मंगलवार, 5 नवंबर 2024
  • Webdunia Deals
  1. सामयिक
  2. बीबीसी हिंदी
  3. बीबीसी समाचार
  4. How will cities be set up to deal with the epidemic
Written By BBC Hindi
Last Updated : गुरुवार, 7 मई 2020 (14:24 IST)

कोरोना वायरस : एक महामारी से निपटने के लिए कैसे बसाए जाएंगे शहर

कोरोना वायरस : एक महामारी से निपटने के लिए कैसे बसाए जाएंगे शहर - How will cities be set up to deal with the epidemic
नए कोरोना वायरस की महामारी ने हमारे घर के बाहर की दुनिया को सुनसान जंगल में तब्दील कर दिया है। रेस्तरां, बार, होटल, मॉल, सिनेमाघर और खेल के स्टेडियम जैसे सार्वजनिक ठिकानों पर जाने से पहले अब लोग हज़ार बार सोचेंगे। अब हम केवल ज़रूरी सेवाओं में लगे लोगों के ही क़रीब जाना चाहेंगे।
 
कुल मिलाकर कहें, तो कोविड-19 की महामारी के कारण लगे लॉकडाउन के कारण, अब हमारी दुनिया सिमट कर हमारे अपने घरों में ही समा गई है। आधुनिक युग के शहरों की परिकल्पना, ऐसी महामारी को ध्यान में रख कर नहीं की गई थी। अब दुनिया में इसकी वजह से मची उथल-पुथल ने हमारी ज़िंदगियों को अलग थलग पड़े बेडरूम और स्टूडियो अपार्टमेंट में तब्दील कर दिया है।
 
अमरीका के न्यूयॉर्क स्थित द कूपर यूनियन में आर्किटेक्चर की प्रोफ़ेसर लिडि कैलिपोलिटी कहती हैं कि, 'इस दौर के शहर किसी महामारी को ध्यान में रख कर नहीं बसाए गए हैं। आज के शहरों का जो स्वरूप है, वो तब उचित था जब दुनिया के तमाम देशों के शहर आपस में जुड़े थे। जहां लाखों लोग कामकर रहे थे। अपनी मंज़िलों को आ और जा रहे थे। घूमने फिरने निकलते थे। नाचने गाने, मस्ती करने और शराब की पार्टियों के लिए घर से निकलते थे। जब लोग एक दूसरे को बड़ी बेतकल्लुफ़ी से गले लगा लेते थे। पर आज ऐसा लगता है कि वो दुनिया हमसे बहुत दूर चली गई है।'
 
इक्कीसवीं सदी के पहले बीस बरसों में ही हमने सार्स, मर्स, इबोला, बर्ड फ्लू, स्वाइन फ्लू और अब कोविड-19 के रूप में कई महामारियां देख ली हैं। अगर ऐसा है कि अब मानवता, महामारी के युग में प्रवेश कर चुकी है, तो फिर हमें अब अपने शहरों की रूप-रेखा भी नए सिरे से बनानी होगी। ताकि, घर से बाहर निकलने पर पाबंदी न लगानी पड़े। घर से बाहर क़दम रखने में डर न लगे। हम बाहर जाएं सुरक्षित महसूस करें। ऐसा लगे कि जिन शहरों में हम रहते आए हैं, वो सुरक्षित हैं।
 
जहां तक बीमारियों की रोकथाम की बात है, तो शहरों ने पिछली दो सदियों में एक लंबा सफ़र तय किया है। वैज्ञानिक पत्रकार और 'द फीवर एंड पैन्डेमिक' की लेखिका सोनिया शाह कहती हैं कि, 'पहले कहा जाता था कि शहरों में रहने का मतलब, अपनी ज़िंदगी को कम करना है।'
 
