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Last Updated : गुरुवार, 8 फ़रवरी 2018 (15:30 IST)

सीएम से पीएम बने मोदी जी !

सीएम से पीएम बने मोदी जी ! - Modi becomes CM to PM
नई दिल्ली। संसद में राष्ट्रपति के अभिभाषण पर लोकसभा में प्रधानमंत्री का जवाब उस संसदीय गरिमा और शालीनता के अनुरूप नहीं था जिसकी वे समय-समय पर दुहाई देते हैं। राष्ट्रपति के अभिभाषण पर धन्यवाद प्रस्ताव पर अपने भाषण में प्रधानमंत्री ने कुछेक ऐतिहासिक तथ्‍यों को अपनी सुविधा के अनुरूप उल्लेख‍ किया लेकिन वे बहुत से तथ्यों की अनदेखी कर गए। इसका परिणाम यह हुआ कि प्रधानमंत्री का भाषण चुनावी या किसी विरोधी नेता के प्रलाप जैसा ज्यादा हो गया।  
 
मोदी ने भारत विभाजन के लिए कांग्रेस को जिम्मेदार ठहराया लेकिन उस समय की सबसे बड़ी और देश की प्रतिनिधि पार्टी होने के नाते कांग्रेस विभाजन की जिम्मेदारी से बच नहीं सकती। विभाजन को लेकर जो किताबें लिखी गई हैं, उनमें कांग्रेसी नेताओं को इसका जिम्मेदार भी बताया गया है। 
 
जबकि विभाजन और दंगों से गांधीजी इतने दुखी थे कि उन्होंने आजादी के दिन दिल्ली में रहना तक जरूरी नहीं समझा। लेकिन वे जिस कांग्रेस की बात कर रहे थे क्या उस समय पटेल उस कांग्रेस में शामिल नहीं थे, जिसने विभाजन का प्रस्ताव माना? क्या उन दिनों श्यामा प्रसाद मुखर्जी भी कांग्रेस में नहीं थे?  
 
विदित हो कि 1951 में जनसंघ की स्थापना से पहले वे कांग्रेस में थे और नेहरू मंत्रिमंडल में शामिल थे। जाहिर है कि विभाजन की गुनाहगार जो कांग्रेस थी, उसमें नेहरू भी थे, पटेल भी और श्यामा प्रसाद मुखर्जी भी शामिल थे। मोदी ने इतिहास को भी अपनी राजनीतिक सुविधा के लिए इस्तेमाल किया। और वे सुविधापूर्वक कुछ चीजों को भूल जाते हैं लेकिन कांग्रेस या नेहरू की आलोचना के लिए कुछ अपने काम की चीजों को याद रखते हैं। 
 
मोदी ने कश्मीर को लेकर भाजपा की वही लाइन दुहराई कि सरदार पटेल होते तो पूरा कश्मीर हमारा होता। जबकि इतिहास में यह बात दर्ज है कि सरदार पटेल बिल्कुल शुरुआती दिनों में जिस तरह जूनागढ़ और हैदराबाद को उनके निजामों की चाहत के बावजूद छोड़ने को तैयार नहीं थे। उसी तरह जम्मू-कश्मीर में भारत के विलय के बहुत उत्सुक भी नहीं थे। 
 
यह नेहरू थे जिन्होंने अपनी धरती का हवाला देते हुए माउंटबैटन से अनुरोध किया था कि वे श्रीनगर जाकर महाराज हरि सिंह से मिलें। तब यह मुलाकात नहीं हो पाई लेकिन बाद में कबायली हमलावरों की आड़ लेकर पाकिस्तान ने जो हमला किया, उससे हालात बदल गए। 
 
नेहरू और पटेल को बात-बात पर आमने-सामने खड़ा करने वाली भाजपा और उसके प्रधानमंत्री मोदी शायद यह नहीं जानते कि राज्यों के भाषावार पुनर्गठन के मसले पर नेहरू और पटेल दोनों की दुविधा एक सी थी। जिस आंध्र का वह उल्लेख कर रहे थे, वहीं तेलुगू के आधार पर अलग राज्य के लिए चले आंदोलन को लेकर दोनों विरोध में थे। 
 
क्योंकि उन्हें डर था कि एक बार धर्म के नाम पर बंटा देश अब भाषाओं के नाम पर न बंटने लगे। लेकिन आंध्र प्रदेश के अलग राज्य बनने के बाद के अनुभव ने दोनों को आश्वस्त किया कि देश भाषाओं के आधार पर बंटेगा नहीं, बल्कि बंधेगा। 
 
