गौतम बुद्ध से जुड़े 17 पवित्र स्थान
संकलन : अनिरुद्ध जोशी 'शतायु'
गौतम बुद्ध का जन्म ईसा से 563 साल पहले हुआ था। बुद्ध के समय भारत के कौशाम्बी में उदयन नाम का एक प्रसिद्ध राजा था। मथुरा के इतिहास और गुरुकुल कांगड़ी के आचार्य रामदेवजी के निश्चय के अनुसार गौतम बुद्ध काल 1760 विपू से 1680 विपू है तथा उनका मथुरा आगमन काल 1710 विपू है। यह निर्धारण बुद्ध ग्रंथ महावश, जैन ग्रंथ स्थाविरावली, हरवंश, विष्णु भागवत आदि पुराणों के आधार पर है। इसका मतलब 1702 ईसा पूर्व बुद्ध का जन्म हुआ था?
भगवान बुद्ध ने भारत के जिस-जिस स्थान पर विहार किया, वहां-वहां बौद्ध तीर्थस्थल निर्मित हो गया। इसके अलावा बुद्ध ने कश्मीर होते हुए अफगानिस्तान तक की यात्रा की थी। बौद्धकाल में अफगानिस्तान का बामियान क्षेत्र बौद्ध धर्म की राजधानी था। मध्यप्रदेश, बिहार, उत्तरप्रदेश और पश्चिम बंगाल प्रारंभिक काल में बौद्ध धर्म का गढ़ था। यहां हजारों स्तूप और विहार बनाए गए थे लेकिन मध्यकाल में लगभग सभी को तोड़ दिया गया। अब बस बचे हैं तो कुछ प्रमुख स्तूप या विहार ही।
बुद्ध हैं अंतिम सत्य
बुद्ध दर्शन के मुख्य तत्व : चार आर्य सत्य, आष्टांगिक मार्ग, प्रतीत्यसमुत्पाद, अव्याकृत प्रश्नों पर बुद्ध का मौन, बुद्ध कथाएं, अनात्मवाद और निर्वाण।
संप्रदाय : भगवान बुद्ध के समय किसी भी प्रकार का कोई पंथ या संप्रदाय नहीं था किंतु बुद्ध के निर्वाण के बाद द्वितीय बौद्ध संगति में भिक्षुओं में मतभेद के चलते दो भाग हो गए। पहले को हिनयान और दूसरे को महायान कहते हैं। महायान अर्थात बड़ी गाड़ी या नौका और हिनयान अर्थात छोटी गाड़ी या नौका। हिनयान को ही थेरवाद भी कहते हैं। महायान के अंतर्गत बौद्ध धर्म की एक तीसरी शाखा थी वज्रयान। झेन, ताओ, शिंतो आदि अनेक बौद्ध संप्रदाय भी उक्त दो संप्रदाय के अंतर्गत ही माने जाते हैं।
इसके अलावा बौद्ध धर्म का एक और संप्रदाय है, जो भारत में पाया जाता है जिसे अम्बेडकरवादी नव बौद्ध कहते हैं। इस संप्रदाय को हिन्दू धर्म के प्रति नफरत फैलाकर खड़ा किया गया संप्रदाय माना जाता है, जबकि बुद्ध ने कभी नफरत के आधार पर अपना धर्म खड़ा नहीं किया।
बौद्ध धर्मग्रंथ : बुद्ध ने अपने उपदेश पालि भाषा में दिए, जो त्रिपिटकों में संकलित हैं। त्रिपिटक के तीन भाग है- विनयपिटक, सुत्तपिटक और अभिधम्मपिटक। उक्त पिटकों के अंतर्गत उपग्रंथों की विशाल श्रृंखलाएं हैं। सुत्तपिटक के पांच भागों में से एक खुद्दक निकाय की पंद्रह रचनाओं में से एक है धम्मपद। धम्मपद ज्यादा प्रचलित है।
बुध के गुरु और शिष्य : बुद्ध के प्रमुख गुरु थे- गुरु विश्वामित्र, अलारा, कलम, उद्दाका रामापुत्त आदि और प्रमुख शिष्य थे- आनंद, अनिरुद्ध, महाकश्यप, रानी खेमा (महिला), महाप्रजापति (महिला), भद्रिका, भृगु, किम्बाल, देवदत्त, उपाली आदि।
प्रमुख प्रचारक : अंगुलिमाल, मिलिंद (यूनानी सम्राट), सम्राट अशोक, ह्वेन त्सांग, फा श्येन, ई जिंग, हे चो आदि।
