बंध त्रय का अर्थ है तीन बंध या त्रिबंधासन। इस योग में तीन महत्वपूर्ण बंध का समावेश है इसलिए इसे बंध त्रय कहते हैं। ये तीनों बंध हैं- उड्डीयान, जालंधर और मूलबंध। इन तीनों बंधों को एक साथ लगाकर अभ्यास किया जाता है।
अभ्यास की विधि- किसी भी सुखासन में बैठकर श्वास को बाहर निकालकर फेंफड़ों को खालीकर दें। अब श्वास अंदर लेते हुए घुटने पर रखें हाथों पर जोर देकर मूलबंध करें अर्थात गुदा को ऊपर की ओर खींचते हुए पेट को अंदर की ओर खींचें।
फिर श्वास छोड़ते हुए पेट को जितना संभव हो पीठ से पिचकाएं अर्थात उड्डीयान बंघ लगाएं। साथ ही ठोड़ी को कंठ से लगाकर जालंधर बंध भी लगा लें।
सावधानी- उक्त बंध की स्थिति में अपनी क्षमता अनुसार रुकें और फिर कुछ देर आराम करें। इस योग का अभ्यास स्वच्छ व हवायुक्त स्थान पर करना चाहिए। पेट, फेंफड़े, गुदा और गले में किसी भी प्रकार का गंभीर रोग हो तो यह बंध नहीं करें।
इसके लाभ- इससे गले, गुदा, पेशाब, फेंफड़े और पेट संबंधी रोग दूर होते हैं। इसके अभ्यास से दमा, अति अमल्ता, अर्जीण, कब्ज, अपच आदि रोग दूर होते हैं। इससे चेहरे की चमक बढ़ती है। अल्सर कोलाईटिस रोग ठीक होता है और फेफड़े की दूषित वायु निकलने से हृदय की कार्यक्षमता भी बढ़ती है।