कश्मीर या आंध्र का उल्लेख यह बात समझने में सहायक हो सकता है कि आजादी और बंटवारे के बाद 600 रियासतों में बंटे देश को जोड़ना और उसका राजनीतिक नक्शा तैयार करना एक साझा उपक्रम था, जिसमें बहुत सारे लोग शामिल थे। इस प्रक्रिया में कई बार नेहरू-पटेल साथ चले होंगे और कई बार असहमत रहे होंगे। 
 
दोनों की चिट्ठियां इसी बात‍ की गवाही देती हैं लेकिन उन्हें एक-दूसरे के विरोधी के तौर पर पेश करने की जो संकीर्ण भाजपाई दृष्टि रही है। उसे संसद में रखना प्रधानमंत्री की मर्यादा के अनुरूप नहीं था लेकिन वे यह बात सुविधानुरूप भूल गए। 
 
यह सच है कि आजादी के बाद सत्ता पर सबसे लंबे समय तक काबिज कांग्रेस के गुनाह कम नहीं रहे हैं। भ्रष्टाचार, परिवारवाद और तमाम तरह की जो कमजोरियां दिखाई देती हैं, उन सबके बीज कांग्रेस में रहे हैं। लेकिन नेहरू ने इंदिरा गांधी को प्रधानमंत्री नहीं बनाया था, वे कांग्रेस के बड़े नेताओं के आपसी झगड़े में गूंगी गुड़िया की तरह आगे बढ़ाई गईं। 
 
पर जब यह गूंगी गुड़िया जब बोलने लगी तो उन्हीं कांग्रेसी नेताओं ने उन्हें किनारे करने की कोशिश की। कांग्रेस टूटी और संगठन कांग्रेस दूसरों के पास चली गई। यह वही दौर था जब इंदिरा गांधी ने प्रिवीपर्स की समाप्ति, बैंकों और कोयला खानों का राष्ट्रीयकरण कराया और 1971 में गरीबी हटाओ के नारे के साथ सत्ता में आईं।
 
इंदिरा गांधी की इमरजेंसी मोदी को याद रहती है जिसे उन्होंने संसद में भी दोहराया। बेशक यह भारतीय लोकतंत्र का सबसे काला अध्याय है जिसकी जनता ने उन्हें सजा सुनाई लेकिन इसी इंदिरा गांधी को बांग्लादेश मुक्ति संग्राम के बाद मोदी के प्रिय नेता अटल बिहारी वाजपेयी ने भी सराहा था।  
 
यह वे सुविधाभावी भावना से भूल गए। अपनी चुनी हुई सच्चाइयों का बयान नेताओं की ही नहीं, कई बार विचारधारा से बंधे इतिहासकारों, बुद्धिजीवियों की फितरत में शामिल होती है, लेकिन एक प्रधानमंत्री को कम से कम संसद में ऐसी चुनी हुई सच्चाइयां नहीं रखनी चाहिए। 
 
प्रधानमंत्री पूरी कटुता के साथ यह करते रहे और इसमें तथ्य भी भूल गए कि 1972 के शिमला समझौते को उन्होंने इंदिरा गांधी और बेनजीर भुट्टो के बीच का समझौता बता डाला, जबकि वह बेनजीर के पिता जुल्फिकार अली भुट्टो का किया हुआ समझौता था। 
 
यह अलग बात है कि इस गलती के लिए उनके भक्त या राष्ट्रवादी उन्हें उस तरह ट्रोल न करें जैसे राहुल गांधी को किया जाता है। प्रधानमंत्री की इस राजनीतिक तल्खी ने नई और अरुचिकर अति राज्यसभा में की जहां कांग्रेस नेता रेणुका चौधरी की हंसी पर उन्होंने कटाक्ष किया- कहा कि ऐसी हंसी रामायण सीरियल खत्म होने के बाद पहली बार सुनी। 
 
देश की एक सांसद के लिए ऐसी राक्षसी हंसी का इशारा क्या प्रधानमंत्री को शोभा देता है? लेकिन मोदी जी चाय मैन (सीएम) से बने पकौड़ा मैन (पीएम) हैं, इसलिए वे देश के प्रधान सेवक की बजाय एक पार्टी के प्रधान प्रचारक के तौर पर संसद में भी भाषण देते हैं।