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Last Updated : मंगलवार, 24 दिसंबर 2024 (13:10 IST)

श्याम बेनेगल का मयूरपंखी फिल्म-सफर: विद्रोही तेवर, मध्यमार्गी फिल्म और सार्थक लोकप्रिय सिनेमा

श्याम बेनेगल का निर्देशकीय करियर तीन भागों में विभक्त किया जा सकता है

श्याम बेनेगल का मयूरपंखी फिल्म-सफर: विद्रोही तेवर, मध्यमार्गी फिल्म और सार्थक लोकप्रिय सिनेमा - shyam bengal and his classic movies a treat to watch
श्याम बेनेगल का निर्देशकीय करियर तीन भागों में विभक्त किया जा सकता है। सत्तर और अस्सी के दशक में उन्होंने 'अंकुर' और 'निशांत' जैसी विद्रोही तेवर वाली फिल्मों का निर्देशन किया। इसके बाद वे 'कलयुग' तथा 'त्रिकाल' जैसी मध्यमार्गी फिल्मों की ओर लौटे, जिनमें प्रयोगवाद था। पिछले बरसों में 'मम्मो', 'सरदारी बेगम' और 'जुबैदा' जैसी फिल्मों का निर्देशन किया। इन्हें सार्थक लोकप्रिय सिनेमा के नाम से पुकारा गया।
 
अंकुर से मचा दी थी हलचल 
सन्‌ 1974 में निर्मित अपनी पहली ही फिल्म 'अंकुर' से श्याम ने सिने जगत में हलचल मचा दी। तेलंगाना (आंध्रप्रदेश) के कृषक विद्रोह की पृष्ठभूमि में निर्मित इस फिल्म ने सिनेमा को राजनीतिक, सामाजिक धरातल पर अभिनव अर्थ प्रदान किए। फिल्म का प्रमुख पात्र सूर्या (अनंत नाग) एक उच्चवर्गीय किसान परिवार का कॉलेज में पढ़ने वाला रसिक नौजवान है। उसकी शादी एक ऐसी लड़की से कर दी जाती है जो अभी कौमार्यावस्था तक भी नहीं पहुँची। सूर्या एकाकीपन से तंग आकर अपनी नौकरानी लक्ष्मी (शबाना) से घनिष्ठता स्थापित करना चाहता है, जिसका मूक-बधिर मानसिक रूप से अल्प विकसित पति किश्त्या (साधु मेहर) पशु चुराने के आरोप से घबराकर घर छोड़कर भाग जाता है।
 
आरंभ में सूर्या की कोशिशों के आगे सिर न झुकाने वाली लक्ष्मी अंततः उसके चंगुल में आ जाती है। इसी बीच किश्त्या एक दिन अचानक लौटता है और सूर्या के हाथों उसकी पिटाई होती है। पति के इस अपमान से क्षुब्ध लक्ष्मी अपनी वर्जनाएँ तोड़ सूर्या और उसके परिवार की तानाशाही को खूब खरी-खोटी सुनाती है। उधर किश्त्या अपनी पत्नी के गर्भ में पल रहे पुत्र की खुशी नहीं समेट पाता, जो सचाई में सूर्या की संतान है।
 
फिल्म के अंतिम दृश्य में एक बच्चा सूर्या की हवेली पर पत्थर फेंकता है। क्रांति का यह नवांकुर शोषण की उपज है। 'अंकुर' ने बर्लिन, स्टार्टफोर्ड, लंदन फिल्मोत्सवों में शामिल होकर 43 राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय सम्मान जीते। अंकुर की शूटिंग हैदराबाद से 24 कि.मी. दूर येलरेद्दिगुडा में की गई थी।
 
सच्ची घटना पर आधारित निशांत 
बेनेगल की दूसरी फिल्म 'निशांत' 1945 में घटित एक सच्ची घटना पर आधारित थी। यह उन दिनों की कहानी है, जब जमींदार प्रथा अपने शिखर पर थी। गाँव का एक जमींदार परिवार अपनी समृद्धि के बूते पर ग्रामीणों का दमन करता है। एक स्कूल अध्यापक की इस गाँव में नियुक्ति होती है, जो अपनी पत्नी के साथ यहाँ आता है।
 
