आदर्श राठौर, बीबीसी संवाददाता
17वीं लोकसभा के चुनाव के लिए सातों चरणों का मतदान पूरा हो चुका है, चैनलों और सर्वे एजेंसियों के एग्जिट पोल आ चुके हैं और अब 23 मई को आने वाले नतीजों का इंतजार है। जैसे ही आखिरी चरण के मतदान के लिए प्रचार थमा था, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उत्तराखंड के केदारनाथ जाकर बुद्ध पूर्णिमा पर पूजा अर्चना की थी।
यहां उन्होंने करीब 17 घंटा बिताए और गुफा में ध्यान भी लगाया। इससे पहले उन्होंने केदारनाथ में 2013 में आई आपदा के बाद किए जा रहे पुनर्निर्माण कार्यों का जायजा भी लिया था। जिस समय मोदी यह सब कर रहे थे, उनकी तस्वीरें और वीडियो टीवी चैनलों, वेबसाइटों और सोशल मीडिया के माध्यम से लोगों तक पहुंच रहे थे।
विपक्षी दलों ने इसे लेकर सवाल उठाते हुए आरोप लगाया कि यह आदर्श आचार संहिता के तहत आखिरी चरण के लिए चुनाव प्रचार थम जाने के बाद अप्रत्यक्ष ढंग से किया जा रहा चुनाव प्रचार है। तृणमूल कांग्रेस के नेता डेरेक ओ ब्रायन ने पत्र लिखकर चुनाव आयोग से इस बारे में शिकायत भी की थी और इस यात्रा पर रोक लगाने की मांग की थी।
इस पूरे घटनाक्रम से कुछ सवाल उठ खड़े हुए हैं जिन पर चर्चा हो रही है। जैसे, मोदी की केदारनाथ यात्रा का हासिल क्या था? क्या यह एक तरह से चुनाव प्रचार था? क्या चुनाव के दौरान प्रचार थम जाने पर बड़े नेताओं का सार्वजनिक कार्यक्रमों में या निजी धार्मिक यात्राओं पर जाना गलत है?
क्या यह प्रचार था?
नरेंद्र मोदी की केदारनाथ यात्रा के लिए एक टर्म इस्तेमाल किया जा रहा है- सरोगेट कैंपेनिंग। सरोगेट कैंपेनिंग यानी अप्रत्यक्ष रूप से चुनाव प्रचार करना। चूंकि मतदान से 48 घंटे पहले चुनाव प्रचार थम जाता है, ऐसे में कोई भी नेता या पार्टी उन सीटों पर प्रचार नहीं कर सकते जहां मतदान होना है।
ऐसे में अगर कोई खुलकर प्रचार किए बिना अप्रत्यक्ष ढंग से कुछ ऐसा करता है जिससे मतदाताओं को प्रभावित किया जा सकता है, तो उसे सरोगेट कैंपेनिंग कहा जाता है।
वरिष्ठ पत्रकार राधिका रामासेशन बताती हैं कि पीएम मोदी की केदारनाथ यात्रा भी कुछ लोग सरोगेट कैंपेनिंग कह रहे हैं। वह बताती हैं कि पीएम के कहीं जाने पर वैसे तो कोई रोक नहीं है, मगर यह मामला नैतिकता और शिष्टाचार से जुड़ा हुआ है।
वह कहती हैं, 'तकनीकी और कानूनी हिसाब से देखें तो मुझे नहीं लगता कि उन्होंने कुछ गलत किया है। मगर राजनीति और चुनाव में शिष्टाचार का भी सवाल आता है। भले ही वह मंदिर जाएं, पूजा करें मगर साथ में जो न्यूज एजेंसी को ले जाने के आरोप लग रहे हैं और उनकी गतिविधियों की पल-पल की जानकारी सभी तक पहुंच रही है, सवाल उस पर उठ रहे हैं।'
राधिका मानती हैं कि इसका प्रभाव उन जगहों पर जरूर हुआ होगा, जहां पर मतदान होने वाला था। उन्होंने कहा, 'उत्तराखंड में बेशक मतदान खत्म हो गया था मगर बगल के राज्य हिमाचल, जिसे देवभूमि कहते हैं, वहां मतदान होना था। वाराणसी में भी मतदान होना था जहां से मोदी चुनाव लड़ रहे हैं। साथ ही यूपी, बिहार वगैरह, जहां आस्था और धर्म की अहमियत है, वहां कुछ तो असर हुआ होगा मतदाताओं पर। वैसे तो प्रधानमंत्री ने कोई ग़लत काम नहीं किया और उन्होंने कहा भी कि वह चुनाव आयोग को सूचित करके आए हैं मगर यहां मामला नैतिकता का है।
निजी यात्रा या रणनीतिक दौरा?
