महामानव बनने की ओर...
सकारात्मक सोच की कला...प्रतिपक्ष भावना
स्वामी ज्योतिर्मयनंद की पुस्तक 'सकारात्मक सोच की कला' से अंश...
आपके मन को सुनियोजित ढंग से प्रशिक्षित और विकसित करने के लिए राजयोग में प्रतिपक्ष भावना नाम की एक विशेष साधना बताई गई है। सर्वप्रथम आप आत्मनिरीक्षण करें। ऐसा करने से आपको अपने दोषों का ज्ञान होगा। आप पाएँगे कि आपके व्यक्तित्व में कुछ दुर्गुण हैं, जिन्हें दूर किए बिना आप आत्मिक विकास के पथ पर अग्रसर नहीं हो सकते हैं। इन्हें आप कैसे दूर कर सकते हैं?
अपने दोषों के कारण चिंतित न हों और न ही इन्हें दबाने अथवा छिपाने का प्रयास करें। इसके बदले उस दोष के स्थान पर उसके विपरीत जो सद्गुण है उसे प्रतिस्थापित करें। आंतरिक रूप से दृढ़तापूर्वक निश्चिय कीजिए कि आप उस सद्गुण से पूर्णत: सम्पन्न हैं। आपका आंतरिक आत्मस्वरूप उस सद्गुण का जीवंत स्वरूप है। यदि आप इस अभ्यास को बनाए रखेंगे तो आप में वही सद्गुण स्थायी रूप से प्रकट हो जाएगा और आपका दोष निर्मूल हो जाएगा।
उदाहरण के लिए मान लें कि अन्य लोगों के समान आप भी क्रोध करने वाले व्यक्ति हैं। जब आपको ऐसा अनुभव होने लगे कि क्रोध आपके व्यक्तित्व का भयंकर दोष है, तो आप यह नहीं कहें कि मैं क्या करूँ? अपने क्रोध को मैं रोक नहीं पाता। नहीं चाहते हुए भी क्रोध आ जाता है। इसके विपरीत दृढ़तापूर्वक निश्चय कीजिए, 'मेरी अंतरआत्मा शांत स्वरूप है।' मैं क्षमाशील हूँ। मैं स्वभाव से ही उदार हूँ। क्रोध पर विजय प्राप्त करने की क्षमता मुझ में है। यदि आप प्रतिदिन ऐसा निश्चय करेंगे तो धीरे-धीरे निश्चित रूप से आप क्रोध करने के दोष से मुक्त हो जाएँगे।
जब आप किसी दुर्गुण पर विजय प्राप्त कर लेते हैं, तो आपके मन में एक विशेष प्रकार की ऊर्जा उत्पन्न होती है। आपको एक रहस्यमय शक्ति प्राप्त होती है। आप में विचार शक्ति का उदय होता है। महामानवों की महानता का यही रहस्य है। उन लोगों ने अपने मन का निरीक्षण किया, अपने दोषों को पहचाना और चाहे कितना भी समय क्यों न लगे, उसे दूर करने की दिशा में वे जुट गए।
साभार : Tha Art of positive Thinking (सकारात्मक सोच की कला। लेखक स्वामी ज्योतिर्मयनंद। अनुवादक योगिरत्न डॉ. शशिभूषण मिश्र)
सौजन्य : इंटरनेशनल योग सोसायटी (गाजियाबाद)