आठ स्तूप : तथागत के निर्वाण के पश्चात उनके शरीर के अवशेष (अस्थियां) आठ भागों में विभाजित हुए और उन पर आठ स्थानों में आठ स्तूप बनाए गए हैं। जिस घड़े में वे अस्थियां रखी थीं, उस घड़े पर एक स्तूप बना और एक स्तूप तथागत की चिता के अंगार (भस्म) को लेकर उसके ऊपर बना। इस प्रकार कुल दस स्तूप बने।
आठ मुख्य स्तूप : कुशीनगर, पावागढ़, वैशाली, कपिलवस्तु, रामग्राम, अल्लकल्प, राजगृह तथा बेटद्वीप में बने। पिप्पलीय वन में अंगार स्तूप बना। कुंभ स्तूप भी संभवतः कुशीनगर के पास ही बना। इन स्थानों में कुशीनगर, पावागढ़, राजगृह, बेटद्वीप (बेट-द्वारका) प्रसिद्ध हैं। पिप्पलीय वन, अल्लकल्प, रामग्राम का पता नहीं है। कपिलवस्तु तथा वैशाली भी प्रसिद्ध स्थान हैं।
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लुम्बिनी : गौतम बुद्ध का जन्म ईसा से 563 साल पहले नेपाल के लुम्बिनी वन में वैशाख मास के शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा के दिन हुआ। शाक्य गणराज्य की राजधानी कपिलवस्तु के निकट उत्तरप्रदेश के 'ककराहा' नामक ग्राम से 14 मील और नेपाल-भारत सीमा से कुछ दूर पर नेपाल के अंदर रुमिनोदेई नामक ग्राम ही लुम्बिनी ग्राम है, जो गौतम बुद्ध के जन्म स्थान के रूप में जगतप्रसिद्ध है। कपिलवस्तु में एक स्तूप था, जहां भगवान बुद्ध की अस्थियां रखी थीं।
उनकी माता कपिलवस्तु की महारानी महा मायादेवी जब अपने नैहर कोलिय गणराज्य की राजधानी देवदह जा रही थीं, तो उन्होंने रास्ते में लुम्बिनी वन में एक शाल वृक्ष के नीचे बुद्ध को जन्म दिया। कपिलवस्तु और देवदह के बीच नौतनवा स्टेशन से 8 मील दूर पश्चिम में रुक्मिनदेई नामक स्थान के पास उस काल में लुम्बिनी वन हुआ करता था। बुद्ध का जन्म शाक्य क्षत्रिय कुल में हुआ था।
उनका जन्म नाम 'सिद्धार्थ' रखा गया। सिद्धार्थ के पिता शुद्धोदन कपिलवस्तु के राजा थे और उनका सम्मान नेपाल ही नहीं, समूचे भारत में था। सिद्धार्थ की मौसी गौतमी ने उनका लालन-पालन किया, क्योंकि सिद्धार्थ के जन्म के सात दिन बाद ही उनकी मां का देहांत हो गया था।
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बोधगया : यह स्थान बिहार के प्रमुख हिन्दू पितृ तीर्थ 'गया' में स्थित है। गया एक जिला है। गया का नाम गयासुर के नाम पर रखा गया था। इसी स्थान पर बुद्ध ने एक वृक्ष के नीचे ज्ञान प्राप्त किया। जिसे बौद्ध धर्म में बोध प्राप्त करना या संबुद्ध होना कहा जाता है। जब उन्होंने ज्ञान प्राप्त किया था, तब भी पूर्णिमा ही थी।
इसे भगवान बुद्ध की निर्वाण स्थली भी कहा जाता है, जो गया स्टेशन से 7 मील दूर है। यहीं पर वह वृक्ष भी है जिसके नीचे बुद्ध को ज्ञान उपलब्ध हुआ था। आज इस वृक्ष की उम्र 2500 वर्ष से कहीं अधिक है। इस वृक्ष की ही एक शाखा को अशोक ने श्रीलंका में ले जाकर उगाया था।
