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जोया के अशआर
पेशकश : अज़ीज़ अंसारी * साए में ज़रा बैठ गया धूप का मारा दीवार तो लेकर नहीं जाएगा बिचारा---जोया* ये एक इनायत की नज़र आपने डाली या बर्फ़ का ख़ंजर मेरे सीने में उतारा* सूरज लाख सुनेहरा निकला किरन किरन पर पहरा निकला* रोने वाला सो गया आख़िर सुनने वाला बहरा निकला* बारयाबी कोई आसान है क्या तेरे हुज़ूर तुझसे नाज़ुक है तबीयत तेरे दरबानों की* अजीब शहर है तेरा के लोग कहते हैं पड़ोसियों का बहुत ऎतबार मत करना* ये माना प्यार मैं करता हूँ एक काफ़िर से ये किस किताब में लिक्खा है प्यार मत करना* जब भी गये मिलने को पड़ोसी से पड़ोसी सीने में लिए बीच की दीवार गए हैं * बेशक बहुत ज़रूरी है मज़हब मगर ऎ शेख़ पीते हैं हम ये पानी हमेशा उबाल कर * ये दो आँखें, ये चार आँसू और हमारा क्या सरमाया* घायल बिचारा मर गया आख़िर लहू बग़ैर सब की रगों में ख़ून था लेकिन सुफ़ीद था* कहाँ शबाब की मस्ती, शराब के अन्दर पिलाना है तो जवानी पिला शराब न दे * फूल को समझे इक अंगारा हमको अपने वहम ने मारा* भीगी आँख का इक और बोसा मीठा-मीठा, खारा-खारा* है काहकशाँ इश्क़ के मारों की नज़र में इक हाथ उजाले का अँधेरे की कमर में * उदासी रोग बुरा है तमाम लोगों में ज़्यादा देर न बैठो उदास लोगों में * हर पैकरे-हसीं के तलबगार हम भी हैं हाँ, ये गुनाह है तो गुनहगार हम भी हैं * जब किसी के आगे लेकर अपनी लाचारी गए हम पे वो लम्हे न पूछो किस क़दर भारी गए* रिंदी है वही रिंदी, पीना है वही पीनाजिस रिन्द के पीने से महफ़िल को सुरूर आए * आस्माँ को न देख हसरत से उड़, कि तुझमें है क़ुव्वते-परवाज़