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Written By WD

एक स्त्री का स्वप्न और मर्द की सोच

-मधुसूदन आनंद

Article | एक स्त्री का स्वप्न और मर्द की सोच
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'मैं सोचती हूँ एक वक्त ऐसा भी आएगा, जब आदमी औरत के पीछे खड़ा नजर आएगा। ट्रक पर सामान लादने से लेकर हाथी का महावत बनने तक हर काम में औरतों का प्रभुत्व होना चाहिए। आदमी को घर में रुककर खाना बनाना चाहिए और जब स्त्रियाँ काम से लौटें तो उन्हें गोद में बच्चे लिए उनके लिए घर के दरवाजे खोलने चाहिए।'
(केरल में स्थानीय निकायों के चुनावों से एक दिन पहले एक स्थानीय अखबार में एक महिला के उद्गार)

जाहिर है कि किसी भी स्त्री का यह एक स्वप्न हो सकता है कि वह पुरुष के बराबर ही नहीं, उससे आगे खड़ी दिखाई दे। समाज में ऐसी कौन-सी स्त्री होगी जिसके मन में कभी यह न आया हो कि पुरुष भी वे सारे काम करें जिन्हें स्त्रियों के काम बताकर पुरुष निर्द्वंद्व घूमते फिरते रहते हैं? आखिर घर संभालना और बच्चे पालना सिर्फ स्त्री के ही काम क्यों हों?

केरल की स्त्री का यह स्वप्न नितांत स्वाभाविक और मानवीय है। कोई आश्चर्य नहीं कि यह स्वप्न एक दिन सच भी साबित हो जाए। पश्चिमी यूरोप के अनेक देशों में पुरुष घर के काम में पूरा हाथ बँटाते हैं। वे बच्चे पालते हैं, उनके डायपर या पोतड़े बदलते हैं, उनके लिए दूध की बोतल तैयार करते हैं और हर जिम्मेदारी निभाते हैं। कुछ देशों में तो पिताओं को भी प्रसूति सरीखा अवकाश मिलता है।

केरल की एक स्त्री अगर आज अपने लिए ऐसा स्वप्न देख रही है, तो उसके पीछे कुछ कारण हैं। केरल में पंचायतों के चुनाव हो रहे हैं और इन चुनावों में 50 प्रतिशत सीटें महिलाओं के लिए सुरक्षित हैं। महिलाएँ 50 प्रतिशत से भी ज्यादा सीटों पर जीत कर आएँगी क्योंकि अनेक सामान्य वर्ग की सीटों पर भी उनकी जीत की प्रबल संभावना है। केरल में योजनाओं के मद का एक तिहाई पैसा राज्य सरकार स्थानीय निकायों को उपलब्ध कराती है।

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स्थानीय निकायों में अपना प्रभुत्व कायम होने के बाद महिलाएँ इस पैसे को खर्च करने में ज्यादा बड़ी भूमिका निभाएँगी। यह सही है कि केरल रातोंरात स्त्रियों के लिए स्वर्ग नहीं बन जाएगा लेकिन इतना जरूर माना जा रहा है कि इससे केरल की आम स्त्री का सशक्तीकरण होगा और समाज में उसे उस तरह के लिंग भेद का सामना नहीं करना पड़ेगा जिसका उत्तर भारत के राज्यों उत्तर प्रदेश, बिहार, हरियाणा, राजस्थान और मध्यप्रदेश आदि में आमतौर पर करना पड़ता है।

इन राज्यों में आज भी कन्याओं को गर्भ में ही मार दिया जाता है। यही कारण है कि इन राज्यों में प्रति एक हजार लड़कों की तुलना में लड़कियों की संख्या कम है। यह अनुपात गड़बड़ाने से समाज में एक अलग तरह का असंतुलन पैदा हो गया है। इसका खामियाजा भी स्त्री जाति को ही भुगतना पड़ रहा है। हरियाणा और पंजाब में स्त्रियों की कमी होने से पिछले वर्षों में स्त्रियों की खरीद-फरोख्त के समाचार भी सुनने में आए थे। यह ठीक है कि समय के साथ समाज में कुछ प्रगतिशील बदलाव भी हुए हैं, लेकिन आज भी अनेक जगह स्त्री को एक वस्तु की तरह देखा और समझा जाता है।

