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Written By BBC Hindi
Last Modified: बुधवार, 9 दिसंबर 2020 (09:23 IST)

MSP क्या किसानों के संकट का स्थायी समाधान है?

MSP क्या किसानों के संकट का स्थायी समाधान है? - Is MSP proper solution of farmers problem
सरोज सिंह, बीबीसी संवाददाता
भारत में खाद्य संकट इतिहास का हिस्सा बन गया है। लेकिन 60 के दशक के पहले ऐसा नहीं था। पिछले 14 दिनों से दिल्ली में आंदोलन कर रहे पंजाब-हरियाणा के किसानों का कहना है कि भारत को खाद्य संकट से बाहर निकालने में उनका सबसे बड़ा योगदान है। इस बात में सच्चाई भी है।
 
तब सरकार ने इन दोनों राज्यों को गेहूं और चावल के उत्पादन को बढ़ाने के लिए प्रोत्साहित किया। सरकार की तरफ़ से न्यूनतम समर्थन मूल्य यानी एमएसपी को सुनिश्चित किया गया ताकि उन्हें लागत से ज़्यादा क़ीमत मिल सके। एमएसपी से आज भी सबसे ज़्यादा हरियाणा और पंजाब के किसानों को फ़ायदा होता है। सरकार ने इनके लिए दूसरी सब्सिडी भी सुनिश्चित की।
 
अब जब भारत खाद्य संकट से बाहर निकल गया है और गेहूं-चावल का उत्पादन इतना हो रहा है कि रखने की जगह नहीं है तब सरकार को लगता है कि एमएसपी उसके लिए बोझ है और इसका कोई उपाय होना चाहिए। मोदी सरकार ने जो नए तीन क़ानून बनाए हैं उनमें कृषि उपज की मंडी, ख़रीदारी और उत्पादन को नियंत्रण मुक्त करने पर ज़ोर है।
 
पंजाब हरियाणा के किसानों को लग रहा है कि वो बाक़ी राज्यों के किसानों की तरह हो जाएंगे जिन्हें अपनी उपज औने-पौने दाम में बेचना पड़ता है। ऐसे में वो सड़क पर डटे हुए हैं कि एमएसपी जैसी व्यवस्था सरकारी मंडी हो या निजी मंडी हर जगह अनिवार्य होनी चाहिए।
 
MSP का इतिहास
भारत के खाद्य सुरक्षा में आत्म निर्भर होने की कहानी साल 1964 से शुरू होती है।
 
1964 में तत्कालीन प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने अपने सचिव लक्ष्मी कांत झा (एलके झा) के नेतृत्व में खाद्य-अनाज मूल्य समिति का गठन किया था। प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री का कहना था कि किसानों को उनकी उपज के बदले कम से कम इतने पैसे मिलें कि नुकसान ना हो। इस कमिटी ने अपनी रिपोर्ट 24 सितंबर को सरकार को सौंपी और अंतिम मुहर दिसंबर महीने में लगी।
 
1966 में पहली बार गेंहू और चावल के न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) तय किए गए। एमएसपी तय करने के लिए कृषि मूल्य आयोग का गठन किया गया, जिसका नाम बदल कर कृषि लागत और मूल्य आयोग (सीएसीपी) कर दिया गया।
 
1966 में शुरू हुई ये परंपरा आज तक चली आ रही है। आज सीएसीपी के सुझाव पर हर साल 23 फसलों की एमएसपी तय की जाती है।
 
किसान अपनी फसल, खेत से राज्यों की अनाज मंडियों में पहुँचाते हैं। इन फसलों में गेंहू और चावल को फूड कॉर्पोरेशन ऑफ़ इंडिया एमएसपी दर से ख़रीदती है। एफसीआई किसानों से ख़रीदे इन अनाजों को ग़रीबों के बीच सस्ती दर पर देती है। लेकिन एफसीआई के पास अनाज का स्टॉक इसके बाद भी बचा ही रहता है। ग़रीबों के बीच अनाज पीडीएस के तहत दिया जाता है।
 
