• Webdunia Deals
  1. सामयिक
  2. संपादकीय
  3. संपादकीय
  4. Gujarat Assembly Elections 2017 Narendra Modi amit shah

99 के फेर में भाजपा...

99 के फेर में भाजपा... - Gujarat Assembly Elections 2017 Narendra Modi amit shah
अगर अपने विजयी भाषण में प्रधानमंत्री मोदी ये कहते हैं कि ये जीत किसी भी मायने में सामान्य जीत नहीं है और इसे हर तरह के विश्लेषण में एक असामान्य जीत माना जाना चाहिए - तो हमें पता चल जाता है कि गुजरात के विधानसभा चुनाव और उसके परिणाम क्या मायने रखते हैं।


बहुत सारे विश्लेषक और राजनीति के जानकार मानकर चल रहे थे कि गुजरात में कश्मकश वाली कोई बात नहीं है। राहुल गाँधी के नेतृत्व को गुजरात में कोई नहीं स्वीकारेगा और भाजपा की एकतरफा जीत होगी। ये भी कि जीएसटी और नोटबंदी गुजरात में कोई मुद्दा नहीं है। कि विकास के मॉडल को चुनौती देना बेमानी है, उसी मॉडल ने तो मोदी को देश का प्रधानमंत्री बनाया है। और ये कि 22 साल का स्वाभाविक-असंतोष (एंटी इनकमबेन्सी) कोई बहुत मायने नहीं रखता। ना ही पाटीदार आंदोलन का कोई महत्व है, उससे निपटने के लिए तो हार्दिक की सीडी ही काफी है। ये तमाम बातें भाजपा की एकतरफा जीत को मानकर चलने के लिए काफी थीं।

…गुजरात की ज़मीन में कच्छ के रण से लेकर अहमदाबाद, सूरत, वड़ोदरा के गली-कूचों में घूमकर अपनी राजनीति की शुरुआत करने वाले नरेंद्र मोदी और अमित शाह को यह अच्छे से मालूम था कि ये सारे ही कारक मिलकर गुजरात में भाजपा को सत्ता से बाहर करने के लिए काफी हैं। कि इस देश के लोकतंत्र में कुछ भी हो सकता है और आप किसी भी हाल में भरोसे नहीं बैठ सकते। कि यहाँ पर इंदिरा गाँधी भी रायबरेली से (1977) हार सकती हैं और अटलबिहारी वाजपेयी ग्वालियर (1984) से। यहाँ के जनमानस और उनके वोट को जागीर नहीं माना जा सकता। इसीलिए प्रधानमंत्री मोदी और भाजपा के अध्यक्ष अमित शाह ने अपने गृह राज्य में साख बचाने के लिए पूरी ताकत झोंक दी।

ख़ूब ताकत तो उन्होंने दिल्ली से सबक लेकर बिहार में भी लगाई थी। जमकर मेहनत की और चुनाव लड़ा, पर हारे। उत्तरप्रदेश में ख़ूब ताकत झोंकी और शानदार जीत भी हासिल की। पर इस सारी हार-जीत से आगे गुजरात चुनाव पूरी तरह भाजपा और उनकी केंद्र सरकार के लिए नाक का सवाल था। होना भी चाहिए। ये बुनियाद है मोदी-शाह की राजनीति की। अगर नींव हिल जाए तो इमारत दरकने में देर नहीं लगेगी। 2019 के ऐन पहले गुजरात हारना मतलब संकट के वो काले बादल जिनकी तासीर से मोदी-शाह भली-भाँति परिचित थे। हालाँकि ये चुनाव कई मायनों में भाजपा के लिए बहुत कठिन था। तीन दशक तक लगातार एक ही पार्टी के लिए किसी भी एक राज्य में सरकार बनाए रखना बहुत आसान नहीं है। वाम सरकार ने ये करिश्मा बंगाल में किया था पर वो 'लाल किला' भी अंतत: ढह गया।
पाटीदार आंदोलन के उभार के बीच, जीएसटी, नोटबंदी, किसान समस्या से उपजे असंतोष के स्वरों को मोदी-शाह ने बहुत अच्छे से सुन लिया था। तभी वे अपनी पूरी ताकत से इस चुनाव में उतरे, हर रीति-नीति को अपनाया, विकास से लेकर गुजराती अस्मिता के प्रश्न तक हर संजीदा रग को छुआ। मुद्दों को बदला, भटकाया और साबरमती में समुद्री प्लेन भी उतारा। अगर पहले दौर की सीटों में भाजपा को 17 सीटों का नुकसान पिछले चुनाव के मुकाबले हुआ है तो समझा जा सकता है कि कांग्रेस द्वारा उठाए मुद्दों का क्या प्रभाव था।

