- ठाकुर दास' सिद्ध'
लगाया दांव पर दिल को जुआरी है,
मगर हारा कि दिल क्या, जान हारी है।
पयामे-यार आना था नहीं आया,
कहें किससे कि कितनी बेकरारी है।
झुकाकर सर खड़े होना जरूरी सा,
जहां सरकार की निकली सवारी है।
कभी इक पल नजर थी जाम पर डाली,
अभी तक, मुद्दतें गुजरीं, खुमारी है।
तलाशें क्यों कहीं अब दूसरा दुश्मन,
हमारी जब हमीं से जंग जारी है।
कही इक नासमझ ने आज ये सबसे,
समझ में आ गई अब बात सारी है।
मुखातिब है जमाने की हंसी से यूं,
कभी सहमी नहीं ईमानदारी है।
मेरी मौजूदगी में चुप खड़े थे सब,
चला आया कि फिर चर्चा हमारी है।
लगे कैसे नहीं तीखी जमाने को,
अजी ये' सिद्ध' की नगमा निगारी है।