अध्यापक की पत्नी पर बुरी नजर रखने वाले जमींदार के चार भाई उसे अगुवा कर लेते हैं। काफी दिन उसकी तलाश में भटकने और पुलिस के आगे गिड़गिड़ाने के बाद अचानक एक दिन अध्यापक को उसकी पत्नी मिलती है और अपने पति की कायरता के लिए उसे खरी-खोटी सुनाती है।
 
पति अपने स्वाभिमान को जगाकर ग्रामीणों को जमींदार के विरुद्ध संघर्ष हेतु उकसाता है। यह जानकर उसे हैरत होती है कि उसकी पत्नी जमींदार के छोटे पुत्र के प्रति आकर्षण रखने लगी है। उत्तेजित ग्रामीण इस परिवार पर हमला करते हैं और इसके सदस्यों को मौत के घाट उतार देते हैं।
 
'निशांत' कान और लंदन फिल्म समारोह में प्रदर्शित होने के बाद मेलबोर्न फेस्टिवल में गोल्डन फ्लेम पुरस्कार से सम्मानित की गई। विश्व फिल्म पत्रिका ने इसे सर्वश्रेष्ठ फिल्म, पटकथा और श्रेष्ठ सहायक अभिनेत्री का पुरस्कार दिया। फिल्म में गिरीश कर्नाड, अमरीश पुरी, अनंत नाग और शबाना आजमी की प्रमुख भूमिकाएँ थीं।
 
बाल फिल्म चरणदार चोर 
1975 में श्याम ने एक बाल फिल्म 'चरणदास चोर' बनाई, लेकिन उनका मूल लक्ष्य अगले वर्ष अर्थात 1976 में पूरा हुआ, जब उन्होंने राय की तरह अपनी सिने-त्रयी का निर्माण किया। अंकुर और निशांत के बाद मंथन इसकी तीसरी कड़ी थी। उनकी इस फिल्म का प्रसारण चीन के राष्ट्रीय टेलीविजन नेटवर्क पर किया गया।
 
मंथन: विकासशील देशों के जमीनी परिवर्तन का महत्वपूर्ण दस्तावेज
'मंथन' गुजरात के विश्व चर्चित दुग्ध सहकारिता आंदोलन के जनक डॉ. वर्गीस कुरियन के जीवन से प्रेरित थी। गुरात के दूरस्थ गाँव में डॉ. राव (गिरीश कर्नाड) दुग्ध सहकारिता संघ की स्थापना करना चाहते हैं, ताकि छोटे उत्पादकों को भी लाभ पहुँचे। इससे बड़े दुग्ध उत्पादक और दलाल जैसे मिश्राजी (अमरीश पुरी) खफा हो जाते हैं और साजिश रचते हैं।
 
डॉ. राव एक ग्रामीण महिला बिंदू (स्मिता पाटिल) की ओर आकर्षित है। बिन्दू का पति मिश्रा के उकसाने पर डॉ. राव को षड्यंत्र का शिकार बनाने में सहयोग करता है। समूचा दुग्ध आंदोलन एक साजिश का शिकार बनता नजर आता है, मगर अंततः एक अस्पृश्य गरीब व्यक्ति भोला (नासीर) अपने साथी मोती के साथ मिलकर इस आंदोलन की ज्योति जगाए रखने में सफल होता है।
 
फिल्म में वनराज भाटिया का संगीत और विशेषकर गीत 'म्हारो गाँव काठियावाड़' बेहद लोकप्रिय हुआ। मंथन के लिए दुग्ध उत्पादकों से वित्त जुटाने का सुझाव डॉ. कुरियन का था। इस फिल्म का सामूहिक अवलोकन यूएनडीपी (संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम) के द्वारा आयोजित किया गया।
 
दरअसल मंथन विकासशील देशों के जमीनी परिवर्तन का महत्वपूर्ण दस्तावेज है। इसलिए इसे तृतीय सिनेमा की प्रतिनिधि कृति भी निरूपित किया गया। फिल्म को सर्वश्रेष्ठ हिन्दी फिल्म के राष्ट्रीय अवॉर्ड के अलावा अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोह से आमंत्रण भी प्राप्त हुआ। मंथन के साथ ही बेनेगल की चर्चित ग्रामीण सिने-त्रयी पूरी हुई।
 
