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Last Updated : बुधवार, 22 मई 2019 (09:10 IST)

NDA MEET: चुनाव नतीजों से पहले एनडीए ने क्यों छुआ '36 का आंकड़ा'- नज़रिया

NDA MEET: चुनाव नतीजों से पहले एनडीए ने क्यों छुआ '36 का आंकड़ा'- नज़रिया - NDA meet : Why NDA is touching figure 36
प्रदीप सिंह, वरिष्ठ पत्रकार, बीबीसी हिंदी के लिए
लोकसभा चुनाव के नतीजों से पहले बीजेपी के नेतृत्व वाले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के नेताओं को बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह ने रात्रि भोज पर बुलाया। मकसद सबका आभार जताने के अलावा यह संदेश देना भी था कि हम साथ-साथ हैं। अमित शाह चुनाव प्रचार के आखिरी दिन यह भी कह चुके हैं कि बीजेपी चाहेगी कि इस कुनबे में और दल जुड़ें।
 
चुनाव नतीजे से पहले औपचारिकता के अलावा भी इस बैठक के कई और मकसद हैं। एक, यह संदेश देने के लिए कि एग्जिट पोल भले ही बीजेपी को अकेले ही बहुमत हासिल करने के संकेत दे रहे हों, लेकिन सरकार एनडीए की ही बनेगी।
 
दूसरा मकसद मतदाताओं को संदेश देना था कि चुनाव के दौरान एनडीए के घटकों में जो एकता दिखी वह केवल चुनावी दिखावा नहीं थी। बीजेपी इस एकता को अगले पांच साल भी कायम रखना चाहती है। यही कारण है कि पार्टी ने इस बात को सुनिश्चित किया कि तीन बड़े घटक दलों शिरोमणि अकाली दल, जनता दल यूनाइटेड और शिवसेना के प्रमुख नेताओं की उपस्थिति हो।
 
तीन बड़े घटक दल
शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे लंदन में थे और माना जा रहा था कि वे नहीं आएंगे या नहीं आ पाएंगे। वैसे भी उद्धव ठाकरे दिल्ली कम ही आते हैं। खबर यह भी थी कि शिरोमणि अकाली दल के मुखिया प्रकाश सिंह बादल की बजाय सुखबीर बादल बैठक में शिरकत करेंगे. जनता दल यूनाइटेड के नेता नीतीश कुमार भी आने के लिए बहुत उत्सुक नहीं थे।
 
कारण यह बताया जा रहा है कि वे नतीजा आने तक किसी सार्वजनिक मंच पर दिखना नहीं चाहते थे। पूरे चुनाव के दौरान उन्होंने मीडिया से बात नहीं की। बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह ने प्रयास किया कि ये सब नेता बैठक में मौजूद रहें। बैठक में प्रधानमंत्री और सरकार के पांच साल के कामकाज की प्रशंसा की गई।
 
बैठक में एनडीए की छत्तीस पार्टियों के नेता शामिल हुए और तीन ने पत्र भेजकर समर्थन जताया. बैठक में तो सब कुछ ठीक-ठाक था, पर एक तरह का सन्नाटा भी।
 
नतीजे एग्जिट पोल के उलट आए तो?
ऐसा लगता है कि बीजेपी के अलावा सबके मन में शायद एक ही चिंता थी कि अगर कहीं नतीजे एग्ज़िट पोल के उलट आए तो? आने वाले दिनों में दो स्थितियां हो सकती हैं। पहली, कि एग्जिट पोल के नतीजे ही असली नतीजे में तब्दील हो जाएं. ऐसी हालत में बीजेपी के सहयोगी दल बीजेपी के रहमो-करम पर होंगे।
 
किस दल से कितने मंत्री बनेंगे और उन्हें क्या मंत्रालय मिलेगा, यह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अमित शाह तय करेंगे। सहयोगी दलों के पास शिकायत का न तो मौका होगा और न ही ताकत। इस स्थिति से दो दलों और उनके नेताओं को सबसे ज्यादा परेशानी होगी। पहले होंगे बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और दूसरे शिवसेना के उद्धव ठाकरे।
 
इन दोनों नेताओं को परेशानी सिर्फ इस बात से नहीं होगी कि केंद्रीय मंत्रिमंडल में उनके दल को मन मुताबिक प्रतिनिधित्व नहीं मिलेगा।
 
नीतीश और उद्धव की परेशानी
उनकी परेशानी विधानसभा चुनाव को लेकर ज्यादा है। महाराष्ट्र में इस साल के आख़िर में और बिहार में फरवरी, 2020 में चुनाव होना है। पिछले चुनाव में बीजेपी ने शिवसेना से गठबंधन तोड़कर अकेले चुनाव लड़ा और प्रदेश की सबसे बड़ी पार्टी बन गई। ठाकरे को डर है कि बीजेपी को अकेले ही लोकसभा में बहुमत मिल गया तो विधानसभा चुनाव में उनकी सौदेबाजी की ताकत घट जाएगी।
 