वरिष्ठ पत्रकार प्रदीप सिंह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की केदारनाथ यात्रा को अलग नजरिये से देखते हैं। उनका मानना है कि कि चुनाव प्रचार इसका छोटा सा अंश हो सकता है, मगर यह उनकी निजी आस्था का सवाल है।
वह कहते हैं कि पीएम रहते हुए मोदी चौथी बार केदारनाथ गए हैं और यह उनकी आस्था का निजी पक्ष है। हालांकि उनका मानना है कि वह इसे चुनाव प्रचार की दृष्टि से किए गए काम के बजाय दीर्घकालिक रणनीति के तहत किया गया काम ज्यादा मानते हैं।
प्रदीप सिंह कहते हैं कि मेरा मानना है कि जैसे 2014 में जीत हासिल करने के बाद मोदी ने अपने शपथ ग्रहण में पड़ोसी देशों के राष्ट्राध्यक्षों को बुलाया था, वह 2019 के चुनाव प्रचार की शुरुआत थी। मोदी बहुत आगे का प्लान करके चलते हैं। उनका केदारनाथ जाना 2024 को ध्यान में रखते हुए उठाया गया कदम है।'
अपने तर्क के समर्थन में प्रदीप सिंह कहते हैं, 'केदारनाथ वाली उनकी इमेज लोगों के दिमाग में रहने वाली है। अब जब कभी वह भारतीय संस्कृति, हिंदू धर्म और धार्मिक स्थानों को लेकर बात करेंगे तो लोगों के दिमाग़ में सीधे उनकी यही इमेज आएगी। मोदी जानते हैं कि किस छवि का इस्तेमाल कैसे करना है।'
मीडिया कवरेज के कारण उठे सवाल?
इस तरह परोक्ष प्रचार के आरोप नरेंद्र मोदी पर ही नहीं, अन्य नेताओं पर भी उठते रहे हैं। जैसे कि जिस समय यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ पर चुनाव आयोग ने प्रचार करने की पाबंदी लगाई थी, वह हनुमान मंदिर पहुंचे थे और मीडिया ने इसे भी कवर किया था। तो क्या ये सवाल मीडिया कवरेज के कारण उठ रहे हैं?
वरिष्ठ पत्रकार उर्मिलेश मोदी की केदारनाथ यात्रा पर विपक्ष द्वारा उठाए जा रहे सवालों को वाजिब तो मानते हैं मगर इस पूरे मामले को लेकर एक अहम सवाल उठाते हैं। वह कहते हैं कि बात सिर्फ इस घटना की नहीं है, अलग-अलग चरणों में चुनाव होने के कारण जब एक जगह प्रचार थमता है तो अन्य जगहों पर किए जा रहे प्रचार की पहुंच सभी तक हो जाती है।
उर्मिलेश कहते है, 'प्रधानमंत्री क्या, किसी को भी देश के संविधान के हिसाब से उपासना की स्वतंत्रता है। मगर सवाल इसलिए उठा कि प्रधानमंत्री 59 सीटों पर मतदान से पहले केदारनाथ गए। अगर वह अकेले जाते तो कोई सवाल न उठता। उनके साथ टीवी चैनल और चैनलों को फीड मुहैया करवाने वाली एजेंसियां भी थीं। उन्होंने मोदी की गतिविधियों को कवर किया तो विपक्ष ने आरोप लगाया कि यह मतदाताओं पर असर डालने की कोशिश है। तो टीवी के कारण आप जाने-अनजाने राजनीतिक कारणों से पूजा और उपासना को इस्तेमाल तो कर ही रहे हैं।'
पीएम मोदी के केदारनाथ जाने, ध्यान लगाने वगैरह की तस्वीरें और वीडियो मीडिया के माध्यम से सीधे जनता तक पहुंचे। ऐसे में इस पूरे मामले में उठ रहे सवालों के लिए क्या मीडिया भी जिम्मेदार है?
