शुक्रवार, 26 अप्रैल 2024
  • Webdunia Deals
  1. लाइफ स्‍टाइल
  2. »
  3. नायिका
  4. »
  5. आलेख
Written By ND

सहनशीलता पर हावी होती आक्रामकता

सहनशीलता पर हावी होती आक्रामकता -
- डॉ. 'तापराव कद
ND
आधुनिकता ने हमें कई बातों के अलावा आक्रामकता और चौकन्नापन भी दिया है। गाहे-ब-गाहे हमें लगता रहता है कि इससे खतरा है, हमें शक है इस पर। यह चौकन्नापन, आक्रामकता समृद्ध होने के साथ-साथ बढ़ती जाती है

क्या हमारे व्यवहार में आक्रामकता घर करते जा रही है? और हमारे नहीं चाहते, नहीं जानते भी सहनशीलता हमारे लोक-व्यवहार, समाज-व्यवहार से गायब हो रही है? पिछले दिनों हमारे आसपास हुई घटनाएँ इसी ओर इशारा करती हैं। बरसों पहले एक ही तरह की घटना पर हमारा समाज, हमारा व्यवहार जहाँ उसके प्रति समझदारी, सहनशीलता, सहानुभूति भरा रहता था, ठीक वैसी ही घटना पर अब हम उबल पड़ते हैं, आक्रामक हो जाते हैं

हमें लगने लगता है कि हमारे इतिहास को गलत ढंग से पेश किया जा रहा है, हमारी प्रतिष्ठा दाँव पर है और यह घटना हमारी प्रतिष्ठा पर लांछन है। किसी किताब, किसी चित्रकला, किसी लेखिका, कोई शहर, राज्य, प्रांत, इलाके को लेकर हम आखिर इतने तंग क्यों हो जाते हैं कि हमें हमारे अलावा और कोई नजर ही नहीं आता? हमारा व्यवहार ठीक कबीलाई हो जाता है? जबकि कोई एक सोच, एक नजरिए से संपूर्णता को नहीं देखा जा सकता, बात फिर 'मुंबई केवल मराठियों की' वाली हो या फिल्म 'जोधा-अकबर' की या तस्लीमा की या एक विद्यार्थी द्वारा अपने सहपाठी को गोली मारने की या भीड़ द्वारा कथित अपराधी को मार डालने की या हमारे क्रिकेटर द्वारा ऑस्ट्रेलिया में माँ की गाली देना हो या कुछ और कहना हो।

किसी एक कोण से, एक नजरिए से किसी भी चीज को समूचेपन में नहीं देखा जा सकता। हमारा शक्तिकुंज, हमारा सूर्य जब अपनी संपूर्ण ऊर्जा-शक्ति लगाने के बाद भी पृथ्वी के सिर्फ आधे हिस्से को ही प्रकाशवान कर सकता है, तब एक सोच, वह भी तंग नजरिए में लिथड़ा- कैसे समग्र को देख सकता है?

इन सबसे अलहदा एक-दूसरे के लिए गुंजाइश छोड़ने का गुण यानी सहनशीलता भी दृश्य से ही नहीं, हमारे व्यवहार से भी गायब हो रही है और एकांगी दृष्टि की पैदावार आक्रामकता हावी हो रही है। आखिर क्या है आक्रामकता और क्या उसका हासिल? आक्रामकता यानी ऐसा हिंसक व्यवहार जो दूसरों को कष्ट, चोट पहुँचाने के लिए किया जाता है, जब सारे तर्कों को एक तरफ धकिया केवल अपना रौब गालिब करना हो। कई मर्तबा असुरक्षा, चौकन्नोपन का हासिल भी आक्रामकता होती है।

दरअसल, आधुनिकता ने हमें कई बातों के अलावा आक्रामकता और चौकन्नापन भी दिया है। गाहे-ब-गाहे हमें लगता रहता है कि इससे खतरा है, हमें शक है इस पर। यह चौकन्नापन, आक्रामकता समृद्ध होने के साथ-साथ बढ़ती जाती है। कहा भी गया है न समृद्धि मनुष्य को ज्यादा अकेला, आत्मकेंद्रित, आक्रामक और चौकन्ना बना देती है और ऐसे चौकन्नोपन में राजनेता शामिल हो इसे अपने पक्ष में भुनाने के लिए सदैव तैयार रहते हैं

जिस जमीन से भक्ति आंदोलन की शुरुआत हुई, दलित मूवमेंट ने जोर पकड़ा, जहाँ एक-दूसरे के लिए इतनी गुंजाइश थी कि डॉ. आम्बेडकर अध्ययन के लिए विदेश गए तो उनके अध्यापन का खर्चा एक मराठा सरदार गायकवाड़ ने उठाया। जहाँ आरक्षण की शुरुआत भी छत्रपति साहू महाराज द्वारा की गई। वहाँ से इस तरह उल्टी बयार बहने की खबर आना सचमुच चौंकाता है। एक जमीन से कटा चौकन्ना नेता ऐसी ही आक्रामकता को तरजीह देता है, जैसे एक कमजोर होता राजा, धार्मिक होता जाता है और उसकी आड़ में अपने मंसूबों को पाता है जमीन पकड़ते।

इतिहास का हवाला देते जो लोग 'जोधा-अकबर' पर पाबंदी की तरफदारी करते हैं, उन्हें न फिल्म की समझ है न इतिहास की, न इतिहास-बोध की। ऐसे में आप उनसे सिवाय आक्रामकता के और क्या अपेक्षा कर सकते हैं? दूसरों के लिए गुंजाइश यानी सहनशीलता की तो कतईनहीं। फिल्म जैसे नाटकीय माध्यम पर इतिहास को समूचा समेटा नहीं जा सकता, वह फिल्म फिर 'मंगल पांडे' ो, 'अशोका' ो, 'मुगल-ए-आजम' हो या 'ताजमहल।'