पश्चिमी देशों में औद्योगिक क्रांति के बाद शहरों की आबादी तेज़ी से बढ़ी थी। शहर बेहद प्रदूषित हो गए थे। वो बीमारियों का अड्डा बन गए थे। ख़ास तौर से लंदन और न्यूयॉर्क जैसे बड़े शहर तो संक्रमण के ठिकाने बन गए थे। जैसे जैसे शहरों की आबादी बढ़ी, वैसे वैसे टाइफॉइड और हैजा जैसी बीमारियां, आम लोगों की सेहत के लिए इतनी बड़ी चुनौती बन गईं, कि शहरों में साफ़ सफ़ाई के लिए बिलकुल नई व्यवस्था विकसित करनी पड़ी। इन्हीं बीमारियों के कारण शहरों में सीवर सिस्टम का निर्माण किया गया था।
वर्ष 1840 में प्रकाशित किताब, 'द सेपरेट सिस्टम ऑफ़ सीवरेज, इट्स थ्योरी ऐंड कंस्ट्रक्शन' के लेखकों ने लिखा था कि, 'किसी शहर की गंदगी को शहर में ही जमा करना, बीमारियों और मौत को दावत देने जैसा था। इसी कारण से न्यूयॉर्क शहर में सीवर सिस्टम का निर्माण किया गया।' किताब में आगे लिखा गया था कि, 'इंग्लैंड के कई क़स्बों और शहरों में सीवर प्रणाली का निर्माण करके फेफड़ों की बीमारियों से मौत के आंकड़े को आधा करने में सफलता मिली थी।'
 
हाल के बरसों में शहरों की योजनाएं बनाने में स्वास्थ्य को केंद्र में रखने की मांग में काफ़ी इज़ाफ़ा हुआ है। ब्रिटेन के सेंटर फॉर अर्बन डिज़ाइन एंड मेंटल हेल्थ की निदेशक लेला मैक्के कहती हैं कि, 'हम जिस तरह के लचीले और टिकाऊ शहर चाहते हैं या जिनकी हमें आज ज़रूरत है, उसके लिए शहरों की योजनाएं बनाने के लिए स्वास्थ्य को केंद्र में रख कर डिज़ाइन बनाने होंगे। फिर स्वास्थ्य के पैमानों पर इन योजनाओं का मूल्यांकन करके उन्हें अनुमति देनी होगी।'
 
वर्ष 2016 से इस बात की कई मिसालें हमें दुनिया के अलग अलग हिस्सों में देखने को मिली हैं। जैसे कि सिंगापुर का नेशनल पार्क्स बोर्ड सार्वजनिक उद्यानों में स्वास्थ्यवर्धक बागीचे विकसित कर रहा है, जिससे वो अपने नागरिकों की भावनात्मक बेहतरी और मानसिक स्वास्थ्य को मज़बूत कर सके। जापान की राजधानी टोक्यो में रहने वाले लोग शहरी डिज़ाइनरों के साथ मिल कर काम कर रहे हैं, ताकि वो अपने मुहल्लों में हरियाली को बढ़ा सकें और अपनी सेहत बेहतर बना सकें।
 
पिछली एक सदी में हमारी आबादी का एक बड़ा हिस्सा शहरों में रहने लगा है। इसकी वजह रोज़गार की तलाश भी है। और, हमारी रोज़मर्रा की ज़रूरतों, जैसे कि खान-पान और स्वास्थ्य सेवाओं के संसाधनों के क़रीब होना भी है। जैसे जैसे दुनिया भर के शहरों की आबादी बढ़ी है, तो बहुत से शहरी योजनाकारों ने अच्छे स्वास्थ्य की दृष्टि से शहरों को उपनगरीय या ग्रामीण इलाक़ों के मुक़ाबले बेहतर बनाने का काम किया है। 2017 में ब्रिटेन में हुए एक अध्ययन के अनुसार, उपनगरीय इलाक़ों के मुक़ाबले मुख्य शहरी बस्तियों में रहने का सीधा संबंध कम मोटापे से पाया गया था। यही स्थिति अमेरिका के शहरों में भी देखी गई थी।
 
पर, इन बातों का ये मतलब नहीं है कि जब बात संक्रामक बीमारियों की हो, तो भी शहरों में रहना श्रेयस्कर होगा। किसी भी महामारी के फैलने पर बड़े और व्यस्त शहर बहुत बड़ी चुनौती बन जाते हैं। त्वरित और कार्यकुशल स्वास्थ्य सेवा के बिना किसी भी बड़े शहर में संक्रमण को रोक पाना एक दुरूह कार्य होगा। जितना ही बड़ा और आपस में जुड़ा हुआ शहर होगा, महामारी में वो उतनी ही बड़ी चुनौती बन जाएगा।
 