नीतीश कुमार उद्धव से ज्यादा परेशान हैं। लोकसभा चुनाव में दबाव डालकर वे बीजेपी के बराबर सीटें लेने में कामयाब रहे। पर विधानसभा चुनाव में दबाव डालने की स्थिति में बीजेपी होगी। नीतीश की केवल यही समस्या नहीं है। दरअसल, रहीम का दोहा, 'रहिमन धागा प्रेम का मत तोड़ों चटकाय, टूटे से फिर ना जुड़े जुड़े गांठ पड़ जाय।' उन पर चरितार्थ हो रहा है।
 
साल 2017 में एनडीए में वापस आने के बाद उन्हें महसूस हो रहा है कि दोनों के संबंधों में गांठ तो पड़ गई है। दूसरे जब वे बीजेपी का साथ छोड़कर गए थे तो वह अटल-आडवाणी की पार्टी थी।
 
त्रिशंकु लोकसभा से फायदा
 
जब वो लौटे तो बीजेपी मोदी और शाह की पार्टी है। उन्हें लग रहा है कि एनडीए में उनका पहले जैसा रुतबा नहीं है। बीजेपी ने उन्हें चुनाव घोषणा पत्र भी जारी नहीं करने दिया। प्रधानमंत्री के साथ चुनावी रैली में जब मंच पर खड़े सारे नेता मोदी के साथ भारत माता की जय के नारे लगा रहे थे तो नीतीश अकेले कुर्सी पर बैठे रहे। वे साथ तो हैं पर सहज महसूस नहीं कर रहे हैं।
 
अब एक दूसरे परिदृश्य पर विचार करते हैं। मान लीजिए एग्जिट पोल ग़लत साबित होते हैं और त्रिशंकु लोकसभा आती है। यह स्थिति नीतीश कुमार और उद्धव ठाकरे के लिए सबसे अच्छी होगी।
 
ये दोनों नेता दोनों पक्षों से सौदेबाज़ी की स्थिति में होंगे। मौसम विज्ञानी राम विलास पासवान के पांच साल से बंद गले से अचानक आवाज निकलने लगेगी। एनडीए के सहयोगी बड़े दलों में केवल अकाली दल ऐसा है जो किसी भी स्थति में बीजेपी के साथ रहेगा।
 
ऐसा नहीं है कि मोदी और शाह को इसका अंदाज़ा नहीं है। इसीलिए लोकसभा चुनाव के पहले से ही ओडिशा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक, तेलंगाना के मुख्यमंत्री चंद्रशेखर राव और वाईएसआर कांग्रेस के जगन मोहन रेड्डी से एक मोटी सहमति बन चुकी है कि वक्त आने और जरूरत पड़ने पर वे साथ रहेंगे।
 
नवीन पटनायक और जगन मोहन रेड्डी की वैसे भी राष्ट्रीय राजनीति में आने की कोई महत्वाकांक्षा नहीं है। केसीआर अपनी सीमा जानते हैं और उन्हें मोदी के साथ काम करने में कोई परेशानी नहीं है। मोदी और शाह का आत्मविश्वास यह संकेत दे रहा है कि वे मन मुताबिक नतीजे के प्रति पूरी तरह आश्वस्त हैं।
 
पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी का एक किस्सा है। 1991 में लोकसभा चुनाव के दौरान राजीव गांधी की हत्या के बाद बीजेपी के एक नेता ने कहा कि चुनाव में बीजेपी की स्थिति बेहतर हो जाएगी।
 
वाजपेयी जी ने बात सुनी और कुछ देर तक आंख बंद किए बैठे रहे। फिर आंख खोली और कहा कि ऐसा है मतदाता कि आंखों में दो बत्तियां होती हैं। एक लाल और एक हरी। जब वह साथ होता है तो हरी बत्ती नजर आती है और खिलाफ हो तो लाल। मुझे तो मतदाता की आंखों में लाल बत्ती नजर आ रही है। ऐसा लगता है कि मोदी और शाह को एक बार फिर मतदाता की आंख में हरी बत्ती नजर आ रही है।
 
शायद यही वजह यह है कि सरकार में सभी विभागों में प्रेजेंटेशन की तैयारी चल रही है। सरकार का अगले 100 दिन का एजेंडा तैयार हो रहा है। आम बजट की तैयारी शुरू हो चुकी है। बीजेपी को यकीन है कि 23 मई को 2004 नहीं दोहराया जाएगा।

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