अन्न में भी मादकता होती है। भोजन करने के बाद शरीर में आलस्य और तंद्रा का अनुभव प्रत्येक व्यक्ति करता है। अन्न ग्रहण न करने से शरीर चैतन्य और जागृत रहता है। परिणामस्वरूप जिस आध्यात्मिक अनुभूति और उपलब्धि के लिए शिव उपासना की जा रही है, उसमें कोई बाधा नहीं उत्पन्न होती। भूख प्राणीमात्र की प्राथमिक आवश्यकताओं में से एक है।
इसलिए भूख को सहन करना, तितिक्षा की वृद्धि करना है। यदि भूख पर विजय पा ली गई तो ऐसी अन्य आदतों पर विजय प्राप्त करना भी आसान हो जाता है, जो भूख के समान गहरी नहीं होतीं। इसे तेज धारा केविपरीत तैरने का प्रयोग भी समझना चाहिए।
रात्रि जागरण के संदर्भ में श्रीकृष्ण के इन वाक्यों की ओर ध्यान देना चाहिए 'या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागर्ति संयमी।' अर्थात जब संपूर्ण प्राणी अचेतन होकर नींद की गोद में सो जाते हैं तो संयमी, जिसने उपवासादि द्वारा इंद्रियों पर नियंत्रण प्राप्त कर लिया हो, जागकर अपने कार्यों को पूर्ण करता है। कारण साधना सिद्धि के लिए जिस एकांत और शांत वातावरण की आवश्यकता होती है, वह रात्रि से ज्यादा बेहतर और क्या हो सकती है।
यह भगवान शंकर की आराधना का प्रमुख दिन है। अन्य देवों का पूजन-अर्चन दिन में होता है, लेकिन भगवान शंकर को रात्रि क्यों प्रिय हुई और वह भी फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी को? यह बात विदित है कि भगवान शंकर संहार शक्ति और तमोगुण के अधिष्ठाता हैं, अतः तमोमयी रात्रि से उनका स्नेह स्वाभाविक है। रात्रि संहारकाल की प्रतिनिधि है।
उसका आगमन होते ही सर्वप्रथम प्रकाश का संहार, जीवों की दैनिक कर्म-चेष्टाओं का संहार और अंत में निद्रा द्वारा चेतनता का संहार होकर संपूर्ण विश्व संहारिणी रात्रि की गोद में अचेत होकर गिर जाता है। ऐसी दशा में प्राकृतिक दृष्टि से शिव का रात्रि प्रिय होना सहज ही हृदयंगम हो जाता है। यही कारण है कि भगवान शंकर की आराधना न केवल इस रात्रि में अपितु सदैव प्रदोष (रात्रि प्रारंभ होने पर) समय में भी की जाती है।
शिवरात्रि का कृष्ण पक्ष में आना भी साभिप्राय है। शुक्ल पक्ष में चंद्रमा पूर्ण होता है और कृष्ण पक्ष में क्षीण। उसकी वृद्धि के साथ-साथ संसार के संपूर्ण रसवान पदार्थों में वृद्धि और क्षय के साथ-साथ उनमें क्षीणता स्वाभाविक है। इस तरह क्रमशः घटते-घटते वह चंद्र अमावस्या को बिलकुल क्षीण हो जाता है। चराचर के हृदय के अधिष्ठाता चंद्र के क्षीण हो जाने से उसका प्रभाव संपूर्ण भूमंडल के प्राणियों पर भी पड़ता है। परिणामस्वरूप उनके अंतःकरण में तामसी शक्तियाँ प्रबुद्ध हो जाती हैं, जिनसे अनेक प्रकार के नैतिक एवं सामाजिक अपराधों का उदय होता है। इन्हीं शक्तियों को भूत-प्रेत आदि कहा जाता है।
ये शिवगण हैं, जिनके नियामक भूतभावन शिव हैं। दिन में जगत आत्मा सूर्य की स्थिति तथा आत्मतत्व की जागरूकता के कारण ये तामसी शक्तियाँ विशेष प्रभाव नहीं दिखा पातीं किंतु चंद्रविहीन अंधकारमयी रात्रि के आगमन के साथ ही इनका प्रभाव प्रारंभ हो जाता है। जिस प्रकार पानी आने से पहले पुल बाँधा जाता है, उसी प्रकार चंद्रक्षय तिथि आने से पहले उन तामसी शक्तियों को शांत करने के लिए इनके एकमात्र अधिष्ठाता भगवान आशुतोष की आराधना करने का विधान शास्त्रकारों ने किया है।
यही कृष्ण चतुर्दशीकी रात्रि में शिव आराधना करने का रहस्य है, परंतु कृष्ण पक्ष चतुर्दशी प्रत्येक मास में आती है, वे शिवरात्रि क्यों नहीं कहलातीं? फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी में ही क्या विशेषता है, जो इसे शिवरात्रि कहा जाता है?
जहाँ तक प्रत्येक मास की चतुर्दशी के शिवरात्रि कहलाने का प्रश्न है तो निश्चय ही वे सभी शिवरात्रि ही हैं और पंचांगों में उनके इसी नाम का उल्लेख भी किया गया है। यहाँ इस अंतर को अधिक स्पष्ट करने के लिए यह जानना भी आवश्यक है कि फाल्गुन की इस शिवरात्रि को 'महाशिवरात्रि' के नाम से पुकारा जाता है। जिस प्रकार क्षयपूर्ण तिथि (अमावस्या) के दुष्प्रभाव से बचने के लिए उससे ठीक एक दिन पूर्व चतुर्दशी को यह उपासना की जाती है, उसी प्रकार क्षय होते हुए वर्ष के अंतिम मास से ठीक एक मास पूर्व इसका विधान शास्त्रों में मिलता है, जो सर्वथा युक्तिसंगत है।
सीधे शब्दों में हम कह सकते हैं कि यह पर्व वर्ष के उपान्त्य मास और उस मास की भी उपान्त्य रात्रि में मनाया जाता है। इसके अतिरिक्त हेमंत में ऐसा प्रतीत होता है जैसे कोई अज्ञात सत्ता प्रकृति का संहार करने में जुटी हो। ऐसे में चारों ओर उजाड़-सा वातावरण तैयार हो जाता है। यदि इसके साथ भगवान शिव के रौद्र रूप का सामंजस्य बैठाया जाए तो अनुपयुक्त नहीं होगा। रुद्रों के एकादश संख्यात्मक होने के कारण भी यह पर्व 11वें मास में ही संपन्न होता है, जो शिव के रुद्र स्वरूपों का प्रतीक रूप है।