वर्ष 2002 में यूनेस्को द्वारा इस शहर को विश्व विरासत स्थल घोषित किया गया, जहां हिन्दुओं और बौद्धों के कई प्राचीन मंदिर आज भी मौजूद हैं। बिहार में इसे मंदिरों के शहर के नाम से जाना जाता है। यहां का सबसे प्रसिद्ध मंदिर महाबोधि मंदिर है, जहां विश्वभर के बौद्ध अनुयायी दर्शन करने के लिए आते हैं।
बोधगया : बोधगया आने वालों को राजगीर भी जरूर घूमना चाहिए। यहां का विश्व शांति स्तूप देखने में काफी आकर्षक है। यह स्तूप ग्रीधरकूट पहाड़ी पर बना हुआ है। शांति स्तूप के निकट ही वेणु वन है। कहा जाता है कि बुद्ध एक बार यहां आए थे। राजगीर में ही प्रसिद्ध सप्तपर्णी गुफा है, जहां बुद्ध के निर्वाण के बाद पहले बौद्ध सम्मेलन का आयोजन किया गया था।
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सारनाथ : यह स्थान उत्तरप्रदेश के वाराणसी के पास स्थित है, जहां बुद्ध ने ज्ञान प्राप्त करने के बाद अपना पहला उपदेश दिया था।
वाराणसी को काशी और बनारस भी कहते हैं। बनारस छावनी स्टेशन से पांच मील, बनारस सिटी स्टेशन से तीन मील और सड़क मार्ग से सारनाथ चार मील पड़ता है। यह पूर्वोत्तर रेलवे का स्टेशन है और बनारस से यहां जाने के लिए सवारियां- तांगा, रिक्शा आदि मिलते हैं। सारनाथ में बौद्ध धर्मशाला है। यह बौद्ध तीर्थ है।
भगवान बुद्ध ने अपना प्रथम उपदेश यहीं दिया था। यहीं से उन्होंने धम्मचक्र प्रवर्तन प्रारंभ किया था। सारनाथ की दर्शनीय वस्तुएं हैं- अशोक का चतुर्मुख सिंह स्तंभ, भगवान बुद्ध का मंदिर (यही यहां का प्रधान मंदिर है), धमेख स्तूप, चौखंडी स्तूप, सारनाथ का वस्तु संग्रहालय, जैन मंदिर, मूलगंधकुटी और नवीन विहार।
सारनाथ बौद्ध धर्म का प्रधान केंद्र था किंतु मोहम्मद गोरी ने आक्रमण करके इसे नष्ट-भ्रष्ट कर दिया। वह यहां की स्वर्ण मूर्तियां उठा ले गया और कलापूर्ण मूर्तियों को उसने तोड़ डाला फलतः सारनाथ उजाड़ हो गया। केवल धमेख स्तूप टूटी-फूटी दशा में बचा रहा। यह स्थान चरागाह मात्र रह गया था।
सन् 1905 ई. में पुरातत्व विभाग ने यहां खुदाई का काम प्रारंभ किया। इतिहास के विद्वानों तथा बौद्ध धर्म के अनुयायियों का इधर ध्यान गया। तब से सारनाथ महत्व प्राप्त करने लगा। इसका जीर्णोद्धार हुआ। यहां वस्तु संग्रहालय स्थापित हुआ, नवीन विहार निर्मित हुआ, भगवान बुद्ध का मंदिर और बौद्ध धर्मशाला बनी। सारनाथ अब बराबर विस्तृत होता जा रहा है।
जैन ग्रंथों में इसे सिंहपुर कहा गया है। जैन धर्मावलंबी इसे अतिशय क्षेत्र मानते हैं। श्रेयांसनाथ के यहां गर्भ, जन्म और तप- ये तीन कल्याण हुए हैं। यहां श्रेयांसनाथजी की प्रतिमा भी है यहां के जैन मंदिरों में। इस मंदिर के सामने ही अशोक स्तंभ हैं।
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कुशीनगर : उत्तरप्रदेश के देवरिया जिले में स्थित इसी स्थान पर महात्मा बुद्ध का महापरिनिर्वाण (मोक्ष) हुआ था। गोरखपुर जिले में कसिया नामक स्थान ही प्राचीन कुशीनगर है। यहां पर बुद्ध के आठ स्तूपों में से एक स्तूप बना है, जहां बुद्ध की अस्थियां रखी थीं।
