहात की नक्ल मेरे पास आई।

आपको इसमें सई ज़रूर है और हाँ साहिब, 'आफ़ताब-ए-आलमताब' का मतबा तो 'कश्मीरी बाज़ार' में है, मगर आप मुझको लिखें कि 'मुफ़ीद-ए-ख़लायक़' का मतबा कहाँ है। अजब है कि इन साहिब-ए-शफ़ीक़ ने मेरी तहरीरात का जवाब नहीं लिखा। फ़रमाइश हकीम अहसन उल्ला खाँ साहिब की बहुत अहम है। इंदुलमुलाक़ात मेरा सलाम कहकर उसका जवाब, बल्कि वह अख़बार उनसे भिजवाओ।

17 सितंबर 1858 ई.