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Last Modified: शुक्रवार, 5 जुलाई 2019 (08:04 IST)

बजट 2019: कॉर्पोरेट और आम लोगों के बीच संतुलन साधने की चुनौती

बजट 2019: कॉर्पोरेट और आम लोगों के बीच संतुलन साधने की चुनौती - Budget 2019 : Chellange of balance between corporates and common man
मोदी सरकार शुक्रवार को अपने दूसरे कार्यकाल का पहला बजट पेश करने जा रही है। इसके पहले सरकार ने गुरुवार को संसद में आर्थिक सर्वे पेश किया जिसमें विकास दर के सात फ़ीसदी रहने का अनुमान लगाया गया है।
 
ये बजट ऐसे समय पेश हो रहा है जब देश के कोर सेक्टर में मंदी का असर है, बेरोज़गारी के आंकड़े चिंता का सबब बने हुए हैं और विकास दर के मामले में भारतीय अर्थव्यवस्था की रफ्तार पहले जैसी नहीं है। लेकिन भारी बहुमत से जीत कर दोबारा सत्ता में आए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से कारोबारी जगत और आम लोगों की उम्मीद और भरोसा बना हुआ है।
 
शायद यही वजह है कि बिना समय गंवाए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बड़े आर्थिक सुधारों के लिए 100 दिन का एक्शन प्लान बनाया और श्रम कानूनों में संशोधन से लेकर सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों में विनिवेश का खाका तैयार करने को कहा।
 
इस बजट में मोदी सरकार के सामने कॉर्पोरेट जगत के लिए रियायतें और आम लोगों के लिए राहत देने में संतुलन साधने की चुनौती होगी। इसके अलावा जीएसटी जैसे मुद्दे पर भी हो सकता है सरकार कोई नई घोषणा करे।
 
इन्हीं सारे मसलों पर बीबीसी संवाददाता सर्वप्रिया सांगवान ने जानेमाने अर्थशास्त्री प्रभात पटनायक और गुरुचरन दास से बात की। पढ़ें वे किस तरह देखते हैं इस बजट को।
 
प्रभात पटनायक का नजरिया
सरकार ने अपने आर्थिक सर्वे में सात फिसदी विकास दर का अनुमान जताया है। जबकि पूर्व मुख्य आर्थिक सलाहकार अरविंद सुब्रमण्यम ने जीडीपी के पहले के आंकड़ों पर सवाल उठाए हैं।
 
उनका कहना है कि अभी जो गणना है उसमें आंकड़ों को बढ़ा कर दिखाया गया है। उनका दावा है कि भारत की वास्तविक जीडीपी विकास दर तकरीबन 4।5 प्रतिशत है। इसलिए जो सात प्रतिशत का अनुमान अभी जताया गया है वो सवालों के घेरे में है कि इस आकलन का आधार क्या है? जीडीपी के ये आंकड़े विश्वसनीय नहीं हैं और ये भी नहीं पता कि सचमुच जीडीपी के आंकड़े क्या हैं। लेकिन अगर मान लिया जाए कि विकास दर ऊंची है तो बेरोज़गारी के आंकड़े चिंताजनक हैं।
 
जहां बेरोजगारी दर दो तीन प्रतिशत हुआ करता था, अभी वो बढ़कर छह प्रतिशत हो चुका है। एक तरफ़ विकास दर का इतना ऊंचा अनुमान है, दूसरी तरफ़ बेरोजगारी के आंकड़े। इसलिए अर्थव्यव्था में एक किस्म की नौकरी विहीन विकास की स्थिति बन गई है। ऐसे में मोदी सरकार को चाहिए कि वो कृषि क्षेत्र और छोटे उद्योग धंधों को बढ़ावा दे, जो नोटबंदी और जीएसटी लागू होने से बहुत बुरी तरह मार खाए हुए हैं।
 
इसके लिए कृषि क्षेत्र को बड़ी राहत देनी होगी, हालांकि जो अभी सरकार ने न्यूनतम समर्थन मूल्य घोषित किया है वो बहुत ही कम है। हालांकि सरकार साल भर में किसानों को छह हज़ार रुपये का समर्थन देने का वादा किया है।
 
खेती किसानी की हालत सुधारनी है तो सरकार को सबसे पहले कैश क्रॉप को भी न्यूनतम समर्थन मूल्य के दायरे में लाना होगा, जोकि पिछली सरकारों ने ही खत्म कर दिया था।
 
सबसे अधिक रोज़गार छोटी छोटी उत्पादन इकाईयों में बढ़ता है, बड़ी उत्पादन इकाईयों में बहुत कम रोज़गार बढ़ता है। इसलिए छोटे उद्योगों को समर्थन बढ़ाना होगा।
 
दूसरे, सरकार को अपना खर्च यानी कल्याणकारी स्कीमों पर खर्च बढ़ाना चाहिए। इन दो क्षेत्रों में सुधार का काफ़ी असर देखने को मिल सकता है। अगर सरकार खर्च बढ़ाती है तो इससे देश में मांग बढ़ेगी और इससे उत्पादन और फिर रोजगार बढ़ेगा।
 