गोरखपुर से कसिया (कुशीनगर) 36 मील है। यहां तक गोरखपुर से पक्की सड़क गई है जिस पर मोटर-बस चलती है। यहां बिड़लाजी की धर्मशाला है तथा भगवान बुद्ध का स्मारक है। यहां खुदाई से निकली मूर्तियों के अतिरिक्त माथाकुंवर का कोटा 'परिनिर्वाण स्तूप' तथा 'विहार स्तूप' दर्शनीय हैं। 80 वर्ष की अवस्था में तथागत बुद्ध ने दो शाल वृक्षों के मध्य यहां महापरिनिर्वाण प्राप्त किया था। यह प्रसिद्ध बौद्ध तीर्थ है।
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श्रावस्ती का स्तूप : पूर्वोत्तर रेलवे की गोरखपुर-गोंडा लाइन पर स्थित बलरामपुर स्टेशन से 12 मील पश्चिम में सहेठ-महेठ ग्राम ही प्राचीन श्रावस्ती है। यह कोसल देश की राजधानी थी। भगवान श्रीराम के पुत्र लव ने इसे अपनी राजधानी बनाया था। कुछ लोगों का मत है कि महाभारत युद्ध के पश्चात युधिष्ठिर के अश्वमेध यज्ञ के अश्व की रक्षा करते हुए अर्जुन को यहीं के राजकुमार सुधन्वा से युद्ध करना पड़ा था।
श्रावस्ती बौद्ध एवं जैन दोनों का तीर्थ है। यहां बुद्ध ने चमत्कार दिखाया था। तथागत दीर्घकाल तक श्रावस्ती में रहे थे। अब यहां बौद्ध धर्मशाला है तथा बौद्ध मठ भी है। भगवान बुद्ध का मंदिर भी है।
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सांची का स्तूप : भोपाल से 28 मील दूर और भेलसा से 6 मील पूर्व सांची स्टेशन है। उदयगिरि से सांची पास ही है। यहां बौद्ध स्तूप हैं जिनमें एक की ऊंचाई 42 फुट है। सांची स्तूपों की कला प्रख्यात है।
सांची से 5 मील सोनारी के पास 8 बौद्ध स्तूप हैं और सांची से 7 मील पर भोजपुर के पास 37 बौद्ध स्तूप हैं। सांची में पहले बौद्ध विहार भी थे। यहां एक सरोवर है जिसकी सीढ़ियां बुद्ध के समय की कही जाती हैं।
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चंपानेर (पावागढ़) : पश्चिम रेलवे की मुंबई-दिल्ली लाइन में गुजरात प्रांत के बड़ौदा से 23 मील आगे चंपानेर रोड स्टेशन है। इस स्टेशन से एक लाइन पानी-माइंस तक जाती है। इस लाइन पर चंपानेर रोड से 12 मील पर पावागढ़ स्टेशन है। स्टेशन से पावागढ़ बस्ती लगभग एक मील दूर है। बड़ौदा या गोधरा से पावागढ़ तक मोटर-बस द्वारा भी आ सकते हैं।
पावागढ़ में प्रसिद्ध बौद्ध स्तूप हैं, जहां भगवान बुद्ध की अस्थियां रखी हुई है। यह आठ प्रमुख स्तूपों में से एक है। चंपानेर-पावागढ़ पुरातात्विक उद्यान एक युनेस्को विश्व धरोहर स्थल है।
पावागढ़ पहाड़ी के शिखर पर बना कालिका माता मंदिर हिन्दुओं के लिए अति पावन स्थल माना जाता है। यह 52 शक्तिपीठों में से एक है।
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कौशाम्बी : इलाहाबाद जिले में भरवारी स्टेशन से 16 मील पर स्थित यह नगरी यमुना नदी के किनारे बसी हुई थी। पर इस क्षेत्र में कोसम नाम का एक ग्राम है। यहां एक स्तूप के नीचे बुद्ध भगवान के केश तथा नख सुरक्षित हैं।
