- नितिन श्रीवास्तव (बीबीसी संवाददाता, अयोध्या)
पौ फटने को है और एक बड़े हाते में दो लोग नारंगी कपड़े से ढँके एक बक्से को किसी कोठरी से निकाल रहे हैं।
कपड़ा हटने पर पता चलता है कि दरअसल ये एक दान-पात्र है जिस पर रात को 'चोरों' के डर से ताला लगा दिया जाता है।
दान-पात्र सहेजने वालों में प्रांगण के 'सुरक्षाकर्मी' 3,000 रुपए प्रति माह की सैलरी पाने वाले हनुमान यादव भी हैं जो पिछले 20 सालों से यही काम कर रहे हैं।
पर्यटकों में होड़ : घड़ी में सात बज चुके हैं और बाहर गेट पर पांच टेम्पो गहरा काला धुआं उगलते हुए रुके हैं। क़रीब 20 से ज़्यादा महिला-पुरुष भीतर दाख़िल होते हैं। होड़ शीशे में रखे एक ढाँचे को क़रीब से छूने की है। किसी ने माथा टेका, किसी ने सौ का पत्ता चढ़ाया और किसी ने सेल्फी ले डाली।
अयोध्या के बीचोबीच ये मंज़र है राम जन्मभूमि न्यास कार्यशाला का जहाँ 1992 से पत्थरों को तराशने का काम जारी है। जिस ढाँचे को देखने और फ़ोटो खींचने की होड़ मची रहती है वो प्रस्तावित राम मंदिर का एक ढांचा है। बगल के एक पत्थर पर लिखा है कि इसकी लंबाई 268 फ़ीट, चौड़ाई 140 फ़ीट और ऊँचाई 128 फ़ीट होगी।
गुजरात के शिल्पकार : पिछले 24 से ज़्यादा वर्षों के दौरान प्रस्तावित राम मंदिर के निर्माण के लिए तराशे जाने वाले पत्थर राजस्थान के भरतपुर से आए हैं। इस काम में जो दो प्रमुख शिल्पकार जुटे हुए हैं वे दोनों गुजरात के हैं। हालांकि कार्यशाला के प्रमुख शिल्पकार ने बताया कि प्रस्तावित मंदिरों के लिए पत्थरों की भारी कमी है।
1992 में विवादित बाबरी मस्जिद ढांचा गिराया गया था और उसके बाद से गिरीश भाई सोमपुरा अपने परिवार के साथ यहाँ पहुंच गए थे। इन दिनों गिरीश भाई की तनख़्वाह 12,000 रुपए महीने है, दो बेटियों और बेटे की शादी हो चुकी है और वे सभी गुजरात लौट चुके हैं।
पत्थरों की कमी : गिरीश भाई ने बताया, "साल 1992 से अब तक यहाँ 1,25,000 स्क्वायर फ़ुट पत्थर पहुंचे हैं जिन्हें तराशने का काम लगातार जारी है। लेकिन प्रस्तावित राम मंदिर के पूरे ढाँचे को बनाने के लिए अभी भी 75,000 स्क्वायर फ़ुट पत्थरों की कमी है।"
क़रीब 25,000 स्क्वायर फ़ुट में फैली इस कार्यशाला में इन दिनों 20 लोग रहते हैं। हाते में धमाचौकड़ी करने वाले बंदरों की गिनती करना मुश्किल है।
रजनीकांत भरत राय सोमपुर पत्थरों को तराशने में गिरीश भाई की मदद कर रहे हैं और गुजरात के सुरेंद्र नगर ज़िले के रहने वाले हैं। मलाल बस ये है कि 400 रुपए प्रति दिन की दिहाड़ी मिलती है लेकिन ख़ुशी भी कि महीने में सिर्फ एक छुट्टी करते हैं जिससे ज़्यादा कमा सकें।
उन्होंने कहा, "1998-99 में यहाँ चार साल काम कर के लौट गया था। लेकिन दूसरी जगह लंबा काम नहीं मिलता, भले पैसे ज़्यादा मिले। इसलिए दो साल पहले परिवार के साथ अयोध्या लौट आया हूँ"। दोपहर हो चुकी है। 25,000 स्क्वायर फ़ुट में फैली कार्यशाला को देखने के लिए अब तक 200 से ज़्यादा लोग आ कर लौट चुके हैं।
'मामला अपनी आस्था का' : पहली खेप महाराष्ट्र के शोलापुर और पुणे की थी। श्रीकांत फड़नवीस के मुताबिक 'भले ही मामला न्यायिक प्रक्रिया से गुज़र रहा हो, यहाँ आने से दिलासा मिला कि मंदिर कार्यशाला में काम तो हो रहा है'।
जबकि पुणे की अरुंधति कुलकर्णी को लगा कि 'लोग बेकार में ही मामले का राजनीतिकरण करने में लगे रहते हैं। मामला अपनी-अपनी आस्था का है, बस।" आधे घंटे बाद ही एक छोटी टेम्पो ट्रैवलर आकर रूकी और नेपाल से 'राम लला' का दर्शन करने आए लोग हाथ जोड़े दाख़िल हुए।
फ़ैसले का इंतज़ार : काठमांडू की रहने वाली राधा के 'मन में राम की भक्ति इन तराशे गए पत्थरों को देख कर बढ़ गई है।" वो बात और है कि राधा को किसी ने ये नहीं बताया कि इलाहाबाद हाई कोर्ट ने राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद मामले के फ़ैसले में विवादित स्थल को तीन पार्टियों में बांटा था। इनमें से एक निर्मोही अखाड़ा है, दूसरा राम जन्मभूमि न्यास और तीसरा सुन्नी मुस्लिम वक़्फ़ बोर्ड। मामला अब सुप्रीम कोर्ट में है और सभी को इसके फ़ैसले का इंतज़ार है।
लेकिन 'राम मंदिर कार्यशाला' में दर्शानार्थियों का जमावड़ा दोपहर बाद बढ़ने लगता है। जम्मू से क़रीब 14 लोगों का ग्रुप सुबह अयोध्या पहुंचा है। सरयू में डुबकी लगाने और कनक भवन के बाद अब कार्यशाला ही देखने का मन है। कुछ लोग दान-पात्र में दान चढ़ाते हैं, कुछ बंदरों के खौफ़ से नोट मुट्ठी में दबाए परिक्रमा कर रहे हैं और कुछ पत्थरों पर स्केच पेन से अपना नाम-पता लिख रहे हैं।
दो बजने को हैं और कार्यशाला के कई कर्मचारी थोड़ी हड़बड़ाहट में हैं। पास ही में कारसेवक पुरम है जहाँ रोज़ लंगर चलता है। 'राम मंदिर कार्यशाला' में पत्थर तराशने और श्रद्धालुओं के आने का सिलसिला चलता रहेगा। लंगर का समय किसी का इंतज़ार नहीं करता, बंद हुआ तो अगले दिन ही खुलेगा।