यूँ तो हर साल गणेशोत्सव के चार-पाँच दिन पहले से ही गणपति बप्पा मोरया की गूँज सुनाई देने लगती है। गणेश भक्त घर-घर जाकर चंदे के रूप में गणेशोत्सव के लिए सहयोग और समर्थन माँगते हैं। इस बार तस्वीर कुछ अलग दिख रही थी। इस वर्ष विघ्नहर्ता के उत्सव के ठीक पहले ही माहौल में राम-नाम की उठी गूँज विघ्न डाल रही थी। रामभक्त भी चौराहों पर खड़े होकर अपना समर्थन जुटाने का भ्रम पाले खड़े थे। हर चौराहे पर बस भगवा और चक्काजाम की स्थिति थी।
राम नाम की राजनीति पर एक पूर्व सत्ताधारी पार्टी पहले ही एक बार गच्चा खा चुकी है। इससे सीख लेते हुए यदि आज की सरकार अपने हलफ़नामे से राम-नाम को नकारने के अंश वापस न लेती तो संभव था कि राम के ये कट्टर और क्रूर भक्त चार दिनों तक इसी बंद और जाम से अपना जयघोष सुनाते फिरते। ऐसे में गणेश चतुर्थी के पर्व पर इसका साया साफ़ तौर पर छाया रहता। क्या होता यदि गणेश जी को भी अपने उत्सव में धरतीवासियों के बीच आने के लिए श्रीराम के इन भक्तों से आज्ञा लेनी पड़ती। मन की शक्ति कहें या इसकी कमज़ोरी, लेकिन कल्पनाएँ तो होती ही अजीब हैं। अब जाम और बंद की स्थिति में भक्त तो घरों में बैठ गए पर गणेशजी क्यों झुक जाते कथित रामभक्तों के आगे वे तो निकल चले रास्ते पर अपने भक्तों तक पहुँचने के लिए।
यही चक्काजाम गणेश चतुर्थी को भी हुआ। देशव्यापी रामभक्तों के आगे गली-मोहल्ले के चंद गणेशभक्त लाचार हो गए। वे सभी अपनी बुक की गई गणेश प्रतिमा को लाने का साहस भी नहीं जुटा पाए। मुर्तिकारों को भी ये डर था कि कहीं उनके हाथों गणेश प्रतिमा में राम का रूप न उभर आए, नहीं तो बनी बनाई मुर्तियाँ बेकार हो जाएँगी। मुर्ति वाले के यहाँ विराजे गणेश जी ने पहले तो कुछ प्रतीक्षा की फिर विचारा कि, ''चलो ठीक है, इस बार भक्त नहीं आ सके तो क्या हुआ? हम स्वयं ही भ्रमण करते हु्ए अपने पाण्डाल में पहुँच जाएँगे। इसी बहाने पाण्डाल के अलावा शहर के भी दर्शन कर लूँगा।'' उन्होंने अपनी इस अभिलाषा से मूषक महाराज को भी अवगत करा दिया। विनायक मूषक पर सवार तो थे ही, बस दोनों निकल पड़े।
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श्री गणेश शहर में निकलते ही इधर-उधर देखते हुए पृथ्वी की स्थिति भाँपने लगे। उन्हें कुछ पुरातन जर्जर इमारतें दिखाई दीं, और साथ ही बड़े-बड़े, सजे-सँवरे भवन और मॉल भी तने खड़े थे। हिमालय की होड़ में बने इन भवनों और मॉल्स के ऊपर जैसे ही गणेश जी की दृष्टि पड़ी उन्हें कुछ पोस्टरों व बैनरों के दर्शन हो गए, पोस्टर में अधोवस्त्र में श्रृंगारित सुंदर युवतियाँ अनेक उत्पादों का विज्ञापन कर रही थीं। सुंदरता और काम ऐसा कि देवलोक की अप्सराएँ भी हीनभावना से ग्रसित हो जाएँ। फिर गणेश जी क्या इधर देखते क्या उधर, वे आगे बढ़ गए।