हाल ही में विश्व आर्थिक मंच के लिए एक लेख में रेबेका कैत्ज़ और रॉबर्ट मुगाह ने लिखा था कि, 'चूंकि बड़े शहर कई देशों के बीच व्यापार और आवाजाही का माध्यम होते हैं। इनकी आबादी घनी बसी होती है। और ये शहर आपस में भी जुड़े होते हैं, तो इनके कारण किसी भी देश में महामारी की चुनौती और बढ़ जाती है।' रेबेका कैत्ज़ ब्रिटेन के सेंटर फॉर ग्लोबल हेल्थ साइंस और सिक्योरिटी की सह निदेशक हैं। वहीं, रॉबर्ट मुगाह, ब्राज़ील स्थित थिंक टैंक इगारपे इंस्टीट्यूट के निदेशक हैं। एक आकलन के मुताबिक़, वर्ष 2050 तक दुनिया की 68 प्रतिशत आबादी शहरों में रहने लगेगी। ऐसे में शहरों को किसी महामारी से निपटने के लिए तैयार करने के लिए उन्हें नई योजना के तहत बसाना होगा। कोविड-19 के चलते ये ज़रूरत और बढ़ गई है।
 
महामारी के शहरी हॉटस्पॉट
 
दुनिया के हर शहर में ही महामारी के तेज़ी से फैलने के लिए मुफ़ीद माहौल नहीं है। कोपेनहेगेन जैसे अमीर शहरों में जहां ढेर सारी हरियाली है और साइकिल चलाने के लिए पर्याप्त ट्रैक बने हुए हैं, ऐसे शहर अपने स्वास्थ्य सुविधाओं के लाभों के लिए विश्व प्रसिद्ध हैं। लेकिन, मुंबई, दिल्ली या बांग्लादेश की राजधानी ढाका और केन्या की राजधानी नैरोबी के बारे में ऐसा नहीं सोचा जा सकता। क्योंकि, इन शहरों की आबादी का एक बड़ा हिस्सा बेढब तरीक़े से फैली बस्तियों में आबाद है।
 
सार्वजनिक स्वास्थ्य के विशेषज्ञ और हार्वर्ड ग्रेजुएट स्कूल ऑफ़ डिज़ाइन के लेक्चरर एल्विस गार्सिया कहते हैं कि, 'साफ़ सफ़ाई की उचित व्यवस्था और नहाने धोने के लिए साफ पानी की अनुपलब्धता के कारण ही महामारियों के फैलने की सबसे अधिक आशंका होती है। अगले दस वर्षों में दुनिया की बीस प्रतिशत आबाद ऐसे शहरी इलाक़ों में आबाद होगी, जहां पानी, स्वास्थ्य और साफ़ सफाई की सही सुविधाओं का अभाव होगा।'
 
अगर नए कोरोना वायरस जैसे किसी ऐसे वायरस का प्रकोप फैलता है जिसका पता बहुत देर से चलता हो, तो शहरों के कमज़ोर तबक़ों को बड़ी तबाही का सामना करना पड़ेगा। हमने पश्चिमी अफ्रीका में 2014 से 2016 के बीच फैले इबोला वायरस के प्रकोप के दौरान इसकी मिसाल देखी थी। इबोला वायरस से सबसे बुरी तरह प्रभावित देशों में साफ पानी और साफ सफाई की सुविधाओं का बहुत ज़्यादा अभाव था। इसी वजह से इबोला वायरस का प्रकोप और भी तेज़ी से फैला। बुनियादी साफ़ सफ़ाई की व्यवस्था करना, किसी भी स्वस्थ शहर के लिए पहली शर्त है। एल्विस गार्सिया कहते हैं कि, 'इसका मतलब है कि शहरों में पानी, साफ़ सफाई के सिस्टम और अच्छी गुणवत्ता वाले मकान बनाने की ज़रूरत है।'
 
शहरों में आबादी का घनत्व भी महामारी के प्रकोप को कम या ज़्यादा बनाए रखने में बड़ी भूमिका निभाता है। ज़्यादा घनी आबादी का मतलब है कि भीड़ होना, जो किसी वायरस का संक्रमण फैलने का मुफ़ीद माहौल होता है। 2002 और 2003 में हॉन्ग कॉन्ग की एक सोसाइटी सार्स के प्रकोप का केंद्र बन गई थी। हॉन्ग कॉन्ग दुनिया का सबसे घना बसा इलाक़ा है। यहां लोगों के बीच काफ़ी असमानताएं हैं। इसी कारण से सार्स वायरस के कारण हॉन्ग कॉन्ग में 800 लोगों की जान गई थी।
 
