संदीप सिंह सिसोदिया
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भारत में प्रोफेशनल डिग्रीधारकों की संख्या लगातार बढ़ रही है, लेकिन पढ़े-लिखे बेरोज़गार भी उसी अनुपात में बढ़ते जा रहे हैं। या यूं कहें कि अच्छी डिग्री वाले खराब प्रोफेशनल्स की जमात बड़ी होती जा रही है जिन्हें कोई काम पर रखने को तैयार नहीं है।
रिक्रूटमेंट सेक्टर से जुड़ी एक फर्म के सर्वे के अनुसार इस समय भारत में ज्यादार कंपनियां ग्रेजुएट्स की क्षमताओं से असंतुष्ट हैं। यह सर्वे एक बड़ा सवाल उठाता है कि कहीं देश की वर्तमान शिक्षा व्यवस्था अच्छे प्रोफेशनल पैदा करने में नाकाम तो साबित नहीं हो रही है। कुछ उच्च शिक्षण संस्थानों को छोड़कर अन्य विश्वविद्यालय रोज़गार दिलाने में पिछड़ रहे हैं।
चौंकाने वाले आंकड़े : रिसर्च फर्म इंस्पायरिंग माइंड्स के 2014 के एक सर्वे में बताया गया है कि पिछले कुछ सालों में ग्रेजुएट हो रहे युवाओं में सिर्फ 53 फीसदी ही ऐसे हैं, जो रोजगार पा रहे हैं। इसका सीधा मतलब है कि मार्केट में डिमांड तो है लेकिन सप्लाई नहीं है, रोजगार तो मौजूद हैं लेकिन एम्पलायर को अपनी उम्मीदों के मुताबिक़ प्रोफ़ेशनल नहीं मिल पा रहे हैं।
51 फीसदी कंपनियां सिर्फ शीर्ष 20 भारतीय शिक्षण संस्थानों से ही नियुक्तियां करती हैं और इनमें से भी करीब एक-चौथाई कंपनियां ऐसी हैं, जो सिर्फ शीर्ष 10 संस्थानों से ही छात्रों को नौकरी पर रखती हैं।
विदेशी कंपनियों को पसंद नहीं : ऐसे तो भारत में 700 से अधिक विश्वविद्यालय हैं, लेकिन इनमें से कुछ ही ऐसे हैं जिनके पास-आउट स्टूडेंट्स अंतरराष्ट्रीय कंपनियों के मापदंडों पर खरे उतर रहे हैं। इसका एक और उदाहरण है ब्रिटिश काउंसिल का ताजा सर्वे जिसके अनुसार विश्व की 60 प्रतिशत कंपनियां सिर्फ 50 टॉप यूनिवर्सिटीज़ से ही अपने स्टूडेंट्स चुनती हैं।
यही नहीं, अक्टूबर 2014 'इंडिया एंप्लॉयबिलिटी' सर्वे के अनुसार दुनिया की शीर्ष 200 कंपनियों में से (इनमें भारतीय कंपनियां भी शामिल हैं) 41.6 फीसदी मानती हैं कि रिक्रूटमेंट के लिए अमेरिकी विश्वविद्यालय उनकी प्राथमिकता सूची में पहले या दूसरे स्थान पर होते हैं।
इसी तरह 25.8 फीसदी कंपनियां ब्रिटेन की यूनिवर्सिटियों को श्रेष्ठ मानती हैं। भारतीय विश्वविद्यालय इन कंपनियों के लिए उतने आकर्षक नहीं हैं और काफी निचली पायदान पर आते हैं, तो आखिर क्या कारण हैं कि भारतीय शिक्षा व्यवस्था अंतरराष्ट्रीय मानकों पर खरी नहीं उतर रही।
कम्युनिकेशन स्किल की कमी : इसका एक कारण बताया जा रहा है कि भारतीय विश्वविद्यालयों में सिर्फ विषय संबंधी ज्ञान पर ही जोर दिया जाता है। इन विश्वविद्यालयों में सॉफ्ट स्किल्स को नजरअंदाज़ किया जाता है।
अधिकांश भारतीय ग्रेजुएट्स में कम्युनिकेशन की समस्या है, इंटरव्यू में यह बात आत्मविश्वास में कमी के रूप में दर्ज की जाती है। ग्लोबल कंपनियों में अक्सर यंग मैनेजर्स को तुरत-फुरत फैसले लेने होते हैं और कमज़ोर आत्मविश्वास के कारण ये युवा स्क्रिनिंग में ही बाहर हो जाते हैं।
बेहतरीन ‘विषय ज्ञान’ लिए इन नए भारतीय प्रोफेशनल्स में मौखिक और लिखित संवाद कौशल की भारी कमी है। बहुराष्ट्रीय कंपनियों का मानना है कि भाषा संबंधी समस्याओं के कारण क्लाइंट कम्युनिकेशन, टाइम मैनेजमेंट और बिजनेस डील्स तक प्रभावित होती हैं।
कमजोर अंग्रेजी के कारण कई प्रतिभाशाली भारतीय युवा बड़ी कंपनियों में जगह नहीं बना पाते। एस्पायरिंग माइंड्स के सर्वे के अनुसार 60 हजार ग्रेजुएट्स में से 90 फीसदी अंग्रेजी बोलने में सक्षम नहीं थे।