वरिष्ठ पत्रकार राधिका रामासेशन मानती हैं कि जिम्मेदारी मीडिया की नहीं, बल्कि चुनाव आयोग की है। वह कहती हैं, 'जहां खबर होगी, मीडिया तो जाएगा ही। पीएम के दौरे को मीडिया ने कवर करके गलती नहीं की।'
राधिका मानती हैं कि इस बार चुनाव आयोग की विपक्ष पर तो कड़ी नजर रही, ऐसी ही अन्य मामलों पर भी होनी चाहिए थी। उनका कहना है कि इस मामले में भी चुनाव आयोग की ज़िम्मेदारी बनती है कि वह देखे और तय करे कि यह उल्लंघन है या नहीं।
वहीं वरिष्ठ पत्रकार उर्मिलेश इस बात की ज़रूरत बताते हैं कि सभी पार्टियों को इस बात पर विचार करना होगा कि चुनावों के दौरान होने वाले प्रसारण को कैसे रेग्युलेट किया जाए। वह कहते हैं, 'कई बार ये भी होता है कि किसी एक चुनाव क्षेत्र में मतदान हो रहा है और बगल के निर्वाचन क्षेत्र में प्रधानमंत्री या विपक्ष का नेता भाषण दे रहा होता है। अगर वह बड़ा नेता है तो उसका टीवी चैनल टेलिकास्ट करते हैं जिसे मतदान वाली सीट के लोग भी देख सकते हैं। तो 48 घंटे पहले प्रचार बंद होने वाली बात इस मामले में कहां रही ? क्या इस स्थिति में प्रचार बंद हुआ?'
क्या मोदी को फायदा हुआ?
इस पूरे मामले को लेकर बहस का एक बिंदु यह भी है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अगर यह निजी यात्रा थी तो इसकी इस तरह से बड़े स्तर पर मीडिया कवरेज करवाने की ज़रूरत क्या थी।
राधिका रामासेशन कहती हैं कि वैसे तो सभी पार्टियों के नेता गुरुद्वारा, मंदिर, चर्च और मस्जिद जाते रहते हैं मगर यहां सवाल कवरेज को लेकर है। वह कहती हैं, 'जहां तक मुझे स्मरण है, इनसे पहले मनमोहन प्रधानमंत्री थे 10 साल तक। मुझे नहीं याद कि मनमोहन सिंह ने ऐसा कुछ किया चुनाव के बाद। धार्मिक स्थलों पर तो सभी पार्टियों के नेता जाते रहे हैं और किसी ने आपत्ति नहीं जताई। मगर सवाल उठे हैं कवरेज को लेकर। इसी को थोड़ा आपत्तिजनक कहा जा सकता है।'
जैसे ही मोदी की केदारनाथ यात्रा पर सवाल उठे थे, सोशल मीडिया पर पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की तस्वीर सामने आई थी जिसमें वह वैष्णोदेवी गुफा में प्रवेश करती नजर आ रही हैं।
वरिष्ठ पत्रकार प्रदीप सिंह कहते हैं कि पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी भी सार्वजनिक रूप से धार्मिक यात्राएं करती थीं और उसकी खबरें आया करती थीं। वह कहते हैं, 'मंदिर में जाना, वहां रूद्राक्ष की माला पहनना, पूजा-अर्चना करना, यह सब इंदिरा भी करती थीं। ऐसा नहीं है कि वह ये सब निजी रूप से और छिपाकर करती थीं। बहुत से नेता सार्वजनिक नहीं करना चाहते कि वे कहां गए। मगर इंदिरा गांधी ऐसा करती थीं और उसका मीडिया में प्रचार होता था। खबरें भी आती थीं। फर्क ये है कि उस समय इलेक्ट्रॉनिक मीडिया नहीं थी। इसलिए उस समय के वीडियो तो नहीं मिलेंगे, मगर चित्र मिल जाएंगे।'
प्रदीप सिंह कहते हैं कि इंदिरा के बाद अगर कोई खुद को हिंदू धर्म और हिंदू संस्कृति से सार्वजनिक तौर पर जोड़कर दिखाने की कोशिश कर रहा है तो वह नरेंद्र मोदी हैं और वह बड़े स्तर पर ऐसा कर रहे हैं। वह कहते हैं, 'इस बात का उनको फायदा यह है कि ये सब उनकी पार्टी की विचारधारा से भी मेल खाता है। जो वह कर रहे हैं, उसमें और पार्टी की विचारधारा में समरसता नजर आती है।'