भूमिका: नारीवादी आंदोलन की प्रतिनिधि कृति
बेनेगल के आरंभिक निर्देशकीय करियर की एक चर्चित फिल्म 'भूमिका' (1977) मराठी रंगमंच की ख्यात अदाकार हंसा वाडकर के जीवन पर आधारित थी। स्मिता पाटिल, अमरीश पुरी, नसीर, अनंत नाग, कुलभूषण खरबंदा अभिनीत इस फिल्म का निर्माण ब्लेज एडवरटाइजिंग एजेंसी के बैनर तले किया गया।
 
अपने शराबी पिता और तानशाह परिवार की गिरफ्त से छूटकर उषा गायिका और अभिनेत्री बनती है और व्यापार में घाटा उठा रहे केशव से शादी कर लेती है। उसकी जिंदगी में राजन काले और सुनील वर्मा जैसे अन्य पुरुष भी आते हैं। पति के शक्की मिजाज और फिल्म जगत के चतुर-चालाक लोगों की संगत के फलस्वरूप उषा भी एक सयानी महिला बन अंततः एकाकी जीवन गुजारने का फैसला करती है।
 
'भूमिका' को सर्वश्रेष्ठ फिल्म और अभिनेत्री के राष्ट्रीय अवार्ड के अल्जीरिया में आयोजित फेस्टिवल ऑफ इमेज ऑफ वूमन हेतु आमंत्रित किया गया। इस विवादास्पद फिल्म को भारत में नारीवादी आंदोलन की प्रतिनिधि कृति के बतौर देखा गया।

 
जुनून और कलयुग 
अभिनेता शशिकपूर के साथ श्याम की मित्रता के फलस्वरूप दो उल्लेखनीय फिल्में 'जुनून' और 'कलयुग' का निर्माण हुआ। रस्किन बांड की कहानी पर आधारित 'जुनून' (1978) 1857 के सिपाही विद्रोह की पृष्ठभूमि में फिल्माई गई। उत्तर भारत के एक इलाके में पठान जावेद खान की नजर अंगरेज युवती रूथ पर है, जो अपनी माँ के साथ सैन्य छावनी में रहती है। जावेद उसे अपनी दूसरी पत्नी बनाना चाहता है, जिसके लिए उसकी पहली पत्नी तैयार नहीं। इसी बीच दिल्ली में सिपाही बगावत की खबरें मिलती हैं।
 
क्रांति की उथल-पुथल में रूथ जावेद की नजरों से दूर हो जाती है। जावेद इस बगावत में शामिल होने के प्रति अनिच्छा दर्शाता है, जबकि पूरा देश इस क्रांति की गिरफ्त में है। आखिर जावेद के एक जंग में मारे जाने की खबर मिलती है और रूथ अविवाहित रहकर इंग्लैंड चली जाती है।
 
'जुनून' में शशि के साथ उनकी पत्नी जैनिफर कैंडल ने भी काम किया था। इस फिल्म को वर्ष 1979 में सर्वश्रेष्ठ फिल्म, छायांकन और ध्वनि संयोजन के राष्ट्रीय पुरस्कारों से नवाजा गया। शशि और बेनेगल की सहभागिता उनकी दूसरी फिल्म कलयुग (1981) में भी नजर आई, जो दो चचेरे भाइयों की पारिवारिक और व्यावसायिक प्रतिद्वंद्विता पर आधारित थी। मॉस्को फिल्मोत्सव में प्रदर्शित 'कलयुग' में शशिकपूर के अलावा बांग्ला अभिनेता विक्टर बैनर्जी की प्रमुख भूमिका थी। 'कलयुग' में कुछ हद तक बेनेगल ने व्यावसायिक सिनेमा के तटों को छूने की असफल कोशिश की।
 
प्रतिभा का आरोहण
1982 में प्रदर्शित बेनेगल की फिल्म 'आरोहण' 1967 से 1977 के कालखंड की पृष्ठभूमि में दिहाड़ी पर फसल काटने वाले निर्धन श्रमिक हरि मंडल की कहानी है, जो अपनी बंधुआ मजदूर जैसी हालत से तंग आकर सामंती व्यवस्था के विरुद्ध राजनीति, सामाजिक चेतना से भर उठता है। भूमि सुधार कानून और उसकी उपादेयता के प्रश्न को टटोलने वाली यह फिल्म सर्वश्रेष्ठ हिन्दी फिल्म के राष्ट्रीय अवार्ड से सम्मानित की गई। इसे कार्लोवी वेरी फिल्मोत्सव में भी पुरस्कार मिला। फिल्म में अभिनेता ओमपुरी का अभिनय लाजवाब था।
 