जैसे ही गणपति जी चौराहे पर पहुँचे वहाँ राम नाम के चक्काजाम में नायक बने छुटभैये नेताओं ने उन्हें घेर लिया। उनमें से एक ने उन्हें पहचान लिया, शायद इसलिए अपने लहज़े में सुधार और नरमी लाते हुए कहने लगा, ''भगवन् कहाँ से आ रहे हो, कहाँ जा रहे हो? क्या आपको पता नहीं अभी श्रीराम जी के लिए चक्काजाम हो रहा है। आप भी हमारा साथ दीजिए।'' इतने में एक और छोटु आया और उसने कहा, ''अरे दादा, ये तो पिंटु नेता के मोहल्ले के गणेश जी हैं। इन्हें जाने दो। अपने को भी तो शाम को वहीं जाना है। छुटभैये नेताजी ने रास्ता छोड़ा और बुड़बुड़ाने लगे, ''क्या है यार! इनको पता नहीं कि अभी राम-नाम का सीजन चल रहा है!!! ये थोड़े दिन बाद आते तो अपना आगे का काम भी सर जाता।'' श्री गणेश आगे बढ़ चुके थे।
इस घटना से तो मूषक महाराज भी उद्वेलित हो गए। वे भड़क कर बोले, ''श्री गणेश आपने तो कहा था कि भारतभूमि पर असीम विकास हो रहा है। मानव तीव्र गति से विकास कर रहा है। अब भी उसे अपनी धर्म-संस्कृति से प्रेम है। वह अब भी दूसरों से सद्भभाव रखता है और सहायता करता है। किंतु ये क्या है??? सड़के पत्थरों से पटी पड़ी हैं। गाड़ियों की होली जलाई जा रही है। पीने को जल नहीं तो ये आग कैसे बुझाई जाए? इन ऊँची इमारतों के बीच विश्राम के लिए एक छायादार वृक्ष तक नहीं है। नंदी परिवार की गौ माताएँ सड़कों पर पसरी पड़ी हैं। सेवा का काम मेवा मिलने पर ही होता है। एक के नाम पर दूसरे को काटा जा रहा है, सताया जा रहा है।.......................................................''
देशव्यापी रामभक्तों के आगे गली-मोहल्ले के चंद गणेशभक्त लाचार हो गए। वे सभी अपनी बुक की गई गणेश प्रतिमा को लाने का साहस भी नहीं जुटा पाए। मुर्तिकारों को भी ये डर था कि कहीं उनके हाथों गणेश प्रतिमा में राम का रूप
मूषक महाराज को जस-तस शांत कर गणपति जी अपने पाण्डाल की ओर चल पड़े। पाण्डाल में बैठे कार्यकर्ता वहीं लगी चिलम से ''हमू काका बाबा ना पोरया, आशिक बनायाऽऽऽऽऽ, तन्हाइयाँ-तन्हाइयाँऽऽ'' सुन कर टाइमपास कर रहे थे। गणेश जी की मूर्ति को आता देखते ही मोहल्ले के चिंटु-मिंटू ढोल ले आए और दनादन कूटने लगे। मूर्ति श्रृंगार की सारी सामग्री एक साथ प्रतिमा पर लाद दी गई। पण्डित जी ने भी अपना मोबाइल और जींस-टीशर्ट एक तरफ सरका कर धोती धारण कर ली, और गणेश आरती की सीडी बजवा दी। प्रसाद बँट गया। गणेश जी विराज कर चिंता करने लगे कि आगे के दस दिन और क्या-क्या देखना पड़ेगा। उन्हें अन्य देवों से ईर्ष्या होने लगी ये सोचकर कि वे सभी तो पृथ्वी भ्रमण हेतु रामनवमी, जन्माष्टमी, आदि पर एक दिन आते हैं और चले जाते हैं। अब मुझे दस दिन अपने भजन सुनना है और ये सब देखना है। एकाएक लाउडस्पीकर से हुई घोषणा से उनका ध्यान टूट गया। संचालक महोदय ने गणशोत्सव के उपलक्ष्य में 'डांस कॉम्पिटिशन' का शंख फूँक दिया था।
हम इस कल्पना तो किसी आधुनिक हास्य फ़िल्म के क्लाइमैक्स के समान यहीं समाप्त कर सकते हैं। किंतु इससे उपजे सवालों का जवाब न मिलने पर इसे नज़रअंदाज़ कर देना ठीक नहीं होगा। हमारे देश में आए दिन होने वाले ऐसे हंगामे आम नागरिक को तो हलकान कर देते हैं। इनका दृढ़संकल्प भी ऐसा कि देवता स्वयं भी इन भक्तों के आगे बेबस हो सकते हैं। अपने भगवान, अल्लाह, ईश्वर, जीसस, वाहेगुरु के साथ ऐसा अपमान फिर न हो इसके लिए हम ही कुछ कर सकते हैं। भले ही हमें दंगों, बंद और चक्काजाम के विरोध में स्वयं और भगवान पर भरोसा कर रास्तों पर निकलना पड़े।