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Last Modified: शुक्रवार, 13 अप्रैल 2018 (12:26 IST)

जानिए कैसे जीते हैं सियाचिन में भारतीय सैनिक?

जानिए कैसे जीते हैं सियाचिन में भारतीय सैनिक? - Indian soldiers in siachen
मुकेश शर्मा (संपादक, बीबीसी हिंदी)
 
ज़मीन ऐसी बंजर और दर्रे इतने ऊँचे कि सिर्फ़ पक्के दोस्त और कट्टर दुश्मन ही वहाँ तक पहुँच सकते हैं। ये है सियाचिन, दुनिया का सबसे ऊँचा रणक्षेत्र। अगर नाम के मतलब पर जाएँ तो सिया मतलब गुलाब और चिन मतलब जगह यानी गुलाबों की घाटी।
 
मगर भारत-पाकिस्तान के सैनिकों के लिए इस गुलाब के काँटे काफ़ी चुभने वाले साबित हुए हैं। वहाँ जाना भारतीय सेना के साथ ही संभव है और मुझे ये मौक़ा मिला था कुछ साल पहले।
 
सियाचिन में ठंड में तापमान शून्य से 50 डिग्री सेल्सियस तक नीचे पहुँच जाता है। बेस कैंप से भारत की जो चौकी सबसे दूर है उसका नाम इंद्रा कॉल है और सैनिकों को वहाँ तक पैदल जाने में लगभग 20 से 22 दिन का समय लग जाता है।
 
चौकियों पर जाने वाले सैनिक एक के पीछे एक लाइन में चलते हैं और एक रस्सी सबकी क़मर में बँधी होती है। क़मर में रस्सी इसलिए बाँधी जाती है क्योंकि बर्फ़ कहाँ धँस जाए इसका पता नहीं रहता और अगर कोई एक व्यक्ति खाई में गिरने लगे तो बाकी लोग उसे बचा सकें।
 
ऑक्सीजन की क़मी होने की वजह से उन्हें धीमे-धीमे चलना पड़ता है और रास्ता कई हिस्सों में बँटा होता है। साथ ही ये भी तय होता है कि एक निश्चित स्थान पर उन्हें किस समय तक पहुँच जाना है और फिर वहाँ कुछ समय रुककर आगे बढ़ जाना है।
हज़ारों फ़ुट ऊँचे पहाड़ या हज़ारों फ़ुट गहरी खाइयाँ, न पेड़-पौधे, न जानवर, न पक्षी। इतनी बर्फ़ कि अगर दिन में सूरज चमके और उसकी चमक बर्फ़ पर पड़ने के बाद आँखों में जाए तो आँखों की रोशनी जाने का ख़तरा और अगर तेज़ चलती हवाओं के बीच रात में बाहर हों तो चेहरे पर हज़ारों सुइयों की तरह चुभते, हवा में मिलकर उड़ रहे बर्फ़ के अंश।
 
इन हालात में सैनिक कपड़ों की कई तह पहनते हैं और सबसे ऊपर जो कोट पहनते हैं उसे "स्नो कोट" कहते हैं। इस तरह उन मुश्किल हालात में कपड़ों का भी भार सैनिकों को उठाना पड़ना है।
 
वहाँ टेंट को गर्म रखने के लिए एक ख़ास तरह की अँगीठी का इस्तेमाल किया जाता है जिसे स्थानीय भाषा में बुख़ारी कहते हैं। इसमें लोहे के एक सिलिंडर में मिट्टी का तेल डालकर उसे जला देते हैं। इससे वो सिलिंडर गर्म होकर बिल्कुल लाल हो जाता है और टेंट गर्म रहता है।

 
सैनिक लकड़ी की चौकियों पर स्लीपिंग बैग में सोते हैं, मगर ख़तरा सोते समय भी मँडराता रहता है क्योंकि ऑक्सीजन की कमी की वजह से कभी-कभी सैनिकों की सोते समय ही जान चली जाती है। इस स्थिति से बचाने के लिए वहाँ खड़ा संतरी उन लोगों को बीच-बीच में उठाता रहता है और वे सभी सुबह छह बजे उठ जाते हैं। वैसे उस ऊँचाई पर ठीक से नींद भी नहीं आती।
वहाँ नहाने के बारे में सोचा नहीं जा सकता और सैनिकों को दाढ़ी बनाने के लिए भी मना किया जाता है क्योंकि वहाँ त्वचा इतनी नाज़ुक़ हो जाती है कि उसके कटने का ख़तरा काफी बढ़ जाता है और अगर एक बार त्वचा कट जाए तो वो घाव भरने में काफ़ी समय लगता है।
 
वहाँ लगभग तीन महीने सैनिक तैनात रहते हैं और उस दौरान वो बहुत ही सीमित दायरे में घूम फिर सकते हैं। संघर्ष विराम होने के कारण सैनिकों के पास वहाँ ज्यादा काम भी नहीं रहता और उन्हें बस समय गुज़ारना होता है। इसलिए जब हर तरफ़ सिर्फ़ बर्फ़ ही बर्फ़ या खाइयाँ हों तो ऊबना भी स्वाभाविक हो जाता है।
 
सियाचिन पर बनी सैनिक चौकियों की जीवन रेखा के रूप में काम करती है वहाँ वायु सेना। उन चौकियों पर जो हेलिकॉप्टर उतरता है उसे चीता का नाम दिया गया है। सेना का कहना है कि उन्हें जिन ऊँचाइयों पर रहना होता है वहाँ सिर्फ़ वही हेलिकॉप्टर काम कर सकता है। सबसे ऊँचाई तक जाने और सबसे ऊँचाई पर बने हेलिपैड पर लैंड करने वाले हेलिकॉप्टर का रिकॉर्ड इसी के नाम है।
 
संघर्ष विराम से पहले सीमा के नज़दीक़ बनी चौकियों तक हेलिकॉप्टर ले जाने में काफ़ी सावधानी बरतनी होती थी। चीता हेलिकॉप्टर उन चौकियों पर सिर्फ़ 30 सेकेंड के लिए ही रुकता है। संघर्ष विराम से पहले ये इसलिए किया जाता था जिससे विरोधी पक्ष जब तक निशाना साधेगा तब तक हेलिकॉप्टर उड़ जाएगा।
 
मगर अब भी वही प्रक्रिया अपनाई जाती है जिससे सेना किसी भी स्थिति के लिए तैयार रहे। सैनिकों को दूसरी जगहों से लाकर जब सियाचिन पर तैनात किया जाता है तो उससे पहले उन्हें इतने ठंडे मौसम के अनुरूप ख़ुद को ढालने के लिए तैयार किया जाता है।
 
सैनिकों से अपेक्षा की जाती है कि वे सिर्फ़ एक सैनिक ही न होकर इन परिस्थितियों में एक पर्वतारोही की तरह काम करें। मनोरंजन का भी वहाँ कोई साधन नहीं है। यानी पहाड़ों के बीच पहाड़ सी मुश्किलों के साथ चल रहा है सैनिकों का जीवन।
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