'दिल्ली के लिए मेरी ट्रेन मिस हो गई हैं मैं कल की ट्रेन से वापस आऊँगा।' मुंबई हमलों में मारे गए लोगों में से यह भी एक शख्स था, नाम था रघु। और ये थी उसकी अंतिम बातचीत उसके परिजनों के साथ। छत्रपति शिवाजी टर्मिनस के बाहर वो जिस टैक्सी में होटल जाने के लिए बैठा उसमें टाइम बम लगा हुआ था। फोन कट करने और गाड़ी में बैठने के कुछ सेकंड बाद ही गाड़ी में धमाका हुआ और बातें हमेशा के लिए बंद हो गई। रघु के घरवालों के लिए उस दिन के बाद कोई ट्रेन बंबई से दिल्ली नहीं आई। गाड़ी में लगे टाइम बम ने उन सबकी जिंदगी पर ताला जड़ दिया था।
रघु की तरह आतंकी हमलो के शिकार लोगों के घरवाले न जाने कब से अपनो की बाट जोह रहे हैं जो कभी न खत्म होने वाले सफर के लिए कब के निकल चुके हैं। लेकिन, 'आतंकवाद' - मृत्यु का पर्याय बन चुके इस शब्द को पोषित करने वालों को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता अगर रघु के बच्चों का भविष्य एक सवालिया निशान बनकर रह जाए, उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता अगर रघु की माँ अपने बेटे की इस अचानक हुई मौत पर अपनी बची हुई जिंदगी तक मातम मनाती रहे। उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता अगर उसकी पत्नी, पति का साथ छूट जाने पर रोज एक नया जिहाद लड़े और रोज एक मौत मरे। उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता कि अब रघु का बाप सुकून की मौत नहीं मर सकेगा क्योंकि उनकी अर्थी को कांधा देने वाला पहले ही रुकसत हो चुका।
रघु की कहानी ही एक अकेली नहीं है, ऐसी कई कहानियाँ 26 नवंबर 2008 (या उससे पहले भी कई बार) को बनी और अतीत के दर्दनाक हादसे की तरह कई दिलों में कैद हो गई। ऐसी कहानियाँ जिन पर लिखा नहीं जा सकता, जो आखरी साँस तक लोगों के जहन में एक दर्द बनकर जिंदा रहेंगी।
इन कहानियों से बस एक ही बात समझ में आती है कि मौत की सबसे बुरी शक्ल है आतंक और जिंदगी की सबसे बुरी शक्ल है आतंकवादी। उनके लिए रिश्तों का मतलब एक मानव बम से ज्यादा नहीं है। धर्म का मतलब उनके लिए आतंकवाद से ज्यादा नहीं है और इबादत का मतलब उनके लिए कत्लेआम से ज्यादा नहीं है।