यहां स्थित प्रमुख पर्यटन स्थलों में शीतलामाता मंदिर, दुर्गा देवी मंदिर, प्रभाषगिरि और राम मंदिर विशेष रूप से प्रसिद्ध हैं। यह बौद्ध व जैन धर्म का भी पुराना केंद्र है। पहले यह जगह वत्स महाजनपद के राजा उदयन की राजधानी थी। माना जाता है कि बुद्ध छठे व नौवें वर्ष यहां घूमने के लिए आए थे। कौशाम्बी से एक कोस उत्तर-पश्चिम में एक छोटी पहाड़ी थी जिसकी प्लक्ष नामक गुफा में बुद्ध कई बार आए थे।
पुराणों के अनुसार हस्तिनापुर नरेश निचक्षु ने, जो परीक्षित का वंशज (युधिष्ठिर से 7वीं पीढ़ी में) था, हस्तिनापुर के गंगा द्वारा बहा दिए जाने पर अपनी राजधानी वत्स देश की कौशाम्बी नगरी में बनाई थी। इसी वंश की 26वीं पीढ़ी में बुद्ध के समय में कौशाम्बी का राजा उदयन था।
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पेशावर : पश्चिमी पाकिस्तान में प्रसिद्ध नगर है जिसे बौद्ध काल में पुरुषपुर कहा जाता था। यहां सबसे बड़े और ऊंचे स्तूप के नीचे से बुद्ध भगवान की अस्थियां खुदाई में निकली गई थीं। यह स्तूप सम्राट कनिष्क ने बनवाया था जिसे इस्लामिक आक्रांताओं ने पूरी तरह ध्वस्त कर दिया था।
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बामियान : अफगानिस्तान में बामियान क्षेत्र बौद्ध धर्म प्रचार का प्रमुख केंद्र था। इसे बौद्ध धर्म की राजधानी माना जाता था। बौद्ध काल में हिन्दूकुश पर्वत से लेकर कंदहार (कंधार) तक अनेक स्तूप थे जिन्हें इस्लामिक आक्रांताओं ने नष्ट कर दिया।
यहां बौद्ध धर्म से संबंधित अनेक गुफाएं हैं, जहां भगवान बुद्ध की विशालकाय मूर्तियां आज भी विद्यमान हैं। तालिबानियों ने इन मूर्तियों को तोप से तोड़कर खंडित कर दिया था।
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वैशाली : वैशाली गंगा घाटी का नगर है, जो आज के बिहार एवं बंगाल प्रांत के बीच स्थित है। वैशाली नगर की स्थापना इक्ष्वाकु वंश के राजा विशाल ने की थी इसलिए इसे 'विशाला' कहा जाता था जिसका उल्लेख वाल्मीकि रामायण में है। बाद में इसे 'वैशाली' कहा जाने लगा। प्राचीन नगर वैशाली के भग्नावशेष वर्तमान बसाढ़ नामक स्थान के निकट स्थित हैं, जो मुजफ्फरपुर से 20 मील दक्षिण-पश्चिम की ओर हैं।
गौतम बुद्ध के समय में तथा उनसे पूर्व लिच्छवी गणराज्य की राजधानी यहीं पर स्थित थी। यहां लिच्छवियों की एक शाखा वृजियों का संस्थागार था, जो उनका संसद सदन था। वैशाली के बाहर स्थित 'कूटागारशाला' में बुद्ध कई बार रहे थे। इसी स्थान पर अशोक ने एक प्रस्तर स्तंभ स्थापित किया था।
यहां पर बौद्ध धर्म के प्रमुख चैत्यगृह थे। बुद्ध को यह स्थान बड़ा ही प्रिय था। जैन धर्म के प्रवर्तक महावीर स्वामी का जन्म इसी नगरी में हुआ था अत: वे लोग इस पुरी को 'महावीर जननी' कहते थे।
