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Written By Author जयदीप कर्णिक

एनडीटीवी पर प्रतिबंध के बहाने पत्रकारिता पर चर्चा

एनडीटीवी पर प्रतिबंध के बहाने पत्रकारिता पर चर्चा - NDTV Press Freedom
एनडीटीवी के हिन्दी चैनल के प्रसारण पर एक दिन के लिए रोक लगा देने को लेकर ख़ूब हो हंगामा हो रहा है। पत्रकार संगठन लामबंद हो रहे हैं। अधिकांश पत्रकारों ने इस प्रतिबंध का विरोध ही किया है। हाँ  कुछ पत्रकार और संगठन बा-आवाज़े बुलंद इस प्रतिबंध का समर्थन भी कर रहे हैं। वो ये मानते हैं कि ऐसा होना ही चाहिए। सोशल मीडिया भी तरह-तरह की आवाज़ों से भरा पड़ा है। सिर्फ़ एक दिन के लिए ही क्यों, एनडीटीवी को हमेशा के लिए ही बन्द कर दो से लेकर आपातकाल की याद तक की बात हो रही है। चंद संतुलित आवाज़ों को छोड़ दें तो अधिकतर मामलों में लोग बिलकुल दो सिरों पर हैं। प्रतिबंध के समर्थन में और विरोध में। इसी बीच एनडीटीवी के प्राइम टाइम के एंकर और चर्चित पत्रकार रविश कुमार ने अपने कार्यक्रम में ये सवाल पूछा है कि हम सवाल ही नहीं पूछेंगे तो करेंगे क्या?

दरअसल, इस प्रतिबंध के बहाने बहुत सारे मुद्दों को सिर उठाने और लोगों के लिए उनका आपस में घालमेल करने का मौका दे दिया है। लगता है कि सरकार ने जैसे बर्रे के छत्ते में हाथ डाल दिया है। लोग इस प्रतिबंध के समर्थन और विरोध में केवल एक पठानकोट हमले की वजह से नहीं हैं, इसमें राजनीति, पार्टीवाद, सर्टिफिकेटवाद, एनडीटीवी के कुछ पत्रकारों को लेकर पहले से मौजूद नाराज़ी, व्यक्तिगत हित, सरकार के प्रति राजी-नाराजी, इस सरकार के मीडिया पर प्रभाव और दखल को लेकर पहले से मौजूद तर्क, तथ्य, धारणा और चर्चा, अभिव्यक्ति की आज़ादी पर सचमुच के और कुछ ओढ़े गए ख़तरे, भविष्य में किसी और मीडिया संस्थान पर इसी तरह की कार्रवाई की चिन्ता, नए आपातकाल का डर.... और… और भी बहुत कुछ है। तो ये सब बहुत कुछ मिलकर जबर्दस्त खिचड़ी बन गई है। चुँकि बात सवाल उठाने की हुई है, तो हम भी कुछ सवालों के ज़रिए ही इस शोर में से कुछ सुन पाने और इस खिचड़ी से दाल-भात अलग करने की कोशिश करते हैं, और हम भी बस कोशिश ही कर सकते हैं –

-    एनडीटीवी हिन्दी के प्रसारण पर किसने रोक लगाई है?
-    यह रोक सूचना प्रसारण मंत्रालय ने लगाई है। चैनल को 9 नवंबर से 10 नवंबर 2016 तक 24 घंटे के लिए प्रसारण रोकने (ऑफ़ एयर) का आदेश दिया गया है।

-    एनडीटीवी पर ये प्रतिबंध क्यों लगाया गया है?
-    सरकारी समिति का कहना है कि 2 जनवरी, 2016 को पठानकोट आतंकी हमले की एनडीटीवी के हिन्दी चैनल द्वारा की गई कवरेज के दौरान आतंकवादियों के हैंडलर्स को संवेदनशील जानकारी मिली थी।

-    कौन से कवरेज की वजह से ऐसा हुआ?
-    पक्का तो नहीं कह सकते की सरकारी समिति ने किस ख़बर और किस अंश को आपत्तिजनक माना पर 2 जनवरी 2016 के ये दो वीडियो एनडीटीवी की ही साइट पर मौजूद हैं जो पठानकोट हमले के सीधे प्रसारण से जुड़े हैं। इसमें संवाददाता सुधिरंजन सेन, राजीव रंजन और आनंद पटेल ने मौके से कई जानकारियाँ दी हैं –
1.  http://khabar.ndtv.com/video/show/news/terror-attack-on-ब.  pathankot-airbase-alert-was-issued-24-hours-prior-397212

2. https://www.youtube.com/watch?v=IGhaI7NYTi8

इनको ध्यान से सुनें तो समझ में आता है कि ऐसी कई जानकारियाँ हैं जो इन संवाददाताओं द्वारा मौके से दी गईं। इनमें से कई जानकारियाँ संवेदनशील हो भी सकती हैं। कोई और भी वीडियो हो जो हटा लिया गया हो तो कह नहीं सकते।