कुल परिणामों में भाजपा का वोट प्रतिशत बढ़ा है। उन्हें 49.1 प्रतिशत वोट मिले हैं और कांग्रेस को 41.4 प्रतिशत वोट। अंतर तो 8 प्रतिशत का है जो मायने रखता है। पर केवल सीटों को देखें तो 150 से अधिक सीटों का दावा करने वाली भाजपा 100 के आंकड़े को भी नहीं छू पाई है। पिछली बार 115 सीटों पर जीतने वाली भाजपा ने 16 सीटों का नुकसान उठाया है। वहीं 61 सीटों वाली कांग्रेस अपने सहयोगियों के साथ 80 पर है जो कि बहुमत से 12 सीटें दूर है। कांग्रेस को इस बार 77 सीटें मिली हैं, जो कि पिछली बार की तुलना में 16 ज्यादा हैं। 

कांग्रेस के लिए सोचने वाली बात ये है कि पाटीदार आंदोलन और किसान असंतोष को भुनाते हुए साल भर पहले से ज़मीनी तैयारी क्यों नहीं की? शंकरसिंह वाघेला को अलग क्यों हो जाने दिया? अगर प्रदेश अध्यक्ष भरत सोलंकी को ‘खाम’ के नुकसान से बचाने के लिए सामने नहीं आने देना था तो कोई और चेहरा तैयार क्यों नहीं किया? अर्जुन मोढवाडिया और शक्ति सिंह गोहिल जैसे नेता जो ख़ुद अपनी सीटें नहीं बचा पाए उन्हें दरकिनार क्यों नहीं किया? गुजरात में कांग्रेस का बूथ स्तर का नेटवर्क कहाँ है? जब भी मोदी बनाम राहुल हुआ है, राहुल हारे हैं ...तो फिर कोई मजबूत क्षत्रप क्यों नहीं चुना जाता लड़ाने के लिए? आखिर शहरी क्षेत्र में कांग्रेस की पैठ इतनी कमजोर क्यों है?

वहीं भाजपा को ये सोचना पड़ेगा कि वो इस 99 के फेर से कैसे निकल पाए। अगर वाकई मोदी का जादू इतना तगड़ा है तो कांग्रेस औंधे मुँह क्यों नहीं गिरी? क्यों भाजपा 150 तो ठीक 125 सीटें भी नहीं ला पाई? जिस कांग्रेस के पास न स्थानीय नेता है न नेटवर्क वो कैसे आपको यों कड़ी टक्कर दे पाई? जिस राहुल को आप नेता ही नहीं मानते और ये कहते हैं कि वो तो भाजपा के लिए फायदेमंद हैं वो कैसे आपको यूं अपने ही गृह राज्य में घेरने में इस तरह कामयाब हुए कि आप उनके ही उठाए मुद्दों पर चलते रहे? क्यों भाजपा को ग्रामीण क्षेत्रों में वो व्यापक जनसमर्थन नहीं मिला। भाजपा का जनाधार शहरी क्षेत्र और मध्यवर्ग में जितना मजबूत है उतना किसान और ग्रामीणों में क्यों नहीं? जिस जातिवाद के ज़हर की बात आप करते हो वो फिर गुजरात में इतना हावी क्यों हो गया?

उधर हिमाचल में भाजपा जीत तो गई है पर वहाँ मुख्यमंत्री पद की दावेदार और प्रदेश अध्यक्ष के हार जाने से ये जीत फीकी ज़रूर हुई है। वहाँ 'गढ़ आया पर सिंह गया' वाली स्थिति हो गई है। हालाँकि मुख्यमंत्री के लिए अब भी उप-चुनाव का रास्ता खुला है। हालाँकि हिमाचल में सरकार पलटने का चलन-सा है फिर भी भाजपा के लिए ये जीत बहुत मायने रखती है क्योंकि अब 19 राज्यों में उसकी सरकार हो जाएगी और पहले से गरीबी में चल रही कांग्रेस के खाते से एक राज्य और कम हो गया। कांग्रेस को भाजपा से सबक लेना चाहिए जो हर राज्य पर पूरी मेहनत करती है और किसी भी परिणाम को तयशुदा मानकर नहीं चलती।

बहरहाल, भाजपा दोनों ही राज्यों में सरकार बना लेने की जीत का जश्न अवश्य मना सकती है और मना रही है, क्योंकि तमाम किंतु-परंतु के बीच जीत जीत ही होती है और 2018 के विधानसभा और 2019 के लोकसभा चुनावों के लिए यह भाजपा को नई ऊर्जा देगी। यह भी तय है कि भाजपा को समझ आ जाएगा कि आगे की राह आसान नहीं है। जीएसटी, नोटबंदी और विकास के जिन मुद्दों को गुजरात में स्वर मिला है वे आगे भी उसकी राह में बड़ा रोड़ा बन सकते हैं।