मंडी: जहाँ आत्मा भी खरीदी जा सकती है
आरोहण के बाद बेनेगल ने सर्वथा भिन्न विषय पर अपनी विवादास्पद फिल्म 'मंडी' का निर्माण किया। बेनेगल के अनुसार वे एक व्यंग्यात्मक फिल्म बनाना चाहते थे, जो समाज के दोहरे मानदंडों पर प्रहार करती हो। छोटे से कस्बे पुरंतनपल्ली की आरामतलब प्राचीन बसाहट का स्थान तिकड़मी व्यापारी व्यवस्था लेना चाहती है।
 
इस उजड़ते माहौल की चपेट में रुक्मणीबाई (शबाना आजमी) का कोठा भी आता है, जहाँ कई वेश्याएँ कभी ग्राहकों, तो कभी पुलिस के अत्याचार का सबब बनती हैं। दीन दुनिया से यह अलग अनूठी देह की मंडी है, जहाँ आत्मा भी खरीदी जा सकती है। शबाना, स्मिता पाटिल, ओमपुरी, नसीरुद्दीन शाह, कुलभूषण खरबंदा जैसे कला सिनेमा के सभी प्रमुख कलाकार इस फिल्म में मौजूद थे। इसे श्रेष्ठ कला निर्देशन का राष्ट्रीय पुरस्कार मिला था।
 
त्रिकाल: वर्तमान में दबा अतीत 
गोआ में एक मित्र के जीर्ण-शीर्ण अवस्था में पहुँच चुके पैतृक घर का अवलोकन करते हुए श्याम को अनुभव हुआ कि वर्तमान में अतीत किस कदर गहरे दबा हुआ है। उन्होंने इसी विषय को अपनी फिल्म त्रिकाल (1984) में रेखांकित किया। इसकी पटकथा भी उन्होंने ही लिखी।
 
त्रिकाल गोआ के मुक्ति संघर्ष और पुर्तगाली आधिपत्य की पृष्ठभूमि में फिल्माया गया एक सिनेमाई दस्तावेज था, जिसमें भूत, भविष्य और वर्तमान की सामयिक प्रश्नों को उठाने की चेष्टा की गई। इस प्रयोगवादी फिल्म में लीला नायडू, नसीरुद्दीन शाह, नीता गुप्ता ने प्रमुख भूमिकाएँ निभाईं। प्रौढ़ावस्था में प्रवेश कर चुका रूज परेरा अपने पैतृक स्थान गोआ लौटकर चकित रह जाता है कि किस तरह समय ने करवट ली है। अतीत के स्मरण की प्रक्रिया में वह कई ‍िदलचस्प परिस्थितियों से गुजरता है।
 
त्रिकाल सर्वश्रेष्ठ निर्देशन के राष्ट्रीय अवार्ड से सम्मानित की गई। इसे लिस्बन तथा लंदन फिल्म समारोह में भी प्रदर्शित किया गया। वृद्धा मारिया सोरेस की भूमिका में अभिनेत्री लीला नायडू का अभिनय फिल्म का मुख्य आकर्षण था।
 
सुस्मन: बुनकरों का दुःख-दर्द
यदि 'मंथन' में श्याम ने दुग्ध उत्पादकों के जीवन संघर्ष की दास्तान बयान की, तो 'सुस्मन' (1986) में वे बुनकरों का दुःख-दर्द लेकर आए। आंध्रप्रदेश के पोचमपल्ली गाँव के बुनकर परिवार का रामुलु (ओमपुरी) अपने भाई लक्षम्या के साथ जीवन-यापन कर रहा है। पॉवरलूम के आने और हथकरघा उद्योग में सहकारिता व्यवस्था के भ्रष्ट स्वरूप के बीच रामुलु खुद को असहाय महसूस करता है। अंततः उसके हुनर की जीत होती है और उसकी कृतियों की प्रदर्शनी पेरिस में लगाई जाती है।