इसी तरह, कोविड-19 का केंद्र रहा चीन का वुहान शहर, मध्य चीन का सबसे घना बसा शहर है, जहां एक करोड़ दस लाख लोग रहते हैं। इसी तरह, अमेरिका में कोरोना वायरस से सबसे अधिक प्रभावित न्यूयॉर्क शहर, देश का सबसे घना बसा शहरी इलाक़ा है। मैनहट्टन के सेंट्रल पार्क और ब्रुकलिन के प्रॉस्पेक्ट पार्क जैसे खुले इलाक़े होने के बावजूद, न्यूयॉर्क की जनता को एक दूसरे से दूरी बनाए रखने में काफ़ी मशक़्क़त करनी पड़ी। जिसके कारण महामारी की रोकथाम में दिक़्क़तें आईं।
 
महामारी से निपटने में सक्षम भविष्य के शहर कैसे होंगे, इसकी झलक हम उन शहरों में देख सकते हैं, जो कोविड-19 की रोकथाम के लिए अपने अंदर बदलाव ला रहे हैं।
 
इसका एक उदाहरण न्यूयॉर्क शहर के पार्षद कोरे जॉनसन ने पॉलिटिको पत्रिका को दिए एक इंटरव्यू में दिया था। जॉनसन ने सुझाव दिया था, 'शहर के कुछ हिस्सों में यातायात बंद कर के उन्हें वर्ज़िश के लिए खोल देना चाहिए। अगर आप कुछ सड़कों को चुन कर उनमें ट्रैफिक रोक देते हैं, तो इससे आप सोशल डिस्टेंसिंग के लक्ष्य ज़्यादा आसानी से हासिल कर सकते हैं।'
 
न्यूयॉर्क के गवर्नर एंड्र्यू कुओमो ने सड़कें बंद करने के इस विचार का समर्थन किया था। उन्होंने न्यूयॉर्क की कुछ सड़कों पर यातायात को बंद भी किया था। हालांकि, ये प्रतिबंध महज़ 11 दिन तक ही जारी रहे। लेकिन, कनाडा के कैलगरी से लेकर जर्मनी के कोलोन शहर तक, पूरी दुनिया के शहर, अपनी सड़कों पर ट्रैफिक को रोक कर लोगों के लिए जगह बना रहे हैं। अमरीका के ओकलैंड में तो 74 मील सड़कों को पैदल चलने और साइकिल चलाने वालों के लिए ही खोल रखा था। भविष्य के शहरों में पैदल चलने वालों को ध्यान में रख कर योजना बनानी होगी। चौड़े फुटपाथ बनाने होंगे।
 
मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य के लिए हरियाली भी बहुत ज़रूरी है। नीदरलैंड के एम्टर्डम में आर्किटेक्ट मारियान्ती तातारी कहती हैं कि, 'हर रोज़ बीस मिनट हरियाली के बीच गुज़ारने से आज के जैसे तनावपूर्ण माहौल से लड़ने में काफ़ी मदद मिलती है।'
 
साफ़ सफ़ाई रख कर महामारी को क़ाबू करने का नुस्खा पुराना है। ऐसे में किसी ऐसे पार्क की कल्पना बेकार है, जहां हाथ धोने के लिए व्यवस्था न हो। इसलिए, आने वाले समय में हर शहर में हाथ धोने के पर्याप्त संसाधन उपलब्ध कराने होंगे।
 
मारियान्ती तातारी कहती हैं कि, 'अगर हर कोई अपने हाथ को नियमित रूप से धोए, तो संक्रमण रोकने में काफ़ी मदद मिलेगी। मगर हम नियमित रूप से हाथों को नहीं धोते, इसकी बड़ी वजह शायद ये है कि इसके लिए सुविधाओं की कमी है।' इसके अलावा रिहाइशी इलाक़ों में आवाजाही के संसाधनों को भी बढ़ाना होगा। जैसे कि सार्वजनिक परिवहन, या इमारतों में एक से ज़्यादा लिफ्ट की सुविधा। ताकि, लोग एक दूसरे से टकराएं नहीं।
 
ब्रिटेन की वेस्टमिंस्टर यूनिवर्सिटी की जोहान वोल्टजर कहती हैं कि, 'हम आज जिस तरह के संकट में फंसे हैं, उसके लिए अस्थायी अस्पतालों और रिहाइशी सुविधाओं को तुरंत तैयार करने की क्षमता भी शहरों को विकसित करनी होगी।'
 