कृषि आधारित समाजों में प्रायः हर परिवार की कामना पुत्र पाने की होती थी। माना जाता था कि पुत्र से ही वंश आगे चलेगा और खेतिहर कामों आदि में पुत्र ही ज्यादा उपयोगी होगा। यह क्या कम चौंकाने वाली बात है कि भारतीय परंपरा में धन और यश के साथ पुत्र की एषणा या कामना का भी महत्वपूर्ण स्थान रहा है। याद नहीं पड़ता कि किसी राजा ने पुत्री की कामना से कोई यज्ञ आदि किया हो।

अभी हाल ही में मुझे यह जानकर ताज्जुब हुआ कि मेरे एक परिचित पुत्र की चाह में अपनी पत्नी को लेकर बैंकाक गए थे। उनके पहले से एक लड़की है। थोड़े दिनों बाद उनके लड़का भी हो गया। बताया गया कि उन्होंने बैंकाक के एक अस्पताल में आईवीएफ तकनीक से अपनी पत्नी को गर्भधारण कराया।

उन्हें कुछ दिन बैंकाक में रहना पड़ा और इस पर लगभग 5 लाख रुपए का खर्च आया। मेरे परिचित एक छोटे-मोटे उद्योगपति हैं मगर आज के युग में भी जब महिलाएँ बड़े-बड़े बिजनेस संभाल रही हैं उन्हें आगे चलकर अपने कारोबार के लिए एक अदद पुत्र ही चाहिए। तो सामंतवादी समाजों के दिन लदने और प्रगति और विकास की रोशनी आने के बावजूद हमारे समाज में पुत्रेषणा कायम है।

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मुझे आश्चर्य हुआ जब मैंने हाल ही में चीन के बारे में एक समाचार पढ़ा। चीन ने बड़े प्रयत्न से समाजवादी समाज बनाया था। यह अलग बात है कि बाद में उसका विचलन पूंजीवादी रास्ते के रूप में भी देखने को मिला। चीन में एक परिवार-एक संतान की नीति का पालन कराया जाता है क्योंकि राज्य को लगता है कि बढ़ती आबादी को न रोका गया तो एक दिन संसाधनों की कमी हो जाएगी।

खबर में बताया गया है कि एक गर्भवती चीनी महिला को परिवार कल्याण विभाग जबरदस्ती पकड़ कर ले गए और 8 महीने के उसके शिशु का मारपीट कर गर्भपात करा दिया। इस महिला के पहले से एक संतान थी-नौ बरस की बच्ची। अब वह एक लड़का चाहती थी। चीन में दूसरी औलाद पैदा करने वाले से वैसे ही कई रियायतें छीन ली जाती हैं मगर यहाँ तो राज्य ने जुल्मोसितम की हद ही कर दी। चीन में मीडिया पर सरकार का नियंत्रण है, फिर भी वहाँ के लोग इंटरनेट पर इस घटना का वर्णन पढ़ रहे हैं और उत्तेजित भी हैं।

जो भी हो यह सवाल अपनी जगह है कि हमारे परिवारों को आज भी लड़का ही क्यों चाहिए? लड़की पैदा करने वाली स्त्री हमारे समाज में आज भी कई बार उपेक्षा और पारिवारिक नफरत का शिकार होती है, जैसे लड़की पैदा करने का दोष उसी का हो।

तो क्या यह माना जाए कि हमारे सामंतवादी सोच आज भी जिंदा है और प्रगति और विकास की रोशनी खुद पथरा गई है? क्या हमारे यहाँ बड़े-बड़े पदों पर विराजमान स्त्रियों का सिर्फ प्रतीकात्मक महत्व ही है और उनके प्रति समाज के नजरिए में कोई बड़ा गुणात्मक बदलाव नहीं आया है?