 
फिल्म के वृत्तांत निरूपण हेतु संत कबीर की वाणी का वाचन पृष्ठभूमि में किया गया है, जो 16वीं सदी के जुलाहे संत थे। इस फिल्म के लिए अभिनेता ओमपुरी ने खुद कपड़ा बुनना सीखा। उन्होंने हाथ से एक साड़ी बुनकर श्याम की पत्नी की भेंट की थी।
 
अंतर्नाद: ग्रामीण स्वाध्याय आंदोलन की सचाई
श्याम की कमोबेश हर फिल्म किसी न किसी सामाजिक घटनाक्रम से प्रेरित रही। 'मंथन' में यदि उन्होंने दुग्ध सहकारिता के फायदे गिनाए तो 'सुस्मन' में सहकारिता के विकृत होते स्वरूप पर प्रश्नचिह्न भी खड़े किए। इससे स्पष्ट है कि एक उम्दा रचनाकार निरंतर अपनी विचारधारा को बाधित नहीं होने देता।
 
1991 में निर्मित अपनी फिल्म 'अंतर्नाद' में बेनेगल ने ग्रामीण स्वाध्याय आंदोलन की सचाई जानने की कोशिश की। 1950 के दशक में पंडित पांडुरंग शास्त्री आठवले ने भक्ति और स्वाध्याय के जरिए समाज के समग्र विकास की अलख जगाई थी। 15 हजार गाँवों के अनेक ग्रामीणों ने इस प्रथा को अपनाया और सामाजिक क्रांति का उद्घोष किया। शबाना आजमी, के. रैना, कुलभूषण खरबंदा जैसे कलाकारों ने 'अंतर्नाद' में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। अस्पृश्यता उन्मूलन, साक्षरता जैसे कई मुद्दों का विश्लेषण करने वाली यह फिल्म ज्यादा चर्चित नहीं हुई, पर इसे समीक्षकों ने सराहा।
 
सूरज का सातवाँ घोड़ा: सत्य के विभिन्न पहलुओं का अन्वेषण
साहित्यिक कृतियों पर फिल्म निर्माण का श्याम द्वारा किया गया प्रयास काफी पसंद किया गया। धर्मवीर भारती के उपन्यास पर आधारित उनकी फिल्म 'सूरज का सातवाँ घोड़ा' (1992) दिल खोलकर समीक्षकों द्वारा सराही गई। अपने करियर की शुरुआत फिल्मों में श्याम ने जीवन के विरूप सचाइयों को उनकी जमीन से उठाने की कोशिश की थी। करियर में विकास के साथ वे दार्शनिक प्रश्नों को टटोलने की चेष्टा भी करने लगे। 'सूरज का सातवाँ घोड़ा' एक ऐसी ही कोशिश के तहत सत्य के विभिन्न पहलुओं का अन्वेषण करती है।
 
माणक मुल्ला (रजत कपूर) अपने कस्बे के नौजवानों के साथ अपनी जिंदगी के किस्से सुनाकर यह महत्वपूर्ण प्रश्न खड़ा करता है कि क्या सत्या सचमुच एकपक्षीय होता है अथवा उसकी भिन्न व्याख्याएँ की जा सकती हैं। जमुना (राजेश्वरी सचदेव), लिली (पल्लवी जोशी), सती (नीना गुप्ता) और तन्ना (वीरेन्द्र सक्सेना) की उपकथाओं के जरिए मूलकथा को एक सूत्र में पिरोने की यह कोशिश चमत्कृत करती है।
 
निम्न जाति की युवती सती का संघर्ष माणक मुल्ला की भीरुता, जमुना के निर्भीक प्रेम आदि की पृष्ठभूमि में कस्बाई जीवन की लय खूबसूरती से स्पंदित होती है। 'सूरज का सातवाँ घोड़ा' 1993 में सर्वश्रेष्ठ फिल्म के राष्ट्रीय अवार्ड से पुरस्कृत होने के अलावा कई अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोहों में सराही गई है। सिंगापुर फिल्मोत्सव में भी इसने सर्वश्रेष्ठ फिल्म का अवार्ड जीता।
 