मौजूदा सरकार के सामने सबसे बड़ी चुनौती बेरोज़गारी तो है ही, इसके अलावा अमीरी ग़रीबी के बीच तेज़ी से बढ़ रही खाई एक बड़ी चिंता का सबब बन गया है।
 
गैरबराबरी का आलम ये है कि अभी देश में शीर्ष एक प्रतिशत दौलतमंद लोग देश की 60 प्रतिशत दौलत के मालिक हैं। पहले ऐसा नहीं हुआ करता था, लेकिन हाल के दिनों में इसकी रफ़्तार बढ़ी है।
 
वेल्थ टैक्स लगाए सरकार
इसलिए सरकार को चाहिए कि वो वेल्थ टैक्स (संपत्ति कर) लगाए और इसके साथ ही साथ इनहेरिटेंस टैक्स (पुश्तैनी संपत्ति पर लगने वाला कर) भी लगाए।
 
अगर सिर्फ वेल्थ टैक्स लगेगा तो लोग अपनी दौलत को अपने बच्चों में बांट कर इससे बचने की कोशिश करेंगे।
 
स्वास्थ्य और शिक्षा एक और बड़ा क्षेत्र है जहां सरकार को ज़्यादा ध्यान देना होगा। अभी स्वास्थ्य पर जो खर्च है वो जीडीपी का एक प्रतिशत है जिसे बढ़ाकर तीन प्रतिशत तक लाना चाहिए। इसका मतलब ये नहीं है कि इसी बजट में ये होना चाहिए, बल्कि इसकी शुरुआत करनी होगी।
 
इसी तरह शिक्षा पर केंद्र और राज्य सरकारें मिलकर जीडीपी का कुल 2।7 प्रतिशत खर्च करती हैं। ये बहुत ही कम है। पहले कहा जाता था कि शिक्षा पर बजट को बढ़ाकर छह प्रतिशत होना चाहिए लेकिन कम से कम इसे 4 प्रतिशत तक तो बढ़ाना चाहिए।
 
गुरचरण दास का नजरिया
मुझे नहीं लगता कि भारतीय अर्थव्यवस्था में रोज़गार रहित विकास की स्थिति है, क्योंकि विकास दर भी नीचे आ गई है, जो पिछले तिमाही में 5।9 प्रतिशत पर थी। रोजगार रहित विकास हिंदुस्तान में नहीं हो सकता, ये पश्चिम में तो हो सकता है। इसलिए अगर हम विकास दर पर ध्यान देंगे तो रोज़गार भी बढ़ेगा।
 
जीडीपी कितनी? ये बहस हो रही है, इसको इतनी आसानी से नहीं समझा जा सकता। इसके लिए एक इंटरनेशनल पैनल बनाना चाहिए। लेकिन इतना तो तय है कि देश की विकास दर 8 प्रतिशत होगी तभी अर्थव्यवस्था का आकार पांच ट्रिलियन डॉलर का होगा, तब रोज़गार के अवसर भी पैदा होंगे।
 
सबसे अहम बात है कि पिछली मोदी सरकार विकास दर पर ध्यान देना भूल गई थी, लेकिन अब उसे फिर से इस पर ध्यान देना होगा। हमारा लक्ष्य गरीबी हटाओ नहीं बल्कि अमीरी लाओ होना चाहिए। इसलिए लोक कल्याणकारी लोकरंजक स्कीमों में बहुतों को बंद कर देना चाहिए।
 
दूसरे सबसे महत्वपूर्ण काम हैं निजी क्षेत्र में निवेश लाना। विकास और रोजगार के लिए ये बहुत ज़रूरी है। इसलिए सरकार को निजी क्षेत्र में आई नकारात्मकता की मानसिकता को बदलना होगा। क्योंकि ब्लैक मनी आदि पर कार्रवाई से निजी क्षेत्र में एक किस्म का भय व्याप्त हो गया है। इसके अलावा निर्यात पर ध्यान देना होगा। जो फैक्ट्रियां चीन छोड़ कर वियतनाम या अन्य देशों को जा रही हैं उन्हें अपने देश में लाने की कोशिश होनी चाहिए।
ये चीजें की जाएंगी तो रोजगार खुद ब खुद बढ़ेगा।
 
कृषि संकट से निपटने के लिए आर्थिक सुधारों पर और जोर देना होगा। जिस तरह 1992 में आर्थिक सुधारों की वजह से औद्योगिक क्षेत्रों मे जो आज़ादी आई थी, कृषि क्षेत्र को भी अब वो आज़ादी मिलनी चाहिए।
 
श्रम कानूनों में बदलाव होंगे तो छोटे स्टार्टअप और छोटे उद्योग धंधों को इससे फायदा पहुंचेगा। यानी किसी ख़ास सेक्टर के लिए कुछ नहीं करना चाहिए, बल्कि इसकी जगह ऐसे सुधार लाने चाहिए जिससे पूरी अर्थव्यवस्था को लाभ मिले।
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