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द्वारिका : यह भारत की सात पवित्र पुरियों में से एक है। द्वारिका को भगवान कृष्ण ने बसाया था। द्वारिका क्षेत्र को पहले कुशस्थली कहा जाता था। पौराणिक कथाओं के अनुसार महाराजा रैवतक के समुद्र में कुश बिछाकर यज्ञ करने के कारण ही इस नगरी का नाम कुशस्थली हुआ था। इस स्थल के नष्ट हो जाने के बाद श्रीकृष्ण ने इस फिर से निर्मित किया और यहां आबादी बसाई।
द्वारिका में ही गोमती द्वारका और बेट द्वारिका नामक दो स्थान है। बेट द्वारका के लिए समुद्र मार्ग से जाना पड़ता है। माना जाता है कि यहीं कहीं पर एक स्तूप में बुद्ध की अस्थियां सुरक्षित रखी गई थीं, लेकिन इसके कोई चिह्न नजर नहीं आते।
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कश्मीर था बौद्ध गढ़ : प्राचीनकाल में कश्मीर बौद्ध धर्म का पालनहार रहा है। यहां से होकर गए सिल्क रूट से ही बौद्ध धर्म के अनुयायी और भिक्षु चीन, तिब्बत और दूसरी ओर मध्य एशिया में आया-जाया करते थे। चतुर्थ बौद्ध संगीति कश्मीर में हुई थी। प्रथम बौद्ध संगीति 483 ईपू राजगृह में, द्वितीय बौद्ध संगीति वैशाली में, तृतीय बौद्ध संगीति 249 ईपू को पाटलीपुत्र में हुई थी।
चतुर्थ और अंतिम बौद्ध संगीति कुषाण सम्राट कनिष्क के शासनकाल (लगभग 120-144 ई.) में हुई। यह संगीति कश्मीर के 'कुण्डल वन' में आयोजित की गई थी। इस संगीति में 500 बौद्ध विद्वानों ने भाग लिया और त्रिपिटक का पुन: संकलन व संस्करण हुआ।
कश्मीर के बारामूला, गुलमर्ग, परिहास पोरा, हार वन, कानिसपोरा, उशकुरा में बौद्ध मठों के खंडहर आज भी मौजूद हैं। इन स्थानों का ऐतिहासिक महत्व है और विश्व में फैले बौद्ध समुदाय का इनसे लगाव है। बौद्ध मठ परिहास पोर कस्बे में है, जो श्रीनगर से मात्र 26 किलोमीटर की दूरी पर है।
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अमरावती : दक्षिण भारत के आंध्रप्रदेश में भी कई प्राचीन बौद्ध स्थल हैं। गुंटूर जिले में कृष्णा नदी के तट पर बसा अमरावती ऐसा ही खास स्थल है। यहां का प्रमुख आकर्षण महाचैत्य स्तूप है। यहां संग्रहालय में रखी भगवान बुद्ध की आदमकद प्रतिमा तथा यहां से प्राप्त मेधि पट्टिका एवं अलंकृत स्तंभ भी दर्शनीय हैं।
हैदराबाद से करीब 150 किमी दूर हरी-भरी पहाड़ियों के मध्य नागार्जुन कोंडा भी बौद्ध परिपथ का हिस्सा है। स्तूप, चैत्यगृह, विहार एवं मंडप आदि के रूप में यहां बौद्ध कला एवं संस्कृति का खजाना देखने को मिलता है।
उधर उड़ीसा में बौद्ध संस्कृति के प्रमाण ललितगिरि, रत्नागिरि एवं उदयगिरि में आज भी मौजूद हैं। भुवनेश्वर के निकट स्थित इन स्थलों के अलावा धौलागिरि पहाड़ी पर एक आधुनिक विश्व शांति स्तूप भी भव्य एवं दर्शनीय है।
महाराष्ट्र में काली गुफाएं, कन्हेरी गुफाएं, जूनार गुफाएं तथा अजंता गुफाएं भी अपने अंदर छिपे बौद्ध धर्म के संदेश एवं भित्तिचित्रों के कारण सैलानियों को आमंत्रित करती हैं। बौद्ध धर्म की मान्यताओं एवं परंपराओं से जुड़े कई स्थल देश के पर्वतीय राज्यों में भी हैं।
