ऑफ बीट सिनेमा का वर्ष - 2007
पिछले कुछ वर्षों में जैसे-जैसे जीवन और समाजगत स्थितियों में जटिलताएँ और पर्तें बढ़ी हैं, सिनेमा में भी ढेरों विविधतापूर्ण प्रयोग हो रहे हैं। पिछले कुछ वर्षों में यह बदलाव काफी तेजी के साथ महसूस हुआ है। वर्ष-2007 इस तरह की फिल्मों, जिन्हें हम कला सिनेमा या ऑफ बीट सिनेमा के खिताब से नवाजते रहते हैं, काफी अच्छा रहा। बिमल रॉय और हृषिकेश मुखर्जी का दौर खत्म होने के बाद हिंदी सिनेमा प्राय: दो श्रेणियों में विभाजित होता रहा है। कला सिनेमा और व्यावसायिक सिनेमा, लेकिन पिछले कुछ वर्षों में यह वर्गीकरण कमजोर हुआ और ऐसी ढेरों फिल्में आईं, जो सो कॉल्ड कला सिनेमा के दायरे में तो नहीं आतीं, लेकिन जिनकी विषयवस्तु और एक कला माध्यम के रूप में सिनेमा का कुछ अलग हटकर और नए किस्म का इस्तेमाल रहा। फिल्में, जो इस माध्यम को नए और निराले अपने ही अंदाज में बरत रही हैं।
एकलव्य, हनीमून ट्रैवल्स प्रा.लि., भेजा फ्राय, लाइफ इन ए मेट्रो और चीनी कम जैसी फिल्में ऐसा ही अलग हटकर एक प्रयोग था। फिलहाल 26 जनवरी को प्रदर्शित हुई राहुल ढोलकिया की फिल्म इस कड़ी में पहली फिल्म थी, जो गुजरात दंगों में अपने बेटे को खो चुके एक पारसी परिवार की कहानी थी और उस कहानी के माध्यम से राजनीति, समाज और सांप्रदयिक वैमनस्य की बहुत-सी अनखुली पर्तों को खोलती है।
जैसा कि जाहिर-सी बात है कि इन फिल्मों की गुणवत्ता और उनके महत्व का पैमाना बॉक्स ऑफिस पर जुटी भीड़ नहीं हो सकती है। सिनेमाघर भले ही खाली रहे हों, लेकिन फिल्म को सराहा गया। इस वर्ष और पिछले और आने वाले तमाम वर्षों की सर्वश्रेष्ठ ऑफ बीट फिल्म का खिताब अनुराग कश्यप की ‘ब्लैक फ्राइडे’ को जाता है। यह इतनी कमाल की फिल्म थी कि देखने वालों ने महसूस किया कि पिछले तमाम वर्षों में हिंदी सिनेमा में ऐसा बेहतरीन काम नहीं हुआ है। सिनेमा कला का उत्कर्ष यह फिल्म हिंदी सिनेमा के इतिहास में हमेशा याद रखी जाएगी।