-    क्या अन्य चैनलों ने भी इस हमले का सीधा कवरेज किया था?
-    हाँ, किया था।

-    कानून क्या है?
-    करगिल युद्ध और 26/11 के मुंबई हमले के बाद इस तरह की घटनाओं पर मीडिया कवरेज को लेकर ख़ूब चर्चा और बहस हुई। मीडिया की भूमिका और किसी रिएलिटी शो की तरह आतंकी घटनाओं का कवरेज दिखाए जाने की भरपूर आलोचना भी हुई। इसी को देखते हुए सरकार ने 21 मार्च 2015 को बाकायदा 1995 के केबल प्रसारण अधिनियम में संशोधन करते हुए ये नियम बनाया कि “किसी भी आतंकी घटना का सीधा प्रसारण करते समय केवल सरकार द्वारा तय अधिकारी से प्राप्त सूचना को ही प्रसारित किया जाना चाहिए, जब तक कि कार्रवाई पूरी ना हो जाए।“
 
-    क्या इस नियम का पूरी तरह पालन हुआ?
-    जाँच इसी बात पर होनी चाहिए कि ये संवाददाता जो जानकारी लाइव कवरेज के दौरान दे रहे थे, वो किसी अधिकारी ने उन्हें दी थी या वो अपने तईं जुटाई गई जानकारी प्रसारित कर रहे थे। जो वीडियो से समझ में आता है और जो मंबई हमले का अनुभव है उसके मुताबिक हमले के योजनाकार ऐसी जानकारी का उपयोग कर सकते हैं। वैसे भी रक्षा मामलों के लिए कवरेज करने हेतु बाकायदा रक्षा मंत्रालय और सेना द्वारा एक कोर्स करवाया जाता है। क्या ये या अन्य चैनलों के जो संवाददाता इस घटना को कवर कर रहे थे, उन्होंने ये कोर्स कर रखा था? क्या उन्हें पता था कि कौन-सी जानकारी संवेदनशील है और कौन सी नहीं?

-    क्या सरकार ने एक दिन का प्रतिबंध लगाकर ग़लत किया?
-    हाँ, सरकार ने अपने स्तर पर एक दिन के लिए एक चैनल को बंद करने का फैसला लेकर गलत किया। जो प्रसारण हुआ अगर वो गैर-कानूनी है और सभी चैनलों द्वारा पठानकोट हमले की घटना का प्रसारण किए जाने के बाद भी अगर केवल एनडीटीवी ने ही नियमों का घोर उल्लंघन किया है तो सरकार को इस मुद्दे पर अधिक पारदर्शिता दिखाना चाहिए थी। सरकार को ना केवल एनडीटीवी के संपादकों और मालिकों को बुलाकर इसकी गंभीरता से अवगत कराना चाहिए था, बल्कि अन्य मीडिया समूहों, एडिटर्स गिल्ड, ब्रॉडकास्टर्स एसोसिएशन और अन्य वरिष्ठ संपादकों-पत्रकारों को भी बुलाकर ये बताना चाहिए था कि किस तरह ये ग़लती सिर्फ एनडीटीवी ने की है, वो क्यों बहुत संगीन है और देश की सुरक्षा के लिए कितना गंभीर मामला है। इसके लिए बाक़ायद कानून भी है और सभी टीवी चैनल उसे मानने के लिए बाध्य हैं। इसीलिए बाक़ायदा मुकदमाा चलाकर कानूनी कार्रवाई भी आवश्यक होने पर की जाए। ऐसे में ना केवल सरकार की साख बढ़ती बल्कि पत्रकार जगत भी इस ग़लती को बेहतर समझता। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर कोई आसन्न ख़तरा भी नहीं नज़र आता। आपातकाल की आहट का इतना शोर नहीं मचता।

अगर आप सारे चैनलों में से सिर्फ़ एक पर कार्रवाई कर रहे हो, और वो चैनल अगर कथित रूप से सरकार के ख़िलाफ़ ख़बरें चलाने या कमी को उजागर करने के लिए जाना जा रहा है, तो इस पर सवाल उठना जायज भी है। सरकार पर यों भी मीडिया पर नकेल कसने के आरोप लग रहे हैं तो फिर ये ज़रूरी हो जाता है कि सरकार सीधे कोई भी ऐसी कार्रवाई करने से बचे, पूरी पारदर्शिता बरते और ये भरोसा दिलाए कि प्रेस की आज़ादी को कोई ख़तरा पहुँचाए बिना वो केवल कानून का पालन करवाने और देश की सुरक्षा के लिए ही चिंतित है। ऐसा ना होने पर नुकसान सरकार का ही है, क्योंकि फिर इस सबको अभिव्यक्ति की आज़ादी की चादर में लपेट दिया जाएगा। जो कि हो रहा है। जो कि होगा ही। क्योंकि क्या भरोसा कल आप किसी और ख़बर को लेकर किसी और चैनल को बंद करने का फरमान जारी कर दो? चैनल पहले भी बंद किए गए हैं, अलग-अलग कारणों से। अभी संकट विश्वास का है। केवल उस ख़बर से नाराज़ी है या चैनल से नाराज़ी है, ये स्पष्ट होना बहुत ज़रूरी है।

