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आयुर्वेद एवं जलनेती

Ayurved and Jal netee of yoga | आयुर्वेद एवं जलनेती
-प्रोफेसर डॉ. विनोद कुमार शर्म
जिस शास्त्रा में हित आयु, अहित आयु, सुख आयु, दुःख आयु के लिए पथ्य, अपथ्य एवं आयु के स्वरूप का वर्णन प्राप्त हो उसे आयुर्वेद कहा जाता है। महर्षि पतंजलि के अनुसार 'योगश्चितवृत्ति निरोध्:' अर्थात चित्त की वृत्ति को रोकना ही योग है। आचार्य चरक के मतानुसार योग मोक्ष का दायक है। योग से सभी वेदनाओं का नाश हो जाता है तथा मोक्ष में आत्यान्तिक वेदनाओं का भी नाश हो जाता है।
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आयुर्वेद एवं योग का प्रयोजन, स्वस्थ व्यक्ति के स्वास्थ्य की रक्षा करना तथा रोग से पीड़ित व्यक्ति के रोग का निवारण करना है। आयुर्वेद में रोगों की चिकित्सा संशोधन और संशमन भेद से दो प्रकार से वर्णित है- संशमन चिकित्सा से संशोधन चिकित्सा श्रेष्ठ होती है। आचार्य चरक मतानुसार जो दोष (रोग) लंघन, पाचन (संशमन) द्वारा नष्ट किए जाते हैं वे पुनः भी कुपित हो सकते हैं किन्तु संशोधन के द्वारा जिन दोषों का नाश किया गया हो, उनकी पुनः उत्पत्ति नहीं है।

आयुर्वेद मतानुसार आचार्य शारंगध्र ने संशोधन चिकित्सा के अन्तर्गत वमन, विरेचन, निरुहण, अनुवासन तथा नस्य कर्म नाक पंचकर्म का उल्लेख किया है। आयुर्वेद वर्णित पंचकर्म संशोधन चिकित्सा के अनुरूप हठयोग शास्त्र में षटविध शोधन कर्म का उल्लेख किया गया है। हठयोग प्रदीपिका में 1. धैती, 2. बस्ति, 3. नेती, 4. त्राटक, 5. नौलिक, 6. कपालभाति नामक षट्शोधन कर्म का वर्णन किया गया है।

घेरण्ड संहिता में नौलि के स्थान पर नौलिक शब्द का पर्याय रूप में हुआ है। हठयोग प्रदीपिका के अनुसार ये षट्कर्म गुप्त रखने योग्य हैं। ये शरीर को शुद्ध कर उसमें विचित्र गुणों का संधन करते हैं। योगियों को श्रेष्ठता प्रदान करते हैं अर्थात्‌ वे योगियों में पूजित होते हैं।

आयुर्वेदोक्त नस्य कर्म की भाँति योग में उर्ध्व जत्रुगत रोगों की चिकित्सा हेतु नेति कर्म का उल्लेख प्राप्त होता है। आयुर्वेद में आँख, नाक, कान, मुख रोगों को उर्ध्व जत्रुगत रोग कहा जाता है। अमरकोष में भुजा एवं सिर की संधि को जत्रु कहा है।

स्वात्माराम योगीन्द्र के मतानुसार एक विलान्द (नौ अंगुल लम्बे) पतले सूत्र को शुद्ध घी से स्निग्ध कर नासिका द्वार से भीतर डाल कर मुख द्वारा बाहर निकालना नेती कर्म कहलाता है।

घेरण्ड संहिता के अनुसार नेतीकर्म से सिद्धि प्राप्त होती है। कफ दोष का नाश होता है तथा दिव्य दृष्टि की प्राप्ति होती है। हठयोग प्रदीपिका के अनुसार नेती कपाल को शुद्ध करती है और दिव्य दृष्टि को देती है। उर्ध्व जत्रुगत रोगों को शीघ्र नष्ट करती है। इस नेति कर्म में सूत्र का प्रयोग होता है अतः इसे सूत्र नेती कहते हैं यदि सूत्र के स्थान जल का प्रयोग किया जाय तो उसे जल नेतकहते हैं।

इस विधि में एक नासा द्वारा से जल खींचकर दूसरे नासा से अथवा मुख से बाहर निकाल देते हैं। इसी प्रकार जल के स्थान पर दूध अथवा घृत का प्रयोग किया जा सकता है।

सन्‌ 1550 ई. में भाव मिश्र द्वारा रचित भावप्रकाश में योगोक्त नेति कर्म का स्पष्ट प्रभाव दिखाई पड़ता है। आचार्य भाव मिश्र ने उषा काल अर्थात प्रातः काल उठकर नासावारिपान अर्थात्‌ नासिका से तीन प्रसृति (300 मिली.) जलपान का उल्लेख किया।

प्रातः काल जो मनुष्य नित्य नासिका से जलपान करता है वह निश्चय ही बुद्धि से पूर्ण होता है। उसके नेत्रों की शक्ति गरुढ़ तुल्य हो जाती है। वह वलित और पलित (बालों का सफेद होना और निगरना) से हीन होकर सर्वरोग मुक्त हो जाता है।

रात्रि व्यतीत होने पर नित्य नासा जलपान से व्यंग (झाँई) वाली, पलित (सफेद बाल), पीनस (जुकाम), स्वरभंग, खाँसी और शोथ रोग दूर हो जाते हैं यह जल पीना रसायन और दर्शन शक्ति को बढ़ाने वाला होता है। किन्तु जिसने स्नेह पान किया हो। जिन्हें क्षत हो गया हो। जिसने वमन या विरेचन से शरीर शुद्धि की हो या उदर में आध्मान हो गया हो या मन्दाग्नि हो गई हो। जो हिचकी और कफ, वात से पीड़ित हो, उन्हें नासा जलपान नहीं करना चाहिए।

आयुर्वेदोक्त संशोधन वमन, विरेचन, निरुह, अनुवासन तथा नस्य नामक पंचकर्म परिष्कृत रूप में हठयोग द्वारा षटकर्म के रूप में शरीर शोधन हेतु वर्णित किया गया तथा योगोक्त नेती कर्म को जलनेती के रूप में भाव प्रकाश द्वारा स्पष्ट रूप से चिकित्सार्थ वर्णित किया गया है।

साभार : योग संदेश (दिव्य योग मंदिर योग ट्रस्ट)
सौजन्य : डायमंड कॉमिक्स प्रकाशन समूह