मम्मो से जुबैदा
एक संवेदनशील फिल्मकार के बतौर बदलते परिदृश्य में श्याम बेनेगल ने मुस्लिम पृष्ठभूमि पर आधारित अपनी सिनेत्रयी 'मम्मो', 'सरदारी बेगम' और 'जुबैदा' का निर्माण किया। 1992 के मुंबई दंगों और बाबरी मस्जिद विध्वंस की पृष्ठभूमि में उन्होंने अपनी फिल्म 'मम्मो' (1994) का निर्माण किया। इस फिल्म के जरिए उन्होंने विभाजन से उपजी विसंगतियों की ओर ध्यान खींचने की चेष्टा की, जिसके फलस्वरूप कई मानवीय त्रासदियाँ जन्म लेती हैं।
 
दरअसल मम्मो (दादी माँ) का विचार उन्हें टाइम्स ऑफ इंडिया में छपी एक छोटी-सी खबर से सूझा। जिसके अनुसार देश के बँटवारे के समय विवाह के बाद लाहौर जा बसी एक मुस्लिम महिला को भारत में छूटे अपने रिश्तेदारों से मिलने हेतु कितनी परेशानी का सामना करना पड़ता है। श्याम यह विचार लेकर पत्रकार खालिद मोहम्मद के पास पहुँचे, जो उनकी पुरानी फिल्मों 'भूमिका' और 'अंकुर' की अपनी टिप्पणियों में जमकर आलोचना कर चुके थे। 'मम्मो' की पटकथा श्याम के अनुरोध पर खालिद ने लिखी।
 
फरीदा जलाल और सुरेखा सीकरी की फिल्म में प्रमुख भूमिकाएँ थीं। 'मम्मो' को सर्वश्रेष्ठ हिन्दी फिल्म और सहायक अभिनेत्री का राष्ट्रीय अवार्ड मिला। 'मम्मो' के बाद मुस्लिम परिवेश पर अपनी अगली फिल्म 'सरदारी बेगम' के निर्माण से पूर्व बेनेगल ने अपने राष्ट्रनायक महात्मा गाँधी के आरंभिक जीवनकाल पर बहुप्रशंसित फिल्म 'मेकर ऑफ महात्मा' (1995) का निर्माण किया। इसमें गाँधीजी के दक्षिण अफ्रीका प्रवास और आरंभिक जीवन संघर्ष का चित्रण है। रजत कपूर का अभिनय और अशोक मेहता का छायांकन फिल्म का प्रमुख आकर्षण था।
 
खालिद मोहम्मद की कहानी पर बेनेगल ने अपनी अगली फिल्म 'सरदारी बेगम' (1996) में पुरानी दिल्ली की एक हवेली में रहने वाली प्रौढ़ गायिका के जीवन को रेखांकित किया, जिसे समाज नगरवधू मानता है। हिन्दू-मुस्लिम फसाद की आँच में सरदारी की मृत्यु हो जाती है, जो अपनी बेटी के साथ इस मकान में रहा करती थी।
 
एक पत्रकार युवती तहजीब सरदारी की मृत्यु और उसके जीवन के रहस्यों की पड़ताल करते हुए यह जानकर हैरत में पड़ जाती है कि सरदारी बैगम वास्तव में उसकी चाची थी। कठोर मुस्लिम पारिवारिक नियमों के चलते सरदारी के ठुमरी यन प्रेम को नीची नजरों से देखा गया और उन्हें कला की साधना के लिए घर छोड़ना पड़ा। युवा और प्रौढ़ सरदारी की भूमिका में स्मृति मिश्रा तथा किरण खैर का अभिनय फिल्म की विशेषता है।
 
सरदारी बेगम को श्रेष्ठ उर्दू फिल्म के राष्ट्रीय सम्मान के साथ ज्यूरी का विशेष अवार्ड भी मिला। श्याम ने इसके बाद मध्यप्रदेश के एक गाँव में दलित उत्पीड़न की सच्ची घटना पर आधारित फिल्म 'समर' (1998) का निर्माण किया। रजत कपूर, रघुवीर यादव, सीमा विश्वास की इसमें मुख्य भूमिकाएँ हैं। फिल्म को 1998 में सर्वश्रेष्ठ फिल्म का राष्ट्रीय अवार्ड मिला। समर सामाजिक न्याय मंत्रालय और सशक्तीकरण मंत्रालय द्वारा किया गया था।
 
