Solution to life challenges: आठ अरब जनसंख्या वाली इस विशाल दुनिया में कोई भी मनुष्य अकेला क्यों महसूस करने लगता है? इतनी बड़ी दुनिया में जहां हर कहीं लोग ही लोग दिखाई देते हैं। वहां किसी मनुष्य को जब यह लगने लगता है कि वह इस दुनिया में निपट अकेला है! उसकी बातों को कोई सुनने- समझने वाला ही इस दुनिया में है ही नहीं। या इसके उलट बार-बार यह विचार मन में आता है कि सबको अपनी-अपनी पड़ी है किसी को मेरे से बात करने की फुरसत ही नहीं है।
एक और बात इस कालखंड में हमारे मुंह से बार-बार निकलने लगी है कि कोई किसी का नहीं है हम तो मदद करना चाहते हैं पर कोई मदद लेना ही नहीं चाहता। यह केवल व्यक्ति के स्तर पर ही नहीं है सार्वजनिक जीवन की तमाम संस्थाओं के साथ राजनीतिक दलों सहित सरकारी विभागों और देश दुनिया के स्वयंभू कर्ता-धर्ता से लेकर दुनिया को रास्ता दिखाने वाले सामाजिक कार्यकर्ता, राजनेता के साथ साथ आध्यात्मिक गुरु, धार्मिक साधु-संतों के अन्तर्मन में भी यही सब चल रहा है।
कोई इसे कहे न कहे पर आज की दुनिया में नवजात शिशुओं को छोड़ बाकी सबके मन में लगभग ऐसी ही पीड़ा है। देश और दुनिया को निरन्तर प्रेरणा देने के लिए जीवन भर भ्रमण करने वाले प्रवचनकारों से बात कर देखिए, एक दम बोल पड़ेंगे कि हमने सारा जीवन लगा दिया पर कोई सुनता समझता ही नहीं है। लेखक, संगीतज्ञ, चित्रकार जैसे रचनात्मक वृत्ति में लगी विभूतियों से लेकर दुनिया भर की सभी विधाओं के हुनरमंद या सामान्यजन के अन्तर्मन में यही सब चलता रहता है।
व्यापारी को लगता है व्यापार मंदा चल रहा है, किसान को लगता है फ़सल कमजोर है या भाव नहीं है। शिक्षक को लगता है छात्रों का पढ़ने में मन नहीं है छात्रों को लगता है शिक्षक पढ़ाना नहीं चाहते। सरकार को लगता है कर्मचारी काम नहीं करते कर्मचारियों को सरकारी फरमान बोझ लगते हैं। ये हमारे काल खंड के मनुष्य के मन में जो कुछ भी चल रहा है या चलता रहता है उसका एक अंश है।
बुनियादी सवाल यह है कि हम सब, अपने आप पर और दुनिया में हमारे समकालीन मनुष्यों पर विश्वास क्यों नहीं कर पा रहे हैं? क्या हमारे मन में ख़ुद अपने आप पर भी विश्वास है? क्या हम अपने से भिन्न मनुष्य को भी अपने जैसा ही मान पाते हैं? ये सब कुछ सामान्य सवाल हैं जो दुनिया के प्रत्येक मनुष्य के मन में आते जाते या बने ही रहते हैं। इसमें अनूठा कुछ भी नहीं है यह सनातन समय से मन की अवस्था है।
यदि मनुष्य को मनुष्य होने पर भी सुख, शांति और समाधान नहीं है तो आज़ के कालखंड में जीवित मनुष्य क्या करें कि उसे अपने मन जीवन और कृतित्व में समाधान और शांत चित्तता का बोध हो। जैसे-जैसे हमारा जीवन दुनिया में अपने समकालीन मनुष्यों के सानिध्य में आता है वैसे-वैसे हमारे मन में हर मामले में मेरे-तेरे का भाव दिन दूना रात चौगुना बढ़ता ही जाता है। मैंने इतनी मुश्किल से यह कार्य किया और उसने उसे देखकर कोई भी प्रतिक्रिया नहीं दी और प्रारंभ हो गया तुलनात्मक चिन्तन और गिले-शिकवों की अंतहीन यात्रा का सिलसिला जो आजीवन रुकने का नाम ही नहीं लेता।
आज की आधुनिक और पहले की पुरातन काल की दुनिया में जन्मे मनुष्य की भी यही मनोदशा दिखाई देती है। इस दुनिया के मनुष्य के मन में न तो खुद पर भरोसा है और नहीं दुनिया के अन्य मनुष्यों पर भरोसा करने का सरलतम रास्ता मनुष्य के मन ने पकड़ा। नतीजा आज यह हो गया कि सब एक दूसरे से आशंकित हो जीवन जी रहे हैं।
वन धरती पर अभिव्यक्त हुआ पर जीवन जीने का ढंग पुरातन काल से मनुष्यों ने दुनिया भर में अपने अपने ढ़ंग से विकसित किया। मनुष्य को अपने द्वारा बनाए गए जीवन के ढंग से कभी भी समाधान नहीं मिला और मनुष्य ने अपने अनुभव चिन्तन मनन और जरूरतों को देख परखकर निरन्तर अपने जीवन काल में अनगिनत प्रयोग किए, जिन्हें बड़े उत्साह से अपनाया और जल्द ही स्वयं भुला भी दिया।
दुनिया की व्यापकता और मनुष्य की व्यक्तिगत पसंद-नापसंद आधारित मन और सोच समझ की सिकुड़न ने इतनी बड़ी दुनिया में अकेलेपन के भाव को मनुष्य के मन में गहरे से स्थापित कर दिया है। मन शरीर में होकर भी समूची दुनिया से भी परे है। पर मनुष्य मन के अंतहीन प्रवाह में अपना संतुलन कायम नहीं रख पाता।
मनुष्य को भीड़ में भी अकेला और अकेले में भी आनन्द से रहना सीखने की कला को अपने समूचे जीवन में आत्मसात कर आजीवन जिन्दादिली के साथ जीना सीखते रहना चाहिए। जीवन प्राकृतिक अभिव्यक्ति है पर जीना मनुष्य के मन का खेल है। इसीलिए अकेले ही भीड़ में रहते हुए भी आनन्द से जीने का संतुलन बनाना आवश्यक है। इसके बिना न तो हम अकेले रह सकते हैं और नहीं समकालीन मनुष्य समाज के साथ रह सकते हैं।