ख़ुदा ऎसे मुखड़े बनाता है कम
पेशकश : अज़ीज़ अंसारी * अशआर के परदे में हम किससे मुख़ातिब हैं सब जान गए होंगे क्यों नाम लिया जाए * हर एक शख़्स ज़माने में हक़ परस्त नहीं हर एक शख़्स से हक बात पर न उलझा कर * दोस्तों ने भी तमन्नाओं को पामाल किया दुश्मनों पर ही न इलज़ाम लगाया जाए * दुनिया ने उसकी राह में काँटे बिछा दिए फूलों से जिसने बाग़ को आरास्ता किया* छत मेरे दिल की बहुत कमज़ोर थी ग़म का पानी उम्र भर रिस्ता रहा * नए अरमाँ जगाने की घड़ी है तुम्हें किस वक़्त जाने की पड़ी है* बहुत ख़ूबसूरत है मेरा सनम ख़ुदा ऎसे मुखड़े बनाता है कम * मुझे जान से भी प्यारा मेहबूब मिल गया है जीने का ये सहारा क्या ख़ूब मिल गया है * मैं जो शायर कभी होता तेरा सेहरा कहता चाँद को चाँद न कहता तेरा चेहरा कहता * कैसे सुनाऊँ अपनी तबाही का माजरा कैसे कहूँ के यार ने रुस्वा किया मुझे * कल रात बरसती रही सावन की घटा भी और हम भी तेरी याद में दिल खोल कर रोए* याद रक्खो तो दिल के पास हैं हम भूल जाओ तो फ़ासले हैं बहुत * मैंने तो यूँही राख में फेरी थीं उंगलियाँ देखा जो ग़ौर से तेरी तस्वीर बन गई * दुआ सलाम में लिपटी ज़रूरतें माँगे तिजारतों की ये बस्ती, तिजारतें माँगे * चमकते कपड़े, महकता ख़ुलूस, पुख़्ता मकाँ हरएक बज़्म में इज़्ज़त हिफ़ाज़तें माँगे