पीडीएस, भारतीय खाद्य सुरक्षा प्रणाली है, जो दुनिया की सबसे मंहगी खाद्य सुरक्षा प्रणाली में से एक बताई जाती है। इस योजना के तहत भारत सरकार और राज्य सरकार साथ मिलकर ग़रीबों के लिए सब्सिडी वाले खाद्य और ग़ैर-खाद्य वस्तुओं को वितरित करती हैं।
 
यानी एसएसपी वाली फसलों की क़ीमतें सरकार तय कर देती है, तो ये सुनिश्चित हो जाता है कि किसानों को अपनी फसल की एक निश्चित क़ीमत मिल जाएगी।
 
नए कृषि क़ानून के आने के बाद से किसानों को लग रहा है कि अब प्राइवेट प्लेयर बाज़ार में आ जाएँगे और मंडी व्यवस्था ख़त्म हो जाएगी। ऐसे में उनकी एमएसपी की सुनिश्चित आय ख़त्म हो जाएगी।
 
यहाँ ग़ौर करने वाली बात ये है कि एमएसपी चाहे 23 फसलों के लिए हर साल घोषित हो, सरकार गेंहू, चावल के अलावा कपास जैसी एक दो और फसलें ही हैं जो मंडी में जाकर एमएसपी दर से किसानों से ख़रीदती है।
 
एमएसपी का फ़ायदा किसको ?
कृषि अर्थशास्त्री विजय सरदाना के मुताबिक़, फसलों की क़ीमतें बाज़ार के हिसाब से ही तय होनी चाहिए ना कि सरकार द्वारा नियंत्रित की जानी चाहिए। किसानों को और भारत सरकार को चाहिए की खेती में लगने वाली लागत को कम करें। एमएसपी से ही किसानों का भला हो सकता है, ये अवधारणा ग़लत है। दोनों अलग अलग बातें हैं।
 
साल 2015 में एफसीआई के पुनर्गठन पर सुझाव देने के लिए शांता कुमार कमिटी बनाई गई थी। कमिटी ने अपनी रिपोर्ट में कहा था कि एमएसपी का लाभ सिर्फ़ 6 फ़ीसदी किसानों को मिल पाता है। यानी 94 फ़ीसदी किसानों को एमएसपी का लाभ कभी मिला ही नहीं।
 
ऐसे में सोचने वाली बात है कि जो व्यवस्था 94 फ़ीसदी के लिए लाभकारी नहीं है, वो भला देश के किसानों को स्थायी संकट से उबारने का ज़रिया कैसे हो सकती है।
 
मंडी व्यवस्था
सरकार ने जो तीन क़ानून बनाए हैं उनमें से एक है, कृषक उपज व्‍यापार और वाणिज्‍य (संवर्धन और सरलीकरण) विधेयक 2020। इसके तहत किसानों और व्यापारियों को एपीएमसी की मंडी से बाहर फसल बेचने की आज़ादी होगी। किसानों को डर सता रहा है कि इससे मंडियाँ बंद हो जाएँगी।
 
केंद्र सरकार का कहना है कि वह एपीएमसी मंडियां बंद नहीं कर रही है बल्कि किसानों के लिए ऐसी व्यवस्था कर रही है जिसमें वह निजी ख़रीदार को अच्छे दामों में अपनी फसल बेच सकें। लेकिन सरकार के इस तर्क से किसान संतुष्ट नहीं हैं।
 
देश भर में 6000 से ज़्यादा एपीएमसी की मंडियाँ हैं, जिनमें से 33 फ़ीसदी मंडियाँ अकेले पंजाब में हैं। ये एक महत्वपूर्ण पहलू है जिस वजह से एफसीआई, एमएसपी पर गेंहू और चावल पंजाब से ख़रीदती है। एफसीआई को इस वजह से फसल ख़रीदने में सहूलियत होती है।
 