जोहान इसके लिए चीन के वुहान शहर की मिसाल देती हैं, जहां केवल दस दिनों में एक हज़ार बिस्तरों वाला अस्पताल तैयार कर लिया गया था। इसी तरह लंदन में नाइटेंगल अस्पताल को केवल नौ दिनों में कोविड-19 के चार हज़ार मरीज़ों को रखने के लिए तैयार किया गया था। ऐसी अस्थायी सुविधाएं विकसित करने के लिए शहरों में ज़मीन भी होनी चाहिए और उनके पास इसके लिए संसाधन भी होने चाहिए।
 
जोहान वोल्टजर कहती हैं कि किसी महामारी की सूरत में शहरों के पास ज़रूरी सेवाओं की आपूर्ति, ख़रीदारी और सामान की उपलब्धता से लेकर बस्तियां ख़ाली कराने के रास्ते जैसी सुविधाएं होनी चाहिए। तेज़ी से निर्माण के लिए ऐसे मैटेरियल होने चाहिए, जो तुरंत काम आ सकें, जैसे कि लकड़ी। जो बहुत से लोगों को अभी भी टिकाऊ विकास के लिए ज़रूरी लगता है। आगे चल कर शिपिंग कंटेनर से इमारतें बनाने का भी चलन बढ़ सकता है। वो बने बनाए घर जैसे होते हैं और उनकी मदद से छोटी इमारतें बड़ी फ़ुर्ती से तैयार होती हैं।
 
यानी शहरों के मौजूदा ख़ाली स्थानों का बेहतर इस्तेमाल, साफ़ सफाई की व्यवस्था का विस्तार और पैदल चलने वालों के लिए अधिक जगह छोड़ने जैसे क़दम उठा कर महामारी से लड़ने लायक़ शहर बसाए जा सकते हैं।
 
आने वाले समय में शहरों में एक ऐसा बदलाव भी आएगा, जो खुली आंखों और शानदार इमारतों से नहीं दिखाई देगा। आज सैटेलाइट की मदद से इमारतों के आर्किटेक्चर और डिज़ाइन बदले जा रहे हैं। इनकी मदद से वायरस जैसी अदृश्य चुनौतियों का सामना किया जा सकेगा।
 
जोहान इसके लिए अमरीका के एमआईटी द्वारा किए गए सेंसिबल सिटी लैब के एक प्रयोग की मिसाल देती हैं। इसके अंतर्गत, शहरों की सीवर लाइनों में सेंसर लगाए गए थे। ताकि उन ठिकानों का पता लगा सकें जहां पर अवैध ड्रग, और नुक़सानदेह बैक्टीरिया का अड्डा है। महामारी से निपटने के लिए बनाए जाने वाले भविष्य शहरों में ऐसे सेंसर लगाए जा सकेंगे, ताकि वो महामारी के प्रकोप को फैलने से रोकने में मदद कर सकें।
 
आत्मनिर्भर शहर
 
किसी भी शहर को महामारी से बचना है, तो उसे दूसरे शहरों पर निर्भरता कम करनी होगी। आज दुनिया के किसी भी कोने से कोई भी सामान हमारे पास कुछ घंटों या कुछ दिनों में पहुंच जाता है। लेकिन, इन सामानों के साथ ख़तरनाक वायरस भी हम तक दूर दराज़ से पहुंच जाते हैं।
 
सपना शाह कहती हैं कि, 'हमारे शहर कोई क़िले नहीं हैं।' वैज्ञानिक कहते हैं कि वुहान में कोरोना वायरस चमगादड़ों से इंसानों में पहुंचा। और इस दौरान वो किसी अन्य जानवर से होकर गुज़रा। वुहान का बड़ा रेलवे स्टेशन और व्यस्त हवाई अड्डा, दुनिया के तमाम देशों और चीन के अन्य शहरों को वुहान से जोड़ता है। सपना शाह कहती हैं कि, 'चीन ने 23 जनवरी को वुहान शहर में लॉकडाउन लागू किया था। उससे पहले क़रीब पचास लाख लोग वुहान शहर से दुनिया के तमाम हिस्सों तक जा चुके थे।'
 