जम्मू-कश्मीर के लद्दाख क्षेत्र में ही तेरह गोंपा हैं। इनमें सबसे प्रमुख हेमिसगोंपा है, जहां हर वर्ष हेमिस उत्सव मनाया जाता है। हिमाचल की ताबो तथा की मोनेस्ट्री तो हजार वर्ष पुरानी हैं। ये आज भी बौद्ध धर्मावलंबियों को आकर्षित करती हैं। इसी तरह सिक्किम का रुमटेक मठ भी तिब्बती प्रभाव की बौद्ध परंपराओं से जुड़ा है।
पर्यटकों के लिए इतनी बड़ी बौद्ध परिक्रमा एक बार में तो संभव नहीं है, लेकिन फिर भी आज विश्वभर के सैलानी बड़ी संख्या में इन स्थानों पर पहुंचते हैं, विशेषकर उन देशों के लोग तो बार-बार आते हैं, जहां बौद्ध धर्म का विशेष प्रभाव है।
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नालंदा : बौद्ध विश्वविद्यालय नालंदा को देश का प्राचीनतम विश्वविद्यालय माना जाता है, यह पटना के निकट है। भगवान बुद्ध अपने जीवन में कई बार नालंदा आए थे। यह स्थान न केवल ज्ञान, बल्कि विभिन्न कलाओं का केंद्र भी रहा है। यहां एक ओर बौद्ध विहारों की कतार है तो दूसरी ओर छोटे स्तूपों से घिरे कुछ मंदिर हैं।
नालंदा में पुरातत्व संग्रहालय में भी बौद्ध धर्म के देवी-देवता तथा भगवान बुद्ध की प्रतिमा अत्यंत दर्शनीय हैं। इनके अलावा भागलपुर के निकट विक्रमशिला के अवशेष, फर्रुखाबाद जिले में काली नदी के तट पर प्राचीन संकाश्य के स्मारक, लखनऊ से 134 किमी दूर श्रावस्ती के स्तूप एवं विहारों के खंडहर तथा इलाहाबाद से 54 किमी दूर प्राचीन शहर कौशाम्बी के अवशेष भी बौद्ध धर्मस्थलों की यात्रा पर निकले सैलानियों को आकर्षित करते हैं।
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तक्षशिला : तक्षशिला नगर वर्तमान पाकिस्तान की राजधानी रावलपिंडी से 18 मील उत्तर की ओर स्थित था। श्रीराम के भाई भरत के पुत्र तक्ष ने उस नगर की स्थापना की थी। इस नगर में एक विश्वप्रसिद्ध विश्वविद्यालय भी था।
प्राचीन भारतीय साहित्य के अनुसार पाणिनी, कौटिल्य, चन्द्रगुप्त, जीवक, कौशलराज, प्रसेनजित आदि महापुरुषों ने इसी विश्वविद्यालय से शिक्षा प्राप्त की। प्रसिद्ध विद्वान, चिंतक, कूटनीतिज्ञ, अर्थशास्त्री चाणक्य ने भी अपनी शिक्षा यहीं पूर्ण की थी। अंततः छठी शताब्दी में इसे इस्लामिक आक्रमणकारियों द्वारा पूरी तरह नष्ट कर दिया गया।
तक्षशिला में कई बौद्ध स्तूप, विहार, मंदिर आदि थे।
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पाटलीपुत्र : बिहार की राजधानी आज के 'पटना' को प्राचीनकाल में 'पाटलीपुत्र' कहा जाता था, जो भारत के प्रमुख नगरों में गिना जाता था। गौतम बुद्ध के जीवनकाल में बिहार में गंगा के उत्तर की ओर लिच्छवियों का 'वृज्जि गणराज्य' तथा दक्षिण की ओर 'मगध' का राज्य था।
बुद्ध जब अंतिम बार मगध गए थे तो गंगा और शोण नदियों के संगम के पास 'पाटली' नामक ग्राम बसा हुआ था, जो 'पाटल' या 'ढाक' के वृक्षों से आच्छादित था। यह नगर मगध साम्राज्य की राजधानी रहा है।