वर्ष 2000 में श्याम बेनेगल ने दो सर्वथा विषयवस्तु वाली फिल्मों का निर्माण किया। जहाँ 'हरी भरी' एक सामाजिक संदेशपरक फिल्म थी, वहीं 'जुबैदा' बड़े बजट वाली एक मल्टी स्टार प्रस्तुति के बतौर सामने आई। सुरेखा सीकरी, नंदिता दास, शबाना आजमी अभिनीत 'हरी भरी' पाँच मुस्लिम स्त्रियों के स्थापित मानदंडों के विरुद्ध आवाज उठाने की कहानी है।
 
यह फिल्म गर्भधारण में स्त्री की स्वतंत्रता के विचारोत्तेजक प्रश्न को ज्वलंत समस्या के रूप में उठाने का बेबाक प्रयास करती है। एक बार फिर समर और हरी-भरी-जैसी फिल्मों के जरिए श्याम अपने प्रिय सामाजिक विमर्श के विषयों की ओर मुड़े, किन्तु 'जबैदा' में उन्होंने एक अलग राह ली।
 
'हरी-भरी' को सामाजिक कल्याण के विषय पर आधारित सर्वश्रेष्ठ फिल्म का पुरस्कार मिला, वहीं 'जुबैदा' वर्ष 2000 की श्रेष्ठ हिन्दी फिल्म के राष्ट्रीय अवार्ड से पुरस्कृत की गई। 'जुबैदा' आजादी के बाद विभिन्न रियायतों के भारत में विलय तथा पहले आम चुनाव की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर आधारित एक मुस्लिम महिला जुबैदा की कहानी है। युवा रियाज (रजत कपूर) अपनी माँ जुबैदा की मृत्यु का रहस्य जानने हेतु पत्रकार बनकर राजस्थान की एक रियासत में आता है। उसे महारानी मंदिरा देवी (रेखा) से अपनी माँ की कहानी पता चलती है। स्व. महाराज विजयेन्द्रसिंह ने मंदिरा देवी के अलावा एक मुस्लिम लड़की के प्यार में पड़कर उससे भी शादी की। यह युवती ही जुबैदा थी। सांस्कृतिक विभेद और पारिवारिक अंतर्द्वंद्व की आँच में जलती जुबैदा एक दिन महाराजा विजयेन्द्र के साथ हवाई जहाज में सफर करते हुए दुर्घटना की शिकार होती है।
 
जुबैदा में नायक विजेंद्रसिंह की भूमिका के लिए सभी बड़े अभिनेतओं ने इंकार कर दिया था। श्याम बेनेगल इस फिल्म को बॉलीवुड के अग्रणी सितारों के साथ बड़े पैमाने पर फिल्माना चाहते थे। नारी प्रधान कथानक होने के नाते कई अभिनेताओं ने हिचक दिखाई। आखिर मनोज वाजपेयी (सत्या फेम) आगे आए और उन्हें सुपर तारिका करिश्मा कपूर के साथ प्रमुख भूमिकाओं में चुना गया। 'जुबैदा' में करिश्मा ने अपने जीवन का सर्वश्रेष्ठ अभिनय किया है।
 
इसके बाद बेनेनल ने 'नेताजी सुभाषचंद्र बोस' (2005), वेलक टू सज्जनपुर (2008), वेल डन अब्बा (2010) और मुजीब: द मेकिंग ऑफ ए नेशन (2023) फिल्में बनाईं। वे उम्र के आखिरी दौर तक सक्रिय रहे। 14 दिसंबर 2024 को अपने जन्मदिन के मौके पर उन्होंने साथियों को बताया था कि वे दो-तीन प्रोजेक्ट्स पर काम कर रहे हैं। 
 
विश्व चर्चित फीचर फिल्मों के अलावा श्याम ने क्लोज टू नेचर, फ्लोटिंग जाएंट, क्वायट रिवॉल्यूशन जैसे वृत्तचित्रों का निर्माण भी किया। राय और नेहरू पर उनके वृत्तचित्र अत्यधिक सराहे गए। छोटे पर्दे पर श्याम द्वारा निर्मित 'यात्रा', 'कथासागर', 'भारत एक खोज' जैसे धारावाहिक प्रसारित हो चुके हैं।
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