- उर्मिलेश (वरिष्ठ पत्रकार)
भारत की राजनीति में जाति का सवाल उठना या उसका चुनावी-इस्तेमाल होना, कोई नई बात नहीं है। कम्युनिस्ट पार्टियों को छोड़कर प्रायः सभी राजनीतिक दल जाति के मसलों को उठाते रहे हैं और ज़रूरत के हिसाब से उसका इस्तेमाल भी करते रहे हैं। जाति-समीकरणों के आधार पर जब क्षेत्रीय दल बड़े राष्ट्रीय दलों को किसी क्षेत्र-विशेष में चुनौती देते हैं तो बड़े दलों के नेता उन सूबाई प्रभावशाली नेताओं की कथित 'जातिवादी-राजनीति' का शोर मचाने लगते हैं।
लेकिन सच ये है कि सभी प्रमुख राजनीतिक दल जातिगत समीकरणों के राजनीतिक-इस्तेमाल की कोशिश करते हैं। कम्युनिस्टों ने वर्ग की राजनीति के नाम पर जाति को नजरंदाज़ किया, इसलिए देश के दो-तीन राज्यों को छोड़कर शेष भारत में वे आमतौर पर हाशिये पर ही रह गए।
कांग्रेस की ओबीसी राजनीति
लंबे समय बाद उनके कुछ प्रमुख नेता दबे स्वर में ही सही, अब अपनी उस भूल को अनौपचारिक स्तर पर स्वीकारने लगे हैं। इसलिए कांग्रेस जैसी बड़ी और पुरानी पार्टी ने अगर दिल्ली के तालकटोरा स्टेडियम में सोमवार को ओबीसी सम्मेलन किया तो इस पर किसी को अचरज नहीं होना चाहिए। साल 2014 के लोकसभा चुनाव, साल 2015 के बिहार विधानसभा चुनाव और साल 2017 के यूपी चुनाव में भारतीय जनता पार्टी ने पिछड़े वर्ग में शुमार जातियों (ओबीसी) का समर्थन हासिल करने की जबर्दस्त कोशिश की थी। कई क्षेत्रों में उसे कामयाबी मिली।
हमें नहीं भूलना चाहिए कि हिन्दुत्व एजेंडे की पार्टी ने पिछड़ी जातियों के बीच अपने सबसे कद्दावर नेता नरेंद्र मोदी की 'हिन्दू-राष्ट्रवादी' की बजाय 'ओबीसी-पहचान' का जमकर प्रचार किया। आजादी के बाद लंबे समय तक कांग्रेस की पहचान एक ऐसी राष्ट्रीय पार्टी की रही, जिसके पास सवर्ण हिन्दू जातियों की अगुवाई में दलितों-अल्पसंख्यकों का विशाल सामाजिक गठबंधन है।
दलित-अल्पसंख्यकों को वाजिब हिस्सेदारी
लेकिन पार्टी ने संगठन और सत्ता में दलितों-अल्पसंख्यकों को वाजिब हिस्सेदारी कभी नहीं दी। उसने इन समाजों में अपने कुछ 'प्रतीक-पुरूष' पैदा किए और उनके इर्दगिर्द ही इन जातियों की चुनावी-गोलबंदी हुआ करती थी। उदाहरण के लिए दलित समाज से बाबू जगजीवन राम।
मुस्लिम समाज में भी कांग्रेस के पास अलग-अलग राज्यों में कई नेता हुआ करते थे। बाद के वर्षों में इन जातियों के बीच 'हिस्सेदारी' का सवाल उठने लगा और कांग्रेस नेतृत्व पर सवाल किये जाने लगे। हिन्दी-क्षेत्र, खासकर यूपी में कांशीराम के नेतृत्व में उभरी बहुजन समाज पार्टी ने कांग्रेस के दलित-वोटबैंक का सफाया कर डाला।
समय-समय पर होने वाले सांप्रदायिक दंगों और फिर बाबरी मस्जिद ध्वंस प्रकरण में तत्कालीन पीवी नरसिंहराव सरकार की 'संदिग्ध भूमिका' के चलते मुस्लिम समाज का भी कांग्रेस से मोहभंग होता नजर आया। यूपी-बिहार जैसे राज्यों में इनका झुकाव समाजवादी पार्टी और जनता दल या बाद के दिनों के राष्ट्रीय जनता दल की तरफ हुआ।
कांग्रेस पार्टी का ओबीसी से रिश्ता
