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Written By WD

'सुदर्शन' युग का अवसान

-रवीन्द्र बरगले

''सुदर्शन'' युग का अवसान -
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सुदर्शनजी नहीं रहे। युग यदि साधारण व्यक्तियों को प्रभावित करता है तो विशेष व्यक्तियों से प्रभावित भी होता है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के पूर्व सरसंघचालक के रूप में सुदर्शनजी के अवसान से जो शून्य उत्पन्न हुआ है, निश्चित ही वह कभी भरा नहीं जा सकता।

कई स्वयंसेवकों के लिए उससे भी अधिक यह एक व्यक्तिगत क्षति है। उनका गूढ़ और गंभीर व्यक्तित्व, अनुशासित उपस्थिति और मौन समर्पण आज भी स्वयंसेवकों को अपने बीच उनकी उपस्थिति का अनुभव कराता है।

किसी बैठक में कई वर्ष पहले उनका संबोधन सुना था। संघ में बैठक के पूर्व स्वयंसेवकों का परिचय प्राप्त करने की परंपरा है। संयोग से बैठक में उस समय कोई 100-125 स्वयंसेवक और प्रबुद्ध जन रहे होंगे। परिचय और संबोधन के बाद बैठक समाप्त हो गई और सभी अपने-अपने घर चले गए।

अगले दिन नगर की शाखा में सुदर्शनजी स्वयं उपस्थित थे, उन्होंने मेरा नाम लेकर मेरे बारे में जानकारी ली और मुझसे मिलने की इच्छा प्रकट की। यह थी, लोकसंग्रह की और स्वयंसेवक से व्यक्तिगत रूप से जुड़ने की उनकी विशिष्ट शैली।

संघ में व्यक्ति परिचय और प्रचार के लिए स्थान कभी नहीं रहा, लेकिन संघ के स्वयंसेवक जानते हैं कि लोकसंग्रह और संघकार्य केवल व्यक्तिगत गुणों से, स्नेह और अपनत्व से ही संभव है। वे श्रेष्ठ वक्ता थे। भौतिक विज्ञान, दर्शन, इतिहास और राजनीति उनके प्रिय विषय थे। गूढ़ विषय की संदर्भ और उदाहरण सहित व्याख्या कर वे उसे बोधगम्य बना देते थे।

1931 को रायपुर में जन्मे कुप्पहल्ली सीतारमैया सुदर्शन ने 10 मार्च 2000 को नागपुर में अखिल भारतीय प्रतिनधि सभा के उद्घाटन सत्र में तत्कालीन सरसंघचालक रज्जू भैया से आरएसएस प्रमुख के रूप में दायित्व ग्रहण किया था।

सुदर्शनजी की प्रेरणा से देशभर में संघकार्य का विस्तार हुआ, कई स्वयंसेवकों के लिए उनकी उपस्थिति ही वह प्रेरक शक्ति थी, जिससे बड़े निर्णय सहज हो जाते थे। देश की राजनीति में शुचिता और आदर्श को बनाए रखने के लिए वे हमेशा प्रेरक और मार्गदर्शक बने रहे।