-    एनडीटीवी की ज़िम्मेदारी
-    एनडीटीवी की ज़िम्मेदारी तो और भी बढ़ जाती है। जिस तरह का समर्थन उसे प्रेस जगत से मिल रहा है, लोग उसकी कवरेज और ख़बरों को परे रख कर प्रेस की स्वतंत्रता की ख़ातिर उसके साथ खड़े हो रहे हैं, ऐसे में एनडीटीवी पर पत्रकारीय स्वतंत्रता और गरिमा को बनाए रखने का दायित्व और भी बढ़ जाता है। बजाए के ये कहने के कि सभी ने इसी तरह का प्रसारण किया था, ईमानदार आकलन होना चाहिए कि कहीं सीधे प्रसारण के उत्साह में उसके संवाददाताओं से कोई ग़लती तो नहीं हो गई है? हुई है तो इस पर ख़ुलकर बहस हो। अन्य चैनलों का कवरेज भी सामने रखा जाए। एक मिसाल बने देश के पत्रकारों के लिए कि जिम्मेदारी और कानून दोनों के ही स्तर पर पत्रकारों को और मीडिया को बहुत बड़ी भूमिका निभानी है। हम आत्मचिंतन और स्व-नियमन में सक्षम हैं। ये बड़ा मौका है।  

-    क्या पत्रकार और पत्रकारिता कानून से परे है?
-    बिलकुल नहीं। बल्कि पत्रकारों की ज़्यादा बड़ी जिम्मेदारी बनती है। आपको देश-दुनिया देखती/सुनती/पढ़ती/मानती है। आप मिसाल बनते हैं। आजकल तो बड़े सेलिब्रिटी बनते हैं। कानून के उल्लंघन के हर मसले को मज़बूती से उठाना आपकी ज़िम्मेदारी है। इसीलिए ज़्यादा ज़रूरी ये है कि आप हर नियम कानून का पूरी तरह से पालन करें। पूरे देश के मीडिया ने निर्भया मामले में पीड़िता का नाम क्यों उजागर नहीं किया? कानून है कि पीड़ित महिला का नाम ना उजागर किया जाए। जिसने उजागर किया उसे माफ़ी भी माँगनी पड़ी।

मैं जब नईदुनिया में संपादक था, कुछ ख़बरों को लेकर कानूनी नोटिस भी आए। एक मामला जिसमें कई दफे बाल न्यायालय में जाना पड़ा, उसमें एक अपराध की ख़बर में एक नाबालिग का नाम और फोटो छप गया था। कानून है कि नहीं छाप सकते। सावधानी बरती भी जाती है। लड़के की माँ ने मुकदमा कर दिया। मेरे साथ अन्य अखबारों के संपादकों को भी अदालत जाना पड़ा। हम बरी इसलिए हुए कि इस मामले में पुलिस ने ही अपनी विज्ञप्ति में उस मुलजिम की उम्र 19 साल बताई थी और पुलिस ने ख़ुद उसके साथ खड़े होकर फोटो खिंचवाई और जारी की।

अधिक सतर्कता बरतने की बात हमें अदालत ने फिर भी कही और हमने मानी। ऐसे एक नहीं अनेकों मामले हैं जिनमें मालिकों, संपादकों और पत्रकारों को अदालत में माफी माँगनी पड़ी और माफीनामा छापना/दिखाना पड़ा। सोशल मीडिया पर चिल्लाने वालों का ज़रूर इससे कोई वास्ता नहीं।

इन सवाल-जवाबों के साथ बात थोड़ी लंबी ज़रूर हो गई है, लेकिन शायद समझ में आए। बात पूरी फिर भी नहीं हुई है। और भी सवाल उठाएँगे। इसमें भी कोई शक नहीं है कि पिछले डेढ़ दशक में मीडिया की स्थिति और उसके कॉर्पोरेट स्वरूप पर बहुत चर्चा हुई है। क्षरण भी हुआ है। भारतीय मीडिया, ख़ास तौर पर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया को अभी और बहुत परिपक्व होना है। एजेंडा आधारित पत्रकारिता भी हुई है, हो रही है। पर ये सब अलग बहस और अलग हल की माँग करते हैं। सवाल तो पठानकोट हमले में सरकार, अधिकारियों और सेना की नाकामी पर भी पूछे जाने चाहिए। पर अगर हम सब मुद्दों को आपस में मिला देंगे तो कहीं नहीं पहुँच पाएँगे।

आवाज़ें तो ये भी आ रही हैं कि इस चैनल को ही बंद कर दो, चैनल नियम-कानून से चले ये बहुत ज़रूरी है। पर अगर उसकी कही हुई बात, उस पर प्रसारित विचार आपको पसंद नहीं हैं, इसलिए वो बंद हो जाए, तो ये ग़लत है।