amol palekar birthday: सरकारी दफ्तर का बाबू। बैंक का केशियर। प्रायमरी स्कूल का टीचर। यदि परदे पर हीरो के रूप में आ जाए तो कैसा लगेगा? इस बात का यदि अहसास करना है तो अमोल पालेकर की कोई फिल्म देख लीजिए। एक आम आदमी की जिंदगी के रोजमर्रा के सुख-दु:खों, उसकी लाचारियों और उसके अरमानों की जैसी अभिव्यक्ति परदे पर अमोल पालेकर ने दी है वैसी शायद ही किसी ने दी हो।
कभी नहीं लगे 'हीरो'
परदे पर वह कभी हीरो लगा ही नहीं। हीरो की चमक-दमक, धां-धूं, नाच-गाने के परे एक सामान्य आदमी को परदे पर जीने वाला अमोल पालेकर। एक भोला चेहरा, जिसकी मासूमियत में कभी लाचारी के दर्शन होते हैं, तो कभी भोंदूपन के, जिसे देखकर खुद-ब-खुद हम दु:खी भी होते हैं और हंस भी पड़ते हैं। परदे पर अमोल को देखकर हर बार ऐसा लगता है कि सिर्फ चेहरा अलग है।
बासु चटर्जी की फिल्म 'रजनीगंधा' से अमोल के फिल्मी सफर की शुरुआत हुई। इस फिल्म में अमोल का अभिनय एकदम असली था। बनावटीपन से कोसों दूर। दर्शकों का एक वर्ग इसी फिल्म से अमोल पालेकर का दीवाना हो गया। इसके बाद अमोल की घरौंदा, छोटी-सी बात, चितजोर जैसी फिल्में आईं, जिन्हें खूब पसंद किया गया।
हीरो की एंटीथीसिस
छोटे बजट की साफ-सुथरी और भावानत्मक फिल्मों के हीरो के लिए अमोल पालेकर एकदम अनुकूल सिद्ध हुए। कहना चाहिए कि ऐसी फिल्मों की परंपरा के विकास में अमोल ने खास भूमिका अदा की। अमोल पालेकर के अभिनय पर किसी समीक्षक की टिप्पणी है कि वह हिंदी फिल्म के हीरो की एंटीथीसिस है। निश्चय ही अमोल पालेकर पर यह टिप्पणी बड़ी सटीक है।
हिंदी फिल्मों के हीरो को जो छवि हमारे मानस पर अंकित है, उसे अमोल एक झटके से छिन्न-भिन्न करते नजर आए। लेकिन ऐसी फिल्मों की संभावनाएं एक तो बहुत सीमित थी और दूसरे निर्देशक अमोल में उसी-उसी किस्म की भूमिकाएं फिर से कराना चाहते थे जिन्हें दर्शकों ने पसंद किया था। अमोल इन भूमिकाओं में टाइप्ड होकर नहीं रह जाना चाहते थे। इसलिए उन्होंने निर्देशन की तरफ ध्यान दिया।
सपने में नहीं सोचा था
बकौल अमोल उन्होंने सपने में भी फिल्म अभिनेता बनने का नहीं सोचा था, उनकी इच्छा फिल्में बनाने की थी। सो, वे निर्देशन के क्षेत्र में उतरे और अनकही, आक्रीत, थोड़ा सा रूमानी हो जाए जैसी कई फिल्मों का निर्देशन किया।
इस दौरान देश में छोटे परदे का एकदम से विस्तार हुआ और टीवी घर-घर पहुंच गया। धारावाहिकों की लोकप्रियता बढ़ी। ऐसे में अमोल का धारावाहिकों के निर्देशन की तरफ मुखातिब होना स्वाभाविक था। कच्ची धूम, नकाब, मृगनयनी के निर्देशन के जरिये अमोल ने छोटे परदे पर भी अपनी धाक जमाई।
क्यों नहीं बन पाए स्टार?
अमोल को पसंद करने वाले दर्शकों को इस बात का मलाल रहा कि वे स्टार क्यों नहीं बन पाए? उन्होंने अभिनय की तरफ ध्यान केन्द्रित करने की बजाय निर्देशन का क्षेत्र क्यों चुन लिया? अमोल का इस बारे में कहना था कि वे एक ट्रेंड से बंधकर फिल्म स्टार बनना उन्हें गवारा नहीं।
बहरहाल, अमोल ने अपने अभिनय से यह तो सिद्ध कर ही दिया है कि वे इतने असली हैं कि कोई भी दर्शक उनमें अपनी छवि देख सकता है। सजीव अभिनय की इस ऊंचाई को छूना हर किसी के बूते की बात नहीं।
प्रमुख फिल्में :
अमोल पालेकर ने हिंदी, मराठी, बंगाली, मलयालम, कन्नड़ भाषा में फिल्में की। उनकी प्रमुख हिंदी फिल्में बतौर अभिनेता इस प्रकार हैं:
रजनीगंधा (1974), चितचोर (1976), घरौंदा (1977), टैक्सी-टैक्सी (1977), दामाद (1978), बातों बातों में, गोलमार, मेरी बीवी की शादी, सोलवां सावन (1979), आंचल, अपने पराए (1980), नरम गरम (1981), जीवन धारा, श्रीमान सत्यवादी (1982), रंग बिरंगी (1983), तरंग, अनकही (1984), खामोश (1985), झूठी (1985)
निर्देशक के रूप में अमोल की फिल्में इस प्रकार हैं:
आक्रीत (मराठी/1981), अनकही (1985), थोड़ा सा रूमानी हो जाए (1990), बांगरवाडी (1995), दायरा (1996), अनाहत, कैरी (2001), ध्यास पर्व (2001), पहेली (2005), क्वेस्ट (अंग्रेजी/ 2006), दुमकटा (2007), समानांतर (मराठी/2009), एंड वंस अगेन (2010), धूसर (मराठी/2011)
- नायक महानायक से साभार