प्रेक्टिकल नॉलेज की कमी : नब्बे फीसदी भारतीय ग्रेजुएट्स को किसी कंपनी में व्यावहारिक ट्रेनिंग की जरूरत पड़ती है जबकि सिर्फ 14 फीसदी विदेशी ग्रेजुएट्स ही ऐसे होते हैं जिन्हें ऐसी ट्रेनिंग की जरूरत पड़ती है। ग्रेजुएट्स में क्रिएटिविटी, इनोवेशन और रिसर्च में दक्षता नहीं होती, नतीजतन, कई स्टूडेंट्स को इन कमियों की वजह से डिग्री होने के बावजूद नौकरी नहीं मिल पाती है।
इनोवेशन और रिसर्च की कमी : तय ढर्रे से बाहर निकलने का साहस भारतीय विश्वविद्यालय नहीं कर पाते, रिसर्च और इनोवेशन के इंडेक्स पर भारतीय यूनिवर्सिटीज बहुत पीछे हैं, आमतौर पर देखा जाता है कि छात्रों की रुचि भी इनोवेशन के मामले में न हो कर सिर्फ डिग्री पूरी करने में होती है। अगर उन्हें लीक से हटकर कुछ नया करने के लिए प्रोत्साहित किया जाए तो सब्जेक्ट में उनकी रुचि बढ़ेगी और वे नया ज्ञान भी हासिल कर पाएंगे।
घिसा-पिटा सिलेबस : बहुत से विश्वविद्यालयों में ऐसे पाठ्यक्रम नहीं हैं जो कंपनियों की मांग पूरी करते हों, मसलन ऑनलाइन या सोशल मीडिया, ई-कॉमर्स के बढ़ते दायरे पर आधारित कोर्स अधिकांश यूनिवर्सिटीज़ के पाठ्यक्रम में शामिल नहीं हैं। इंडस्ट्री ट्रेंड्स के अनुसार पाठ्यक्रम को बदलने और उसे अधिक व्यावहारिक बनाने की जरूरत है.
समझें क्या चाहते हैं नियोक्ता : भारतीय विश्वविद्यालयों में डिग्री देने को ही कर्तव्य की इतिश्री मान लिया जाता है। निजी कॉलेज में जरूर प्लेसमेंट सेल को गंभीरता से लिया जाता है, लेकिन सरकारी अनुदान पर चलने वाली यूनिवर्सिटीज़ और कॉलेजों में स्टूडेंट्स को सिर्फ डिग्री देकर छोड़ दिया जाता है। होना यह चाहिए कि यूनिवर्सिटी के अधिकारी प्लेसमेंट कंपनियों के संपर्क में रहकर नियोक्ता कंपनियों की मांग को समझें और उसके मुताबिक़ कोर्स में बदलाव करें।
विदेशों की शिक्षा व्यवस्था : अमेरिका में प्रोफेशनल एजुकेशन का सिलेबस कंपनियों की मांग के अनुरूप डिजाइन किया गया है। प्रोफेसर्स इंडस्ट्री की डिमांड के अनुसार खुद अपना सिलेबस तैयार करते हैं।
सिलेबस में लगातार बदलाव और अपडेट होते रहते हैं। यही नहीं, परीक्षा भी प्रेक्टिकल तरीके से होती है। ब्रिटेन में सामान्य ग्रेजुएशन कोर्स 3 साल के होते हैं, लेकिन धीरे-धीरे यहां 4 साल के कोर्स का चलन बढ़ रहा है।
इसका मकसद होता है कि 1 साल स्टूडेंट को ऑन जॉब प्रशिक्षित किया जाए। ब्रिटेन में यूनिवर्सिटी और कोर्स की संख्या अधिक है, यहां पढ़ाई के दौरान ही काम का अनुभव प्राप्त हो जाता है। ऑस्ट्रेलिया में प्रोफेशनल कोर्स का दायरा बहुत स्पष्ट होता है। ऑस्ट्रेलिया में 22,000 से अधिक कोर्स चलते हैं, कोर्स के अनुरूप ही यहां इंफ्रास्ट्रक्चर डेवलप किया जाता है।
शोध के लिए सुविधा : साथ ही रोजगार देनेवाली कंपनियां भी विश्वविद्यालयों के साथ मिलकर काम करती रहती हैं। जर्मनी की उच्च शिक्षा दुनिया भर में बेहतरीन मानी जाती है। जर्मनी में मौजूद लगभग 400 विश्वविद्यालय स्टूडेंट्स को अध्ययन और शोध के लिए बेहतरीन सुविधाएं देते हैं।
ब्रिटिश मैगजीन ‘टाइम्स हायर एजुकेशन’ की सूची में जर्मनी के 11 विश्वविद्यालयों को दुनिया की 200 बेहतरीन यूनिवर्सिटीज में स्थान प्राप्त है। स्टूडेंट्स का पर्सनेलिटी डेवलपमेंट चीन की शिक्षा प्रणाली की विशेषता है, वहां माना जाता है कि सेल्फ इंप्रूवमेंट के बिना कुछ भी संभव नहीं है।
(हिन्दीभाषी छात्रों की मदद के मक़सद से ये बीबीसी हिन्दी और वेबदुनिया डॉट कॉम की संयुक्त पेशकश है। आने वाले दिनों में करियर से जुड़ी ज़रूरी जानकारियां हम आप तक पहुंचाएंगे।)