इन मंडियों में एमएसपी पर गेंहू ख़रीदने पर सरकार को उसके ऊपर मंडी टैक्स, अढ़तिया टैक्स, और रूरल डिवेलपमेंट सेस के तौर पर अलग से कुछ और पैसा चुकाना पड़ता है। इससे राज्य सरकार के ख़जाने भी भरते हैं।
 
पंजाब में तीनों टैक्स मिला कर सबसे ज़्यादा 8.5 फ़ीसदी अतिरिक्त ख़र्च आता है। हरियाणा में ये अतिरिक्त ख़र्च 6।5 फ़ीसदी है। बाक़ी राज्य में ये ख़र्च एक से पाँच फ़ीसदी के बीच ही रहता है।
 
अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में भारत की फसलों की क़ीमतें ऊंची
 
विजय सरदाना की मानें तो सरकार किसानों को सब्सिडी भी देती है और फसलों की ख़रीद पर एमएसपी भी देती है, जो अंतरराष्ट्रीय बाज़ार भाव से ज़्यादा होती है। ऐसा दुनिया के किसी दूसरी अर्थव्यवस्था में नहीं होता। अपने इस बयान के पक्ष में वो सीएसीपी की रिपोर्ट का हवाला देते हैं।
 
सीएसीपी की रिपोर्ट के मुताबिक़ एफ़सीआई के गोदाम में गेंहू और चावल मिला कर सरकार के पास 74।3 मिलियन टन था, जो 41 मिलियन टन होना चाहिए। यानी भारत की ज़रूरत से 33।1 मिलियन टन ज़्यादा।
 
इसी रिपोर्ट में ये भी लिखा है कि अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में भारत के गेंहू को आस्ट्रेलिया और यूक्रेन के गेंहू से कड़ी टक्कर मिल रही है और भारत के गेंहू की क़ीमतें काफ़ी ज्यादा हैं। इस वजह से निर्यात पर काफ़ी असर पड़ रहा है।
 
भारत के बासमती चावल के संदर्भ में भी ऐसी बातें कही जाती हैं।
 
एफसीआई पर एमएसपी पर फसल ख़रीद से बढ़ता बोझ
आलोक सिन्हा 2006 से 2008 तक फ़ूड कॉर्पोरेशन ऑफ़ इंडिया के चेयरमैन रहे हैं। एमएसपी पर गेंहू ख़़रीदने के बाद सरकार को इस पर ऊपर से कितना ख़र्च करना पड़ता है, इसको उन्होंने विस्तार से समझाया है।
 
एफसीआई को एमएसपी के ऊपर मंडी से गेंहू ख़रीदने के लिए 14 फ़ीसदी प्रोक्युरमेंट कॉस्ट ( मंडी टैक्स, आढ़ती टैक्स, रूरल डेवलपमेंट सेस, पैकेजिंग, लेबर, स्टोरेज देना पड़ता है) फिर 12 फ़ीसदी उसे वितरित करने में ख़र्च करना पड़ता है (लेबर, लोडिंग-अनलोडिंग) और 8 फ़ीसदी होल्डिंग कॉस्ट (रखने का ख़र्च) लगता है। यानी एफसीआई एमएसपी के ऊपर गेंहू ख़रीदने पर 34 फ़ीसदी और अधिक ख़र्च करती है।
 
मतलब, अगर गेंहू की एमएसपी 2000 रुपए प्रति क्विंटल है तो पीडीएस में जनता को बाँटने में सरकार को लगभग 2680 रुपये प्रति क्विंटल ख़र्च करना पड़ता है ।
 
इसके अलावा एक और दिक़्कत है। एफसीआई के नियमों के मुताबिक़, कुल ख़रीद का 8 फ़ीसदी तक ख़राब पैदावार आप ख़रीद सकते हैं। यानी 8 फ़ीसदी गेंहू जो सरकार ख़रीदती है उसके पैसे भी देती है पर वो इस्तेमाल के लायक नहीं होता।
 