जहां तक ओबीसी का सवाल है, हिन्दी भाषी राज्यों में आज़ादी के पहले से ही इनका कांग्रेस से अच्छा रिश्ता नहीं रहा। साल 1935-37 के प्रांतीय चुनावों के दौरान यादव-कुर्मी-कुशवाहा जातियों के सामाजिक-राजनीतिक मंच- 'त्रिवेणी संघ' ने कांग्रेस को चुनौती दी थी। तब कांग्रेस के ज़्यादातर उम्मीदवार ब्राह्मण, भूमिहार, राजपूत और कायस्थ जाति से हुआ करते थे और यह सिलसिला आज़ादी के बाद लगभग तीन दशक तक चलता रहा।
बिहार में जो काम त्रिवेणी संघ नहीं कर सका, उसे बाद के दिनों में सोशलिस्ट पार्टी ने किया। इसी पार्टी से टूट-बिखकर कर एसएसपी-पीएसपी, लोकदल, जनता पार्टी, जनता दल और राजद जैसे दल बनते गए। यूपी में सोशलिस्टों और कांग्रेस से निकले नेताओं ने मिलकर चौधरी चरण सिंह की अगुवाई में बीकेडी बनाया। बाद में इससे अलग-अलग गुट और दल बनते गये। ओबीसी की सामाजिकता और राजनीतिक ऊर्जा को 'मंडल' ने नया आकार दिया।
मंडल आयोग का ओबीसी वर्ग पर प्रभाव
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 340 की रोशनी में गठित काका कालेलकर आयोग जो काम नहीं कर सका, वह 'मंडल आयोग' ने किया। कांग्रेस से पिछड़ों की नाराजगी रही कि कांग्रेस की तत्कालीन सरकारों ने उसकी सिफारिशों को लागू करने में दिलचस्पी नहीं दिखाई। जनता दल सरकार के प्रधानमंत्री वी पी सिंह ने 7 अगस्त, 1990 को इसे लागू करने का ऐलान किया।
समाजशास्त्रियों का एक खेमा मानता है कि मंडल के पिछड़ा उभार की काट के लिए ही संघ परिवार 'कमंडल' को सामने लाया। भारतीय जनता पार्टी के तत्कालीन शीर्ष नेता लालकृष्ण आडवाणी मंदिर-मस्जिद प्रकरण को लेकर रथयात्रा लेकर भारत-भ्रमण पर निकल पड़े।
बाबरी मस्जिद विध्वंस का असर
बाद के दिनों में कई स्थानों पर दंगे-फसाद हुए और अंततः 'हिन्दुत्वा-ब्रिगेड' की अगुवाई में कथित रामभक्तों की उग्र भीड़ ने अयोध्या की बाबरी मस्जिद को साल 1992 के 6 दिसम्बर को ध्वस्त कर दिया। राजनीतिक स्तर पर इसका असर साफ़-साफ़ दिखने लगा।
'मंडल' के ज़रिए हुई पिछड़ों की बड़ी गोलबंदी, जिससे दलितों-अल्पसंख्यकों का भी बड़ा हिस्सा जुड़ता नजर आया था, उसे चुनौती देने के लिए 'कमंडल' के नाम पर जातियों का दूसरा बड़ा गठबंधन देखने को मिला। इस प्रक्रिया में सबसे बड़ा घाटा कांग्रेस को हुआ। उसका सवर्ण हिन्दू जनाधार खिसके लगा।
दलित-अल्पसंख्यक पहले से ही बिदक रहे थे। सवर्णों का झुकाव भाजपा की तरफ देखा गया। भाजपा ने सवर्ण जातियों के अलावा अपने पुराने वैश्य सामुदायिक आधार और गैर-यादव पिछड़ों में भी पैठ बनाई। देखते-देखते वह राष्ट्रीय स्तर पर बड़ी पार्टी बन गई। बाद के दिनो में उसने कई बड़े-बड़े सियासी किले फतह किये। आज केंद्र समेत कई राज्यों में सत्ता का संचालन कर रही है।
भाजपा को ओबीसी वर्ग का समर्थन
यूपी के पिछले चुनाव में उसे ओबीसी में भारी समर्थन मिला। हालांकि उसने मुख्यमंत्री के तौर पर सवर्ण जाति से आये नेता योगी आदित्यनाथ को चुना। अपने नये ओबीसी आधार को 'तुष्ट' करने के लिए पार्टी ने अपने 'ओबीसी-चेहरा' केशव मौर्य को उपमुख्यमंत्री बनाया।
