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मीर की ग़ज़लें
1.
राहे-दूरे-इश्क़ से रोता है क्या आगे-आगे देखिए होता है क्या सब्ज़ होती ही नहीं ये सरज़मींतुख़्मेख़्वाहिश दिल में तू बोता है क्याक़ाफ़ले में सुबहा के इक शोर हैयानी ग़ाफ़िल हम चले सोता है क्याग़ैरत-ए-युसुफ़ है ये वक़्त-ए-अज़ीज़ "
मीर" इस को रायगाँ खोता है क्या2.
मुँह तका ही करे है जिस-तिस का हैरती है ये आइना किसकाशाम से कुछ बुझा सा रहता है दिल हुआ है चिराग़ मुफ़लिस काफ़ैज़ ए अब्र चश्म-ए-तर से उठाआज दामन वसी है इसकाताब किसको जो हाल-ए-मीर सुने हाल ही और कुछ है मजलिस का 3.
मामूर शराबों से कबाबों से है सब देर मस्जिद में है क्या शेख़ प्याला न निवाला गुज़रे है लहू वाँ सर-ए-हर-ख़ार से अब तकजिस दश्त में फूटा है मेरे पांव का छाला देखे है मुझे दीदा-ए-पुरचश्म से वो "मीर"मेरे ही नसीबों में था ये ज़हर का प्याला 4.
मरते हैं हम तो आदम-ए-ख़ाकी की शान पर अल्लाह रे दिमाग़ कि है आसमान पर कुछ हो रहेगा इश्क़-ओ-हवस में भी इम्तियाज़ आया है अब मिज़ाज तेरा इम्तिहान पर मोहताज को ख़ुदा न निकाले कि जू हिलाल तश्हीर कौन शहर में हो पारा-नान पर शोख़ी तो देखो आप कहा आओ बैठो "मीर" पूछा कहाँ तो बोले कि मेरी ज़ुबान पर