इन्हीं लोगों के ज़रिए नया कोरोना वायरस पूरी दुनिया में फैल गया। सपना शाह कहती हैं कि हमारे शहरों को चाहिए कि वो अपनी ज़रूरत का सामान आस पास के इलाक़ों से ही हासिल करें। हालांकि, ऐसा पूरी तरह से कर पाना तो संभव नहीं है। लेकिन, संतुलित जीवन और टिकाऊ विकास के लिए ये आवश्यक है।
 
हम ऐसा कर सकते हैं, इसकी मिसाल इतिहास से सीखी जा सकती है। दूसरे विश्व युद्ध के दौरान अमरीका में क़रीब दो करोड़ लोगों ने अपने घरों में सब्ज़ी उगाने के प्लॉट विकसित किए थे। इनसे हर साल 90 लाख पाउंड सब्ज़ियों का उत्पादन किया जाता था। जो उस समय अमरीका के कुल सब्ज़ी उत्पादन का 44 प्रतिशत था। फिर भी, आत्मनिर्भर शहरों का निर्माण करना बहुत बड़ी चुनौती है।
 
गार्सिया कहते हैं कि, 'बड़े शहरों के भीतर ऐसी छोटी छोटी बस्तियां विकसित करनी चाहिए, जहां पर ज़रूरत का सारा सामान थोड़ी दूरी पर मिल जाए।'
 
अगर स्थानीय स्तर पर तमाम सुविधाएं होंगी, तो किसी संक्रामक महामारी से निपटने की एक और चुनौती का हल भी निकाला जा सकेगा। तब सार्वजनिक परिवहन व्यवस्था पर निर्भरता कम होगी। लोग पैदल या साइकिल से अपने ठिकानों पर जा सकेंगे। या दफ़्तर आ जा सकेंगे। इससे सड़क पर सार्वजनिक परिवहन कम होगा।
 
अगर हमें ख़ुद को महामारी से निपटने के लिए तैयार करना है, तो हमें अपने घरों में भी बदलाव लाने होंगे। अपने रिहाइशी फ्लैट, बाज़ारों, दफ़्तरों को भी खुला बनाना होगा। जहां रौशनी और हवा के आने जाने की पर्याप्त सुविधा हो। क्योंकि महामारी की सूरत में लोगों को लंबे समय के लिए घरों में रहना पड़ता है, इसलिए भविष्य में ऐसी सुविधाओं से लैस घर बनाने होंगे। आने वाले समय में घरों के भीतर संक्रमण ख़त्म करने की सुविधाओं वाले कोने भी बनाने पड़ सकते हैं।
 
इटली के आर्किटेक्ट रॉबर्टो पालोम्बा इस समय अपने घर में क्वारंटीन में हैं। वो कहते हैं कि, 'हम मौजूदा संकट से केवल नए शहर बसा कर नहीं निकल सकते। हमें अपनी सोच में बदलाव लाना होगा।'
 
रॉबर्टो कहते हैं कि, 'हमने प्रकृति का दुरुपयोग किया है। इसी वजह से महामारियां फैली हैं। नए शहरों के बारे में सोचने से पहले हमें ये कोशिश करनी होगी कि नई महामारियां न पनपें। शहर ऐसे बसने चाहिए जहां हर जीव अमन से दूसरे के साथ रह सके।'
 
तो, शायद अभी हमें भविष्य के चमकदार शहरों का तसव्वुर छोड़ कर व्यवहारिक विकल्पों पर ग़ौर करना चाहिए। जैसे कि शहरों में हाथ धोने की सुविधाओं का विकास करना। लोगों की नज़रों में न आने वाले सेंसर लगाना, ताकि सीवर में पनप रहे ख़तरनाक जीवों के बारे में पहले से पता चल सके। इससे हम किसी महामारी से निपटने के लिए बेहतर ढंग से तैयार होंगे। आने वाले समय में खुले स्थानों के विकास पर ज़्यादा ध्यान देना होगा, ताकि लोग आपस में टकराएं नहीं। उन्हें घूमने फिरने और वर्ज़िश करने के लिए पर्याप्त जगह मिले। साथ ही साथ ऐसे संसाधन विकसित करने चाहिए कि ज़रूरत के वक़्त लोगों को हर सुविधा उनके दरवाज़े पर मिल सके।
ये भी पढ़ें
Corona Effect: राजस्थान ने सीमाएं सील की, बिना अनुमति प्रवेश नहीं