लेकिन पार्टी में सवर्ण वर्चस्व जारी रहा। उपमुख्यमंत्री का दूसरा पद सृजित कर दिनेश शर्मा को लाया गया और प्रांतीय संगठन की कमान महेंद्र पांडे को सौंपी गई। केंद्रीय और प्रांतीय स्तर पर देखें तो भाजपा आज भी सवर्ण-वैश्य वर्चस्व की पार्टी बनी हुई है। पार्टी के मुख्य वैचारिक इंजन समझे जाने वाले राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का नेतृत्व आमतौर पर उच्च वर्ण की एक ही जाति के स्वयंसेवक करते हैं।
इस वक्त भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व (पार्टी अध्यक्ष और सरकार के प्रमुख यानी प्रधानमंत्री) में वैश्य समुदाय से आने वाले नेता शामिल हैं। इनमें एक अपनी ओबीसी पृष्ठभूमि का खुलेआम प्रचार करते हैं। इसके बावजूद भाजपा आज भी सवर्ण हिंदुओं की सबसे भरोसेमंद पार्टी बनी हुई है। पिछड़ी जातियों का एक बड़ा हिस्सा इस बात से सहमा सा है कि कहीं भाजपा की सरकार आरक्षण प्रावधानों को खत्म या उनका दायरा बहुत सीमित न कर दे।
पार्टी के नेतृत्व और उसके ओबीसी आधार में अंतर्विरोध बढ़ता दिख रहा है, इसके चलते ही हिन्दी क्षेत्र के कई राज्यों में भाजपा का पिछड़ा (ओबीसी) आधार कुछ खिसकता नजर आ रहा है। हाल ही में गोरखपुर, फूलपुर, कैराना की संसदीय सीट और नूरपुर विधानसभा सीट के उपचुनावों में भाजपा को पिछड़ों का पहले जैसा समर्थन नहीं मिला और पार्टी का हार का सामना करना पड़ा।
राहुल के दौर में कांग्रेस की रणनीति
राहुल गांधी के दौर में कांग्रेस अगर ग़लतियां कर रही हैं तो अपनी कुछ पुरानी ग़लतियों से सीखने की भी कोशिश कर रही है। हाल के दो-ढाई बरसों में कांग्रेस के रवैये में बदलाव है, जो राहुल के शीर्ष नेतृत्व में आने के बाद ज्यादा साफ दिखाई देने लगा है।
पार्टी को यह बात समझ में आने लगी है कि ज्यादातर राज्यों में उसके उच्चवर्णीय आधार का बड़ा हिस्सा छिटक कर भाजपा की तरफ जा चुका है। दूसरी तरफ, पिछड़ों की पहचान वाली कई क्षेत्रीय पार्टियां इस वक्त संकट में हैं। उनके नेतृत्व में बिखराव दिख रहा है और जनाधार भी सिकुड़ रहा है।
कांग्रेस ने बहुत सोच-समझकर ओबीसी और अन्य मातहत समूहों को साधने की कोशिश शुरू की है। यह महज संयोग नहीं कि इस वक्त पार्टी के सांगठनिक-ढांचे में अशोक गहलोत और गुलाम नबी आजाद जैसे नेता सबसे ताकतवर बनकर उभरे हैं।
सोनिया गांधी के दौर में जनार्दन द्विवेदी और मोतीलाल वोरा आदि ज्यादा प्रभावी हुआ करते थे। प्रांतीय स्तर पर भी नेताओं का नया समूह उभरा है। ओबीसी समुदाय के ऐसे नेताओं में सिद्दारमैया, भूपेश बघेल, डीके शिवकुमार आदि प्रमुख हैं। लेकिन हिन्दी-बेल्ट के तीन सूबों-यूपी, बिहार और मध्य प्रदेश में कांग्रेस के पास अब भी ओबीसी का कोई बड़ा चेहरा नहीं है। कोई नहीं जानता कि नया जनाधार तलाशने की इस कांग्रेसी-प्रक्रिया का क्या हश्र क्या होगा।
यह सवाल इसलिए कि कांग्रेस में 'पर्दे के पीछे के' शीर्ष सलाहकार और रणनीतिकार आज भी 'अंग्रेजीदां-इलीट' तबके के हैं और वे राहुल गांधी की नए सोच और नयी दिशा से बहुत खुश नजर नहीं आते। पर ये सच है कि पार्टी पिछड़ी जातियों और अन्य मातहत समूहों से सहयोग का नया समीकरण तलाश रही है। हाल का ओबीसी सम्मेलन इसी प्रक्रिया का हिस्सा था।