यहाँ तक कि 'गाँधी' या 'सरदार पटेल' और 'अम्बेडकर' जैसी फिल्म से भी असहमति हो सकती है। विशेषज्ञ मानते हैं कि फिल्म जैसे नाटकीय माध्यम पर 20 प्रश से अधिक सच दिखाया ही नहीं जा सकता। 'अशोका' का नायक मध्यप्रदेश के महेश्वर, मंडलेश्वर में अभिनय क्षमता दिखाता है और नर्मदा में करता है अठखेलियाँ और नायिका भेड़ाघाट (जबलपुर) में बनाए सेट पर नृत्य करती है

कहाँ है सम्राट अशोक का इस तरह से महेश्वर, मंडलेश्वर या भेड़ाघाट से संबंध? मंगल पांडे के रागात्मक संबंध तवायफ से बताए गए थे, कहाँ है उसका ऐतिहासिक आधार? 'शहीद भगतसिंह' में भगतसिंह की प्रेमिका की ओर भी इशारा किया गया था। कहाँ है इतिहास में उस प्रेमिका का जिक्र?
भाषा, क्षेत्र, लोक-संस्कृति इतिहास को अपने चटखारेपन में फिल्म वाले उतना ही शामिल करते हैं जितना उनकी नाटकीयता इजाजत देती है। यही बात 'जोधा-अकबर' पर भी लागू होती है। अब जोधा किसकी बेटी थी, वह आमेर की थी या जोधपुर की, किसकी बीवी थी? अकबर की या शहजादे सलीम की, इन सारे प्रश्नों के जवाब आक्रामकता से नहीं मिल सकते। हाँ, अगर फिल्म के तिलस्म को समझना चाहें सहानुभूति-सहनशीलता से तो मिल सकते हैं जवाब और इसी से हम इतिहास, इतिहास-बोध, इतिहास-दृष्टि और इतिहासनियंता को जान-समझ सकते हैं

यही समझ एक-दूसरे के लिए गुंजाइश बनाती है, आक्रामकता से मुक्ति दिलाती है, हमें सहनशीलता, सहानुभूति के नजदीक ले जाती है। इतिहास क्या है? काल की शाश्वत धारा में पैदा होते- बहते- तैरते- इतराते आदमी से उसके विवेक ने कहा कि आखिर वह कहाँ से आ रहा है? वह कहाँ तक आ गया है? यहाँ तक आने में कौन-कौन-से अवरोध रहे हैं? वह कहाँ जा रहा है? क्या हो रहा है? क्यों हो रहा है? और क्या हो सकता है यानी अपने वक्त के संपूर्ण सत्य को जानना इतिहास है और इस संपूर्ण सत्य निर्धारण में आदमी या आदमी के गुट की क्या भूमिका रही है, यही चेतना इतिहास-बोध की शुरुआत है। इसमें से कितना सँजोने-सँवारने लायक है और कितना खारिज करने लायक, यह दृष्टि ही इतिहास-दृष्टि है

इतिहास-बोध इतिहास-दृष्टि दोनों पर समय का सच हावी होता है। यहीं हमें जवाहरलाल नेहरू की याद आती है। वे पेशेवर इतिहासविद् नहीं थे, पर उन्होंने 'विश्व इतिहास की झलक' और 'भारत एक खोज' में जिस इतिहास-चेतना से हमारा परिचय कराया उसमें अतीत, वर्तमान और भविष्य तीनों में सहनशीलता, सहानुभूति की गुंजाइश रेखांकित होती है और हमारी भारतीय दृष्टि भी यही है, जो मनुष्य को इतिहास का माध्यम नहीं, औजार नहीं, बल्कि उसका नियंता बनाती है

गाँधी का जीवन-चरित्र इसका उदाहरण है जिसे 'गाँधी' फिल्म भी ठीक से नहीं उकेर सकी, आखिर वह फिल्म ठहरी! हमारे देश में आजकल जो राजनीतिक, वैचारिक लड़ाई चल रही है उसकी रणभूमि अतीत है। ऐसे में इतिहास और इसकी व्याख्या का खास महत्व है। संगीत, साहित्य, कला ये ऐसे उपादान हैं, जो मनुष्य को और अधिक मनुष्य बनाते हैं। फिल्म भी इसका हिस्सा है

यहाँ भी हमारी आक्रामकता बस नहीं करती। गजल गायक जगजीतसिंह हिन्दुस्तानी हैं, उन्होंने अहमद फराज की लिखी अनेक गजलें गाई हैं। फराज पाकिस्तान के हैं। वहाँ भी आक्रामकता सामने आई कि जगजीतसिंह को हिन्दुस्तानी शायरों की गजल ही गाना चाहिए। अब गुलाम अली ने, जो पाकिस्तान के हैं, अनेक हिन्दुस्तानी शायरों की गजल गाई है तो क्या हम उन शायरों का निषेध करेंगे?

आक्रामकता का कोई अंतिम सिरा नहीं। आखिर सियासत का कला के क्षेत्र में क्या काम? सियासतदारों द्वारा अपनी जमीन बनाने के लिए ये सब टोटके हैं, पर एक-दूसरे के लिए स्पेस (जगह) छोड़ना सामाजिकता के लिए जरूरी है। घर जिस चहारदीवारी से बना, वह चहारदीवारी कैसे बनी? ईंट ने सीमेंट-रेत के लिए गुंजाइश छोड़ी, सीमेंट-रेत ने पानी के लिए।
एक-दूसरे के लिए गुंजाइश छोड़ते दीवार बनी, फिर इमारत जिसे हमने घर बनाया। समाज, राष्ट्र, देश भी इसी तरह बनता है।