इससे आप अंदाज़ा लगा सकते हैं कि एमएसपी से भले ही किसानों को फ़ायदा पहुँच रहा हो लेकिन इससे भारत के खेती किसानी का संकट टल नहीं रहा। ऐसा इसलिए क्योंकि इस व्यवस्था से 94 फ़ीसदी किसान बाहर हैं।
 
इसलिए गेंहू का एमएसपी अगर 2000 रुपए प्रति क्विंटल है, तो एफसीआई को ख़रीदने पर तक़रीबन 3000 रुपए प्रति क्विंटल का पड़ता है।
 
कई बार ये माल गोदाम में दो-तीन साल से अधिक के लिए भी रह जाता है। तो इसकी गुणवत्ता और वजन दोनों पर असर पड़ता है।
 
आलोक सिन्हा कहते है कि एक बार मंडी से फसल ख़रीदने पर राज्यों तक पहुँचाने में कम से कम तीन बार उसकी लोडिंग-अनलोडिंग की जाती है।
 
विजय सरदाना कहते हैं कि प्राइवेट व्यापारी अगर फसल ख़रीदेगा तो निश्चित तौर पर ये ख़र्चे वो वहन नहीं कर पाएगा। यही वजह है कि एमएसपी पर ख़रीद को सरकार क़ानून नहीं बना सकती।
 
उनका कहना है कि एमएसपी पर क़ानून बनाने से कृषि क्षेत्र का कोई भला नहीं होने वाला। अब इस क़ानून की एक्सपायरी डेट आ चुकी है।
 
एमएसपी क़ानून से सरकार को 15 लाख करोड़ का नुक़सान
वो आगे कहते हैं, "जिस तरह से किसान अपनी बात मनवाने के लिए एकजुट और संगठित हैं, मान लीजिए केंद्र सरकार क़ानून बना देती है कि एमएसपी से नीचे फसलों की ख़रीद अपराध होगा। लेकिन किसी भी प्राइवेट प्लेयर को सरकार फसल ख़रीदने पर मजबूर नहीं कर सकती।''
 
''क़ानून पास होने के बाद अगर व्यापारी एक जुट हो कर कहें कि वो एमएसपी पर फसल नहीं ख़रीद सकते, तो सरकार क्या करेगी? ऐसे में सरकार पर इन फसलों की ख़रीद का दबाव बढ़ेगा। अब चूँकि ये क़ानून है तो सरकार को ये 23 फसलों की ख़रीद करने के लिए बाध्य होना पड़ेगा।''
 
''23 फसलों की एमएसपी की क़ीमत और उस पर एफसीआई के वितरण प्रणाली में ऊपर से होने वाले सब ख़र्चों को मिला दिया जाए तो ये ख़र्च सरकार के लिए 15 लाख करोड़ का बैठेगा।"
 
"इतना ही नहीं आगे इस बात की कोई गारंटी भी नहीं है कि एमएसपी 23 फसलों के लिए क़ानूनी अधिकार बन जाएगा तो आगे चल कर बाक़ी फसलें पैदा करने वाले किसान दूसरी फसलों के लिए ऐसी माँग लेकर कोर्ट या फिर सरकार के पास नहीं जाएँगे।"
 
कृषि विशेषज्ञ देविंदर शर्मा भी मानते हैं कि एमएसपी पर क़ानून बनाने से देश के केवल 60 फ़ीसदी किसानों को फ़ायदा पहुँचेगा। 40 फ़ीसदी किसानों को दूसरे तरह के बेनिफिट जैसे किसान सम्मान निधि है, उसकी ज़रूरत तब भी पड़ेगी।
 
2015-16 में हुई कृषि गणना के अनुसार, भारत के 86 फ़ीसदी किसानों के पास छोटी जोत की ज़मीन है या ये वो किसान हैं जिनके पास 2 हेक्टेयर से कम ज़मीन है।
 
अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में एमएसपी से मुश्किल
प्रोफ़ेसर प्रमोद कुमार जोशी, साउथ एशिया फ़ूड पॉलिसी रिसर्च इंस्टिट्यूट के पूर्व में निदेशक रह चुके हैं। बीबीसी से बातचीत में वो कहते हैं कि एमएसपी पर क़ानून भारत की कृषि क्षेत्र में विकास का कोई स्थायी समाधान नहीं है।
 
उनके मुताबिक़, इसके लिए हमें तकनीक का सहारा लेना चाहिए, ज़्यादा अच्छे क्वालिटी पैदावर, फसल में लागत कम और नए किस्म की फसल पैदा करनी चाहिए जिसका बाज़ार में भाव बेहतर मिल सके। इन्ही पैमानों पर कृषि क्षेत्र में सतत और निरंतर विकास संभव है।
 
वो एक दूसरी बात भी कहते हैं। किसानों को एमएसपी देने के बाद भारत विश्व व्यापार संगठन में जाकर बेहतर तरीके से मोल-भाव नहीं कर पाते हैं। अंतरराष्ट्रीय नियमों के मुताबिक़, कोई देश कृषि जीडीपी के 10 फ़ीसदी तक ही किसानों को सब्सिडी दे सकता है। अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में एमएसपी भी सब्सिडी का ही एक तरीक़ा माना जाता है।
 
10 फ़ीसदी से ज्यादा सब्सिडी देने वाले देश पर आरोप लगते हैं कि वो अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में क़ीमतों को तोड़ मरोड़ रहे हैं। कनाडा भी भारत पर ऐसे आरोप लगाता आया है। लेकिन पीएम किसान निधि जैसे तरीक़ों से जब किसान को सरकार मदद करती है तो उसे सब्सिडी में नहीं गिना जाता, उसे इनकम सपोर्ट में गिना जाता है।
 
इसलिए भी एमएसपी भारत की कृषि समस्या का स्थायी समाधान नहीं है।
 
क्या हैं उपाय?
विजय सरदाना कहते हैं, ऐसा नहीं है कि एमएसपी को ख़त्म कर दिया जाए। उनके मुताबिक़, एमएसपी के ऊपर सरकार जो 40 फ़ीसदी ख़र्च कर रही है वो पैसा किसानों के पास तो जा नहीं रहा। इस पैसे को सरकार को सीधे किसानों तक पहुँचाने का प्रबंध करना चाहिए।
 
हर जगह पीडीएस में गेंहू, चावल देने की ज़रूरत नहीं है। हर राज्य में जो वहाँ का मुख्य भोजन हो जिसकी पैदावार वहाँ होती है वहीं देने की व्यवस्था लागू की जानी चाहिए।
 
इसलिए सरकार को फसल की उत्पादकता बढ़ाने, फसलों की गुणवत्ता बढ़ाने और किसानों की फसलों की क़ीमत तय करने की ताक़त बढ़ानी चाहिए।
 
विजय सरदाना इसमें केरल की राज्य सरकार के काम को एक मॉडल मानते हैं। केरल में किसानों को उनकी लागत का पूरा दाम मिल रहा है और क़ीमतें नीचे जाने पर ज़िला प्रशासन को क़ीमतों में हस्तक्षेप करने का अधिकार दिया गया है।
 
60 के दशक में जब एमएसपी लाया गया था, तब भारत खाद्यान में आत्मनिर्भर नहीं था। लेकिन आज भारत के पास गेंहू और चावल दोनों ज़रूरत से ज्यादा मात्रा में गोदाम में पड़े हैं। अधिक क़ीमत और कहीं-कहीं ख़राब क्वालिटी की वजह से इनका